कुमार भवेश चंद्र
कांग्रेस में नेतृत्व का सवाल एक बार फिर सतह पर है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से पार्टी के शीर्ष नेताओं के बीच इसको लेकर आमतौर पर चुप्पी है। संदीप दीक्षित और शशि थरूर जैसे नेताओं ने जरूर नेतृत्व का मसला तय करने का सवाल उठाया है। देखा जाए तो कांग्रेस की सियासी संस्कृति के लिहाज से यह बहुत ही साहसिक कोशिश है।
एक अंग्रेजी अखबार के सवाल पर पहले पूर्व सांसद संदीप दीक्षित ने चुप्पी तोड़ी। उन्होंने बहुत ही बेवाकी से यह भी कह दिया कि इसके लिए पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की जबावदेही बनती है। अगर राहुल गांधी अध्यक्ष पद पर बने रहने को इच्छुक नहीं है तो निश्चित रूप से पार्टी के नेतृत्व के लिए सीनियर लोगों को सामने आना चाहिए लेकिन वे शायद डर रहे हैं कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ? संदीप के इस प्रस्ताव पर सीनियर्स ने तो चुप्पी साध रखी है लेकिन शशि थरूर ने जरूर उनका साथ दिया।
थरूर ने पहले ट्विट के जरिए अपनी बात रखी। उन्होंने बहुत ही साफगोई से कहा कि संदीप ने सार्वजनिक तौर पर जो बात कह दी है, कांग्रेस के दर्जनों नेता यही बात निजी बातचीत में कह रहे हैं। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं और वोटरों का उत्साह बनाए रखने के लिए कांग्रेस कार्यसमिति को नेतृत्व के चुनाव की सलाह भी दी है। बाद में एक एजेंसी को इंटरव्यू देकर थरूर ने और भी खुले रूप में पार्टी की इस कमी और कमजोरी की ओर नेतृत्व का ध्यान खींचा।
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सवाल है कि क्या कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व को अपने कार्यकर्ताओं और वोटरों की सचमुच परवाह नहीं है ? ये बहुत ही दुखद पहलू है कि हाल के लोकसभा चुनाव में 19 फीसदी लोगों का वोट पाने वाली पार्टी नेतृत्व के मसले को सुलझाने की इच्छाशक्ति नहीं रखती है। लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और आखिरकार यह जिम्मेदारी कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी के हवाले है।
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सोनिया गांधी के बारे में जानकारी यही है कि उनका स्वास्थ्य बहुत बेहतर नहीं है और वे अपनी सक्रियता बढ़ाने और पार्टी को और अधिक समय देने की स्थिति में नहीं। और अगर स्थित ऐसी नहीं तो इसके बारे में भी पार्टी लीडरशिप को आगे आकर इसे इनकार करना चाहिए।
नेतृत्व के मसले को सुलझाने को लेकर कांग्रेस की दुविधा का आलम यह है कि पार्टी के भीतर बड़े से बड़ा नेता गांधी परिवार के बाहर के लोगों के बारे में नहीं सोच पा रहा है। दुर्भाग्य से पार्टी की सभी उम्मीदों का केंद्र गांधी परिवार भी इस उलझन को सुलझाने के लिए भरोसेमंद नेताओं की ओर नहीं देख पा रहा है। और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य है कि पार्टी के ऐसे मसले सुलझाने के लिए भीतर और बाहर के अलावा कोई ऐसा पावर सेंटर भी नहीं है जो उसे इस गंभीर संकट से बाहर निकाल सके।
अपने असमंजस को सहेज रही कांग्रेस के लिए इससे अधिक दुविधाजनक स्थिति और क्या हो सकती है कि सक्रिय केंद्रीय नेतृत्व के बगैर ही उसने चार राज्यों के विधानसभा चुनाव का सामना किया। पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व इतना अप्रभावी और लाचार हो चुका है कि दिल्ली के विधानसभा चुनाव में उसे अबतक का सबसे करारा झटका लगा है। लोकसभा चुनाव में दूसरे नंबर की पार्टी रही कांग्रेस की इससे बुरी गत और क्या हो सकती है कि उसके अधिकतर उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई और पूरे प्रदेश में उसे महज 4 फीसदी वोट हासिल हो सके। मजेदार बात ये रही कि कांग्रेस के कुछ बडे़ माने जाने वाले नेता अपनी हार की समीक्षा करने की बजाय इस बात से खुश नज़र आए कि बीजेपी इस चुनाव में वापसी नहीं कर पाई। दिल्ली प्रदेश कुछ नेता भी आपसी खुन्नस की वजह से हार के लिए जश्न मनाते दिखे।
यह केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी या लाचारी का ही नतीजा है कि कई प्रदेशों में पार्टी नेताओं की आपसी भिड़ंत मीडिया की सुर्खियां बन रहे हैं। मध्य प्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच खींचतान हो या राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट का शीतयुद्ध सबकुछ कांग्रेस की जड़ों में मट्ठा डालने का ही काम कर रहे हैं। हरियाणा में भी हालात बहुत अच्छे नहीं है। प्रदेश की सियासत में आपसी खींचतान की वजह से ही भूपेंद्र हुड्डा पार्टी की सीटें बढ़ाकर भी सत्ता की सौदेबाजी में पीछे रह गए। और आखिरकार बीजेपी ने हारकर भी जीत का मजा ले लिया।
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यूपी के बाद सबसे बड़े प्रदेश महाराष्ट्र में सत्ता का हिस्सेदार बनकर भी कांग्रेस किस तरह हासिए पर दिख रही है। दरअसल महाराष्ट्र को लेकर भी केंद्रीय नेतृत्व की रणनीति बहुत ही कमजोर और अदूरदर्शी रही। पवार की रणनीति के सहारे रहकर कांग्रेस ने वहां अपनी जमीन कमजोर कर ली है। उद्धव ठाकरे के आमंत्रण के बावजूद शपथ ग्रहण में सोनिया गांधी या राहुल गांधी का शामिल नहीं होना, ऐसे सियासी भूल है जिसका खामियाजा प्रदेश की कांग्रेस इकाई को आगे अदा करना होगा ?
दरअसल कांग्रेस यह समझने की भूल कर रही है कि उसकी अपनी ताकत घट रही है तो वह सहयोगियों के सहारे ही बीजेपी से मुकाबला कर सकती है। और अगर नए सहयोगी बन रहे हैं तो उस ताकत को समेटने की बजाय उसे टेस्ट पर रखने की उसकी रणनीति कितना सही है उसका अहसास उसे नहीं है।
लोकसभा चुनाव के बाद चार राज्यों में उसकी पार्टी की रणनीतिक हार के बाद बिहार एक बार फिर उसकी परीक्षा के लिए तैयार हो रहा है।
कांग्रेस के सामने एक बार फिर अवसर है कि वह संगठन को दुरुस्त कर सियासत के सही मुद्दे और अपनी नई रणनीति के सहारे नई चुनौतियों का सामना करे। सवाल एक बार फिर यही है कि क्या कांग्रेस को अपनी इन चुनौतियों का अहसास है ? क्या उसे सियासत के सही मुद्दों की पहचान है ? क्या वह सचमुच नई रणनीति के साथ अपने सियासी विरोधियों को साधने के लिए पूरी तरह तैयार है ? अगर नहीं तो समझ लीजिए, कांग्रेस ने सियासत के कुछ ककहरे को भुला दिया है!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
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