के पी सिंह
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत यह कहावत देश के विपक्षी दलों पर पूरी तरह लागू होती है। लोकसभा चुनाव में हार को लेकर प्रतिपक्षी दलों में विचार मंथन की जो कवायद चलती दिख रही है उसको देखते हुए यह कहना मुश्किल लगता है कि अभी भी इनमें नब्ज पकड़ने का कोई सलीका पैदा हो पाया है। तभी समाजवादी पार्टी मे कुछ सार्थक करने की वजाय उन टोटकों पर विश्वास किया जा रहा है जिनसे सिद्धि मिलने का अंधविश्वास पार्टी के मन में घर किये हुए है जबकि उसे सोचना चाहिए कि अब हतकंड़ों से बात नहीं बनेगी। वैचारिक विकल्प को मजबूत करने की इच्छा शक्ति अगर विपक्षी पार्टियों में जाग्रत नहीं होती तो सत्ता से लम्बे समय तक का वनवास उन्हें झेलना पड़ेगा।
समाजवादी पार्टी के शिखर पुरूष इस समय रोग शैया पर हैं। ईश्वर करे वे जल्द अच्छे हो जायें। उन्होंने रट लगा रखी है कि अखिलेश शिवपाल को फिर से अपनाने के लिए सहमति दे दें। उन्हें लगता है कि शिवपाल के पास कोई सिद्ध जड़ी बूटी है जिससे वे बीरानी के कगार पर पहुंच रही पार्टी को फिर से हरा भरा कर देंगे। हालांकि तथ्य इसके विपरीत हैं। शिवपाल जब साथ थे उस समय क्या समाजवादी पार्टी ने सत्ता नहीं गंवाई थी। 2007 के उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव गवाह हैं जब समाजवादी पार्टी को शिवपाल यादव जैसे सूरमा भोपाली के साथ रहते हुए भी बहुजन समाज पार्टी ने सत्ता से अपदस्थ कर दिया था। उस समय मुलायम सिंह यादव सरकार में तमाम लोक लुभावन योजनाओं लागू की थी लेकिन वह अपनी सत्ता नहीं बचा सके थे।
समाजवादी पार्टी की सत्ता के उस समय पतन का श्रेय जिन लोगों को दिया जाता है उनमें शिवपाल सिंह यादव और प्रो0 रामगोपाल यादव का नाम सबसे ऊपर है। शिवपाल सिंह यादव के साथ तमाम कलंकित दन्त कथाये जुड़ी हुई हैं जिसकी वजह से 2007 में जनता ने बुरी तरह समाजवादी पार्टी को नकार दिया था। अभी भी शिवपाल ने अलग होकर चुनाव लड़ा तो कौन सा करिश्मा दिखा पाये। यदि उनके पास कोई बाजीगरी सिद्धि होती तो वे कम से कम फिरोजाबाद में अपनी ही जमानत बचा लेते। सही बात यह है कि अगर अभी के चुनाव में शिवपाल समाजवादी पार्टी में होते तो भी नतीजे यहीं आने थे। वे साथ होते तो कुछ हजार यादवों का वोट न कट पाता लेकिन इससे क्या होने वाला था। भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों की जीत का अंतर इतना ज्यादा रहा है कि इन वोटों के जुड़ जाने पर भी चुनाव परिणाम बदलने वाला नहीं था।
समाजवादी पार्टी में जब अंदरूनी सत्ता संघर्ष चरम पर था तो खुद अखिलेश यादव ने भी कहा था कि नेता जी की सरकार होते हुए भी तो पार्टी को हमेशा मुह की खानी पड़ी थी। अखिलेश का कहना सच था। 1991 में तो ऐसा हुआ ही था, 1996 के चुनाव भी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन के दौरान हुए थे जिसमें प्रदेश के अंदर परोक्ष रूप से मुलायम सिंह ही हुकुमत चला रहे थे। इसके बाद 2007 के चुनाव का जिक्र पहले ही किया जा चुका है। उस समय भी गलती यह थी कि मुलायम सिंह ने समाजवादी विचार धारा को प्रोत्साहन देने की बजाय अपने परिवार के लोगो और इलाकाई दबंगों को जोड़कर पार्टी को सत्ता हथियाने वाले गिरोह में तब्दील कर दिया था जिसका वर्चस्व लोकतंत्र में बहुत ज्यादा दिनों तक चलना संभव नहीं था।
मोदी-योगी ने अपनी कुछ निजी विशेषताओं के कारण समाज में नैतिक पुनरूत्थान का जो सूत्रपात किया उससे मुलायम सिंह की राजनीति अप्रासंगिक हो गयी। उस पर भी तुर्रा यह है कि वे चुनाव के पहले मोदी को फिर से सत्ता हासिल करने का आशीर्वाद दे चुके थे, क्योंकि बकौल उनके वे जब भी मोदी से अपने किसी काम के लिए कह देते हैं वह तपाक से हो जाता है।
मुलायम सिंह ने यह कहकर जो संदेश दिया उसका मतलब यह है कि वे निजी लाभ के लिए राजनीति करते हैं, न कि समाज को अच्छी व्यवस्था देने के लिए। उनकी इस कमजोरी का लाभ उठाने के लिए भाजपा के वर्तमान नेतृत्व ने उन्हें मोहपाश में फांसकर उनकी राजनीति बर्वाद करने का जो पैंतरा अख्तियार किया वह पूरी तरह कामयाब रहा। लेकिन मुलायम सिंह क्या अपनी इस गलती को स्वीकार कर सकते हैं।
उनके पुत्र होकर भी अखिलेश ने अलग तरह की कार्यशैली अपनाई उनके पास विकास का विजन है जिससे भविष्य में वे कुछ हासिल करने की उम्मीद रख सकते हैं। इसीलिए उन्होंने शिवपाल को साथ लिए बिना अपने दम पर सत्ता में वापसी करने का जो आत्मविश्वास जताया है वह अन्यथा नहीं है। शिवपाल को न भाषण देना आता है और न ही उनमें कोई वैचारिक योग्यता है। वे जिस राजनीतिक शैली में पारंगत हैं वह खोटा सिक्का साबित हो चुकी है जिसका चलन से बाहर होना पहले से तय था।
दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी समय के साथ चलने की वजाय इतिहास के प्रेतों की सवारी ढ़ोने के लिए अभिशप्त है। साथ ही वर्ण व्यवस्था की मानसिकता से उबर पाने की स्थिति में नहीं हैं। इसके चलते उसे आगे चलकर दुश्वारियों का सामना करना पड़ेगा। उत्तर प्रदेश में नौकरशाही की पोस्टिंग में जातिगत भेदभाव तो छलका ही हुआ था, अब संकेत दिया जा रहा है कि प्रदेश में भाजपा का अध्यक्ष पद फिर किसी सवर्ण को ही सौपा जा रहा है। इस तरह सभी अहम पदों पर पिछड़ों और दलितों के सफाये की नीति जल्द ही समस्या की वजह बन जायेेगी। इन समुदायों में भी महत्वाकांक्षायें उबाल खा चुकी हैं इसलिए हाशिये पर रहने की नियति उन्हें स्वीकार नहीं हो सकती।
क्या समाजवादी पार्टी इस स्थिति का फायदा उठा सकती है। समाजवादी पार्टी मोदी युग के उभार के पहले तक उत्तर प्रदेश में पिछड़ों की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में अपने को स्थापित कर चुकी थी लेकिन उसने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ किसी विचारधारा को प्रतिपादित करने का रास्ता छोड़ दिया। दूसरे समाज में व्यापक नैतिक उभार के चलते पिछड़े सहित सभी समुदायों ने जातिगत भावनाये परे रखकर राष्ट्रवाद और स्वच्छ राजनीति के समर्थन की बड़ी सोच पर मतदान किया भले ही इस मामले में कुछ लोगों के मतानुसार जनता भुलावे का शिकार हुई हो।
इस राजनीति का क्या काट है समाजवादी पार्टी इस बात को जानती है लेकिन वैचारिक कपट की वजह से अभी भी वह देश और समाज के लिए वर्ण व्यवस्था की बुराई को उजागर करने की हिम्मत नहीं दिखा सकती। धर्मनिरपेक्षता के मामले में भी वह कच्ची लोई साबित हुई है। न तो वर्ण व्यवस्था का विरोध किन्हीं जातियों के प्रति दुर्भावना का सूचक है और न ही धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अल्प संख्यकों का तुष्टीकरण है। शासन और प्रशासन की सार्वभौम मान्यताओं के तहत संकीर्णतायें त्याज्य हैं।
इस दृष्टिकोंण के आधार पर अतीत में वैकल्पिक राजनीति को व्यापक समर्थन मिला है तो अब क्यों नहीं हो सकता। पर ऐसा करने की बजाय जब अखिलेश भी राजनीति में विष्णु का भव्य मंदिर बनाने की जरूरत महसूस करने लगें और जब काग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मंदिर-मंदिर जाने की अनिवार्यता राजनीति में महसूस करने लगें तो वे भाजपा की कार्बन कापी तो नजर आयेगें ही और भाजपा के आगे समर्पण का नमूना पेश करके अपने सर्वाइवल को संदिग्ध बना लेंगे। क्या हार के कारणों को जानने की विपक्ष की कवायद में इन वास्तविकताओं से आंख मिलाने की हिम्मत दिखायी जायेगी।