के पी सिंह
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अंधेरी सुरंग में फंस गई है। पार्टी में सबसे ज्यादा असमंजस राहुल गांधी के रवैये की वजह से है। यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि वे एक बार फिर पार्टी का नेतृत्व संभालने के लिए तत्पर होगें या नहीं।
दूसरी ओर उनके समर्थकों का समूह जिसे मीडिया में राहुल ब्रिगेड के नाम से परिचित कराया जा रहा है, अभी भी उनके माध्यम से पार्टी का संचालन अपने तरीके से करना चाहता है। राहुल गांधी को फैसला ले लेना चाहिए। वह सचमुच पार्टी पर किसी तरह के आधिपत्य की भावना से अपने को दूर कर ले अथवा सीधे पार्टी की जिम्मेदारी संभालने की चुनौती स्वीकार करें।
उनके क्रियाकलापों में विरोधाभास में उनके त्याग को धूमिल कर दिया है जो उन्होंने लोकसभा चुनाव में हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़कर किया था। उन्होंने राय जाहिर की थी कि पार्टी को उनके परिवार से अलग हटकर नया नेता चुनना चाहिए तो इसके बाद भावुक माहौल बन गया था।
ऐसे में यह संभव नहीं था कि पार्टी वास्तव में उनके या उनकी मां सोनिया और प्रियंका को एक तरफ करके नया अध्यक्ष चुनने का साहस दिखा सके। इसलिए तात्कालिक प्रबंधन के तौर पर सोनिया गांधी को ही पार्टी की बागडोर सर्वसम्मति से बतौर अंतरिम अध्यक्ष मनोनीत करके सौप दी गई थी।
भावना यह थी कि इस बीच राहुल गांधी को मनाया जायेगा जल्द ही उन्हें पार्टी का नेतृत्व फिर से संभालने के लिए। राहुल गांधी ने पार्टी संचालन का बोझ उतारने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ अच्छा मोर्चा संभाला। कोरोना से लेकर चीन द्वारा भारतीय सीमा में कब्जा करने तक के मुद्दे उन्होंने जिस ढंग से उठाये उसे निष्पक्ष विश्लेषकों की सराहना मिली।
इसी दौरान सोनिया गांधी के खेमे से यह खबरें प्रचारित हुई कि राहुल गांधी फिर से पार्टी की कमान संभालने के लिए लगभग रजामंद हो गये हैं। पर यह खबरें साकार रूप लें इसका इंतजार ही हो रहा है।
दरअसल राहुल गांधी का इस्तीफा देने के पीछे जो मंतव्य था उसे उन्होंने तत्काल ही स्पष्ट किया था। वे चाहते थे कि जिन पर पार्टी के चुनाव अभियान की बड़ी जिम्मेदारी थी वे पद मोह त्यागकर उनका अनुसरण करें जिससे पार्टी के लिए संभावनाओं का नया द्वार खुल सके।
उन्होंने अशोक गहलोत को इंगित करके कहा था कि बड़े नेता अपने पुत्र को जिताने में लगे रहे जबकि उनकी जिम्मेदारी अपने राज्य में पार्टी को बड़ी सफलता दिलाने की थी। कमलनाथ उस समय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर थे उनसे भी उन्होंने ऐसे ही कारणों को लेकर नाराजगी जताई थी। पर इनमें से कोई भी राहुल गांधी के दबाव में नहीं आया।
क्या राहुल गांधी सोचते हैं कि शोभा मूर्ति बन चुके पार्टी के हैवीवेट नेता जब तक पद छोड़कर नये चेहरों के लिए रास्ता साफ करने की पेशकश नहीं मानेगें तब तक वे वापिसी नहीं करेंगे।
इस बीच राजस्थान का एपीसोड सामने आया। अगर अशोक गहलोत ने अपनी दम पर मुकाबला न किया होता तो उनकी सरकार बचने के बिल्कुल आसार न थे। जबकि हाईकमान से उन्हें बिल्कुल सहारा नहीं मिला। पार्टी के शिखर नेतृत्व ने संकट की इस घड़ी में संज्ञा शून्यता जैसी मुद्रा को अपनाया। इस वजह से नेताओं में निराशा घर कर गई।
23 नेताओं के ग्रुप का सोनिया गांधी को लिखा गया पत्र इसी क्षोभ की भूमिका से उपजा। होना यह चाहिए था कि इस पत्र को लिखने वाले नेताओं के साथ सहानुभूति का व्यवहार दिखाकर उन्हें सांत्वना दी जाये। लेकिन राहुल गांधी ने इसके उलट कार्यसमिति की बैठक में ऐसी बातें कह डाली जो नागवार थी। उन्होंने यह कहकर कि पत्र ऐसे समय लिखा गया जब सोनिया जी बीमार थी।
इस कार्रवाई को साजिश से जोड़ने की कोशिश की। वे यहीं तक नहीं रूके बल्कि उन्होंने पत्र लिखने वालों को प्रकारांतर से भाजपा और संघ का एजेंट भी कह दिया। हालांकि पहले के मौकों की तरह इसे बर्दास्त नहीं किया गया। गुलामनवी आजाद और कपिल सिब्बल ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया जताई।
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इसके बाद राहुल गांधी ने उन्हें फोन कर स्पष्टीकरण दिया तो लगा कि अब बात सुलझ जायेगी। पर लग रहा है कि कांग्रेस का शिखर नेतृत्व वक्त की नजाकत को महसूस नहीं कर पा रहा है। इसलिए बडप्पन का परिचय देने की बजाय वह पत्र लिखने वाले नेताओं के खिलाफ प्रतिशोधात्मक कार्रवाई की हिमाकत कर बैठा है। गुलामनवी आजाद राज्य सभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता हैं।
उनकी और आनंद शर्मा की हैसियत कमतर बनाने के लिए हाल में सदन के संसदीय दल में सोनिया गांधी ने कुछ जूनियर नेताओं को अहम दायित्व सौपें हैं। दूसरी ओर असंतुष्ट नेता इससे सहमने की बजाय तुर्की व तुर्की जबाव देने पर उतारू दिखने लगे हैं, जो कांग्रेस पार्टी के लिए खतरनाक स्थिति है।
गुलामनवी आजाद ने भड़ककर कहा है कि अगर चुनाव के आधार पर पद सौंपने की कार्रवाई शुरू न हुई तो कांग्रेस को 50 साल तक सत्ता में आने का सपना देखना बंद करना होगा। कपिल सिब्बल और आनंद शर्मा भी बगावती सुरों को बरकरार रखते हुए ट्वीट वार छेड़े हुए हैं।
कपिल सिब्बल ने जितिन प्रसाद के समर्थन में ट्वीट किया तो जितिन प्रसाद ने खुद तो कोई ट्वीट नहीं किया लेकिन उन्हें रिट्वीट करके अपने मंसूबों की झलक दे दी। बताया जा रहा है कि बड़ी संख्या में सीनियर कांग्रेसियों का समर्थन गुलामनवी आजाद, कपिल सिब्बल आदि ग्रुप 23 के असंतुष्टों को मिल रहा है।
राहुल गांधी की फौज में तकनीकी तौर पर पारंगत युवा तो हैं जिन्हें कारगर ताकत मानकर वे चूक कर रहे हैं क्योंकि इस राहुल ब्रिगेड की जमीनी हथकंडों पर कोई पकड़ नहीं है जो कि सफलता के लिए ज्यादा जरूरी है।
वैसे तो वर्तमान में कांग्रेस भाजपा से बहुत पिछड़ी नजर आती है जिसकी वजह से विभिन्न मोर्चो पर सरकार की तमाम नाकामियों के बावजूद उसका खेल बनता नहीं दिख रहा है। लेकिन दूसरी ओर राजनीति की गुप्तधारा कांग्रेस के लिए अनुकूल वातावरण का अदृश्य निर्माण कर रही है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
राहुल गांधी की सुनियोजित ढ़ंग से छवि बिगाड़कर उन्हें जोकर साबित करने में कसर नहीं छोड़ी गई है। लेकिन उनके हाल के बयानों, कार्रवाइयों और ट्वीट को गंभीर बुद्धिजीवियों ने वजनदार माना है। जो सत्ता विरोधी वर्ग का कांग्रेस के प्रति अव्यक्त ध्रुवीकरण जता रहा है।
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अल्पसंख्यकों के बाद दलितों में भी क्षेत्रीय दलों का सम्मोहन राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में टूटा है और वे अंदर ही अंदर कांग्रेस के इकजाई समर्थन की मानसिकता बनाने लगे हैं। पर अगर पार्टी में शिखर स्तर पर विग्रह बढ़ता है और बड़ी संख्या में दिग्गज नेता विद्रोह का बिगुल बजाने लगते हैं तो उसकी इन सुनहरी संभावनाओं पर समय के पहले ही पानी फिर सकता है।
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है)