उत्कर्ष सिन्हा
कोरोना की चपेट में आए हमे करीब दो महीने हो चुके हैं । इस बीच लगातार बहुत कुछ घट रहा है । वैसे तो वक़्त के चक्र में बहुत कुछ हमेशा ही घटता रहता है और उसके केंद्र में मौजूद कारक बदलते रहते हैं । इस व्यक्त घटित होने वाली हर परिघटना के केंद्र में कोरोना ही है।
लेकिन जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं वैसे वैसे कन्फ्यूजन भी बढ़ रहा है । अपने इर्द गिर्द हो रही हलचल को गौर से देखिए, साफ दिखाई देगा कि कन्फ्यूजन ने हर जगह को अपनी जद में ले लिया है ।
आइए कुछ समझने की कोशिश करते हैं।
बात सरकार से शुरू की जाए उसके पहले जनमानस को देखना जरूरी है । एक बड़ा वर्ग इस उथल पुथल में खुद का भविष्य नहीं समझ पा रहा है । अपनी कर्मस्थली को छोड़ के अपने घर की तरफ निकल पड़ा कामगार और मजदूर भी कन्फ्यूज है। उसे पता नहीं है कि वो अपने घर पहुँच पाएगा या नहीं । पहुंचेगा तो कैसे पहुंचेगा ? कहाँ तक पहुंचेगा ? पहुँचने के बाद क्या होगा ?
लखनऊ की सीमा पर रोके गए मजबूर लोगों से बात करके इस कन्फ्यूजन का एहसास हुआ । “ 1 हफ्ते पहले निकले थे , अब यहाँ अटक गए हैं । कहा जा रहा है कि जल्दी ही बस आएगी । मगर या नहीं रही । फिलहाल यही नहीं समझ पा रहे कि घर कब पहुंचेंगे तो इसके आगे की क्या सोचें? ये 22 साल के पवन विश्वकर्मा के शब्द हैं ।
करीब 1 साल पहले कमाने के लिए सूरत जाते वक्त पवन कुछ आश्वस्त था । उसे काम मिलने का भरोसा था जिसने सफर को आसान कर दिया था। अब हालात जुदा है तो अनिनश्चितता भी।
पवन का कन्फ्यूजन अकेले उसका नहीं है। करीब 40 लाख ऐसे लोग हैं जिनकी फिक्र यही है ।
मध्यवर्ग अलग तरीके से कन्फ्यूज है। बड़ी संख्या में नौकरियों में छंटनी हो रही है। फिलहाल वर्क फ्राम होम करता हुआ ये वर्ग इस बात को ले कर कन्फ्यूज है कि उसकी नौकरी कब तक चलेगी ? तनख्वाह की कटौती हो चुकी है, नौकरियों में कटौती जारी है, सेल्स, प्रोडक्शन से ले कर सर्विस सेक्टर तक अनिश्चितता के भंवर में फंसा हुआ है।
इस कन्फ्यूजन के साथ जी रहे मध्यवर्गीय नौकरीपेशा व्यक्ति की हालात को यशपाल की कहानी “पर्दा” के जरिए बखूबी समझा जा सकता है जिसमे अपनी इज्जत बचाने के लिए तो दरवाजे पर रेशमी पर्दा डाल रखा है मगर साहूकार द्वारा वो पर्दा हटते ही बदहाली सामने या जाती है।
ये मध्यवर्ग अपनी ईएमआई के बोझ को ले कर भी कन्फ्यूज है। उसकी गाड़ी से ले कर उसका फ्लैट तक कर्जे में है और फिलहाल किश्तों में 3 महीने की मिली छूट के बाद उसका क्या होगा ये भी एक कन्फ्यूजन है।
बच्चे अपनी पढ़ाई के तौर तरीकों को ले कर कन्फ्यूज हैं । अचानक शुरू हुए आन लाइन पढ़ाई कब तक चलेगी ? स्कूल कब जाएंगे ? प्रोफेशनल कोर्स कब शुरू हो पाएंगे ? उनके कन्फ्यूजन के ये आयाम उनकी मनःस्थिति पर अलग प्रभाव डाल रही है।
छोटे उद्योग के मालिक के अपने कन्फ्यूजन हैं। उसके लिए भी नए रास्तों को समझना मुश्किल हो रहा है । ढाई महीने के लाकडाउन ने उसके व्यापार की कड़ी तोड़ दी है। उसे सबकुछ नए सिरे से शुरू करना है, मगर उसकी ये भी फिक्र है कि बाजार में खरीदारी काम होगी तो उसका क्या होगा? उसका पैसा बाजार में फंसा है और फंसे पैसे की वापसी आसान नहीं है ये भी पता है । सरकार के राहत पैकेज के फ़ायदे और नुकसान अभी वो समझ रहा है।
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असल में देखे तो पता चलता है कि सरकार भी कन्फ्यूज ही है। लाकडाउन के चरणबद्ध फैसलों को लागू करने में वो चूक गई। जनता कर्फ्यू के बाद जैसे जैसे उसका कन्फ्यूजन बढ़ा वैसे वैसे सड़कों पर मजबूरों की भीड़ बढ़ती गई । इन्हे घर पहुचने के लिए भी जो उपाय किए गए वह भी जिस तरह से हुए उससे पता चल कि एक गंभीर आँकलन करने में सरकार कन्फ्यूज ही रही।
वरिष्ठ पत्रकार कुमार भवेश चंद्र वाजिब सवाल करते हैं “जिस सरकार ने करोड़ों लोगों की मौजूदगी वाले महाकुंभ को सम्हाल लिया, जो हर साल सड़कों पर चलने वाले 20 लाख कवड़ियों के लिए इंतजाम कर देती है और उन पर हेलीकाप्टर से फूल भी बरसाती है, वो सरकार अगर इन मजबूर लोगों कि व्यवस्था कर देती है, वही सरकार अगर 20 दिन के बाद भी इन मजबूर लोगों का इंतजाम नहीं कर पाई तो साफ है कि वो अपनी प्राथमिकता और रणनीति को ले कर कन्फ्यूज है”
इसके बाद राहत पैकेज का मामला आया, कन्फ्यूजन यहाँ भी दिखाई दिया। तात्कालिक राहत के उपाए बहुत कम थे और अन्य ज्यादा। जनजीवन को सामान्य करने के लिए जिस तरह के आदेश एक के बाद एक या रहे हैं वो भी कन्फ्यूजन को बढ़ा रहे हैं । क्या खुलेगा ? कितना खुलेगा ? प्राईवेट नर्सिंग होम्स कैसे चलेंगे ? इसके लिए आने वाले परस्पर विरोधाभासी आदेश, ये सब प्रशासन में कन्फ्यूजन का ही नतीजा है।
कोरोना कितनी देर रहेगा ? कब तक रहेगा ? ये तो अभी नहीं पता लेकिन जब तक नीतिगत स्पष्टता और वास्तविक तात्कालिक राहत देने के फैसले नहीं होंगे , ये कन्फ्यूजन खत्म नहीं होने वाला ।