संदीप पांडेय
कांग्रेस की समस्या ये नहीं है कि उसे नेतृत्व के लिए कोई नाम नहीं मिल रहा, बल्कि 134 साल पुरानी इस पार्टी की असली मुसीबत ये है कि कोई ये नहीं कह रहा कि मैं अध्यक्ष बनूंगा।
अब जबकि ये तय हो चुका है कि राहुल गांधी अपना इस्तीफा वापस नहीं लेंगे, कांग्रेस अपने नये कंधे को तलाश रही है। पार्टी में नये अध्यक्ष को लेकर तेज हुए विमर्श के बीच, पार्टी के भीतर और बाहर यही सवाल उठ रहा है कि अब कांग्रेस का क्या होगा? क्या कांग्रेस खत्म हो जाएगी या कांग्रेस टूट जाएगी?
होने को तो कुछ भी हो सकता है, लेकिन फिलहाल ये तो तय है कि कांग्रेस वाकई अपने सबसे बुरे दौर में है। कांग्रेस का बुरा दौर इसलिए नहीं है कि लोकसभा चुनाव में उसे सीटें कम मिली, इसलिए भी नहीं कि उसके द्वारा शासित राज्यों की संख्या इकाई में है।
कांग्रेस बुरे दौर में इसलिए है क्योंकि उसके पास चुनौतियों को स्वीकार करने वाला कोई केन्द्रीय नेतृत्व नहीं हैं। संसद में सरकार को ललकारने वाला कोई वक्ता नहीं है, राज्यों में पकड़ वाले क्षत्रप नहीं है, संगठन में योजनाएं बनाने वाला रणनीतिकार नहीं है, दूसरे दलों के व्यूह को भेदने वाला थिंक टैंक नहीं है।
यही कारण है कि 1969 में जब कांग्रेस का विघटन हुआ तब भी कांग्रेस कमजोर नहीं हुई, बल्कि जोरदार तरीके से सत्ता में वापसी की। क्योंकि तब इंदिरा गांधी ने नए जोश के साथ पार्टी का नेतृत्व किया था।
23 सितंबर 1996 को जब सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष बने तब भी यही माना गया कि कांग्रेस की अर्थी निकलने ही वाली है। एक मशहूर समाचार पत्र में तब एक कार्टून प्रकाशित हुआ था जिसमें सीताराम केसरी कांग्रेस की अर्थी निकाल रहे हैं और आसमान से कांग्रेस के पूर्व दिग्गज नेता आंसू बहा रहे हैं सिवाए महात्मा गांधी के। व्यंगकार का संदेश गांधी जी के उस वक्तव्य को लेकर था जिसमें उन्होने कहा था कि देश आजाद होने के बाद कांग्रेस का काम खत्म हो गया लिहाजा इस पार्टी के खत्म कर देना चाहिए।
अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता के सामने बिना मजबूत नेतृत्व के कांग्रेस की वापसी की शायद ही किसी ने उम्मीद की थी। लेकिन तब भी सोनिया गांधी ने आगे बढ़कर पार्टी को संभाला और सत्ता में वापसी कराई। कांग्रेस को इस समय जरूर याद करना चाहिए कि 1998 में जब कांग्रेस संक्रमणकाल से गुजर रही थी तब भी अध्यक्ष पद के लिए कई दावेदार थे जो खुद आगे बढ़कर अपनी दावेदारी पेश किए थे। सोनिया गांधी के सामने जीतेन्द्र प्रसाद का चुनाव लड़ना भला कौन भूल सकेगा।
सीधी सी बात है कि सोनिया गांधी के मुकाबले जितेन्द्र प्रसाद का चुनाव लड़ना ये साबित करता है कि उस समय भी पार्टी में ऐसे लोग थे जो कांग्रेस का नेतृत्व करने की इच्छा रखते थे। ये इच्छा ही उस जिजिविषा को जन्म दोती है जो आपको सफल बनाती है। क्या ऐसी इच्छा वाला कोई नेता आज कांग्रेस में नहीं है?
आज जब राहुल गांधी अपना इस्तीफा दे चुके हैं तो कोई नहीं है जो आगे बढ़कर इस पार्टी की कमान संभाल सके? पार्टी के वरिष्ठ नेता एक दूसरे का मुंह ताक रहे है। पार्टी के नेताओं को सोचना चाहिए कि ऐसा पहली बार नहीं होगा जब कोई गैर गांधी अध्यक्ष बनेगा। भला उसी दल या देश का हुआ है जिसके नेता आगे बढ़कर चुनोतियों का सामना करने का माद्दा रखते हैं। ठेल कर किसी को ना तो नेता बनाया जा सकता है नाही ऐसा शख्स पार्टी को आगे बढ़ा सकता है। कांग्रेस को चाहिए कि वो एक और बार अपने अध्यक्ष पद के लिए चुनाव आयोजित करे। इस चुनाव से कांग्रेस की हार तो कतई नहीं होगी, बल्कि भविष्य का रास्ता तय होगा।
(लेखक पत्रकार हैं )