यशोदा श्रीवास्तव
यूपी चुनाव में बुरी तरह मात खाई कांग्रेस को नया प्रदेश अध्यक्ष चयन को लेकर पसीने छूट रहे हैं। यह हाल तब है जब 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू करनी हो।
यूपी में कांग्रेस के समक्ष दोहरा संकट है। प्रदेश अध्यक्ष का चयन तो है ही लोकसभा उम्मीदवारों का चयन भी कम चुनौती नही है। 2024 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि यहां की 80 के 80 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस के पास उम्मीदवार नहीं हैं।
जाहिर पार्टी को दूसरे दलों से आए लोगों का ही सहारा है। 2019 में जो साथ आए थे,वे साथ छोड़ गए हैं। कहना न होगा कि जिस पार्टी के पास लोकसभा के उम्मीदवार तक न हों उसके लिए पार्टी अध्यक्ष का चुनाव आसान नहीं है। हैरत है कि पार्टी अभी तक यह नहीं तय कर पा रही कि वह जातीय अंकगणित को ध्यान में रखकर किस जाति का अध्यक्ष बनाए।
अध्यक्ष को लेकर यह असमंजस तब थोड़ा मुनासिब जान पड़ता जब उसके पास किसी जाति का वोट ही न हो। यूपी में तो हाल यही है। हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को मुस्लिम सहित अन्य वर्ग के वोटरों से उम्मीद थी,वह भी धूमिल हो गई। यूपी प्रभारी व पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी की मेहनत देख कुछ उम्मीद बंधी थी लेकिन यूपी के वोटरों ने ऐसा गजब ढाया कि पार्टी को 2017 में मिले 6 प्रतिशत वोट घटकर मात्र दो प्रतिशत पर आ गए और विधानसभा की सात सीटें घटकर मात्र दो रह गई।
समझा जा सकता है कि कांग्रेस जैसी बड़ी और पुरानी पार्टी के लिए यह परिणाम किसी सदमे से कम नहीं है। यूपी में पिछले 30 साल से बनवास झेल रही कांग्रेस यहां पांव जमाने के लिए छटपटा रही है। लड़की हूं लड़ सकती हूं के स्लोगन के साथ चुनाव मैदान में उतारी गई तकरीबन 160 महिला उम्मीदवारों से भी निराशा मिली। महिला उम्मीदवारों के इस भारी भरकम फौज में से यदि अकेले मोना मिश्रा चुनाव जीत पाती हैं तो यह उनके पिता प्रमोद तिवारी की बनाई जमीन से संभव हो पाया। यूपी अध्यक्ष के लिए प्रमोद तिवारी के नाम की भी चर्चा है लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी है कि आखिर तिवारी की लोकप्रियता का असर सिर्फ एक ही विधानसभा क्षेत्र तक ही क्यों सीमित है। अपने ही जिले के दूसरे विधानसभा तक उनकी लोकप्रियता का असर क्यों नहीं दिखता?
पार्टी में बसपा के कद्दावर नेता व ब्राह्मण चेहरा रहे नुकुल दूबे को शामिल कराने के पीछे भी यह चर्चा थी कि अपेक्षाकृत इस युवा चेहरे को अध्यक्ष पद की कमान सौंपी जा सकती है। इस पर भी खामोशी है।बसपा शासन काल में शिक्षा मंत्री रहे डा.मसूद को पार्टी में शामिल किया गया है ताकि मुस्लिम वोटर कांग्रेस के पक्ष में आ सके।
डा.मसूद ऐसा कितना कर पाते हैं यह वक्त तय करेगा। कहना न होगा कि यूपी जैसे प्रदेश में जहां लोकसभा व विधानसभा की तमाम सीटें मुस्लिम बाहुल्य है, वहां पार्टी के पास कोई ढंग का मुस्लिम नेता नहीं है ।
चुनाव में पराजय के पहले तक पूर्व विधायक अजय कुमार लल्लू पार्टी के अध्यक्ष थे। पूर्वांचल के एक जिले से दो बार के विधायक रहे लल्लू अपनी सीट नहीं बचा पाए। बतौर अध्यक्ष सर्वाधिक बार जेल और धरना प्रदर्शन का रिकॉर्ड उनके नाम रहा। वे कांदू बनिया समाज से ताल्लुक रखते हैं और बतौर अध्यक्ष वे प्रियंका गांधी के खास पसंद थे।
कांग्रेस को यदि यूपी में खड़ा होना है तो उसे जातीय अंकगणित पर ध्यान देना होगा और कुछ सीख भाजपा से लेनी होगी। भाजपा में आज सवर्ण जातियों से लेकर विभिन्न वर्ग के पिछड़ी व दलित जातियों का संगठन है। हाल ही सपा से जुड़े यादव वोटरों में सेंधमारी के लिए भाजपा ने मुलायम के करीबी रहे पश्चिम यूपी के एक बड़े यादव नेता के पौत्र मोहित यादव को तैयार कर अखिलेश को बड़ी चुनौती देने की कोशिश की है।
यूपी की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले एक टिप्पणीकार का कहना है कि विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोटर कांग्रेस की ओर झुक रहा था लेकिन अंतिम वक्त वे सपा की ओर बैक हो गए।
उन्होंने साफ कहा कि कांग्रेस को अपने परंपरागत दलित ब्राम्हण और मुस्लिम वोटरों को नए सिरे से साधना होगा। इलाकाई हर जाति और समाज के प्रभावशाली लोगों को महत्व पूर्ण पदों पर बैठाना होगा। कोशिश होनी चाहिए कि पुराने किंतु उपेक्षित कांग्रेस जनों को ढूंढा जाय और उन्हें फिर से सम्मान दिया जाय। इससे पार्टी को जातीय संतुलन साधने में सुविधा होगी। बिना जातीय संतुलन साधे यूपी कांग्रेस के हाथ आने से रहा।