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आला हुजूर के नाम खुला पत्र

अशोक माथुर

आणविक शक्ति सम्पन्न विश्व के महान देश एक मच्छर भी मारने में कामयाब नहीं है। चांद और मंगल तक पहुंचने वाले बहादुर लोग कोरोना वायरस (कोविड-19) या इस जैसे छोटे-मोटे सुक्ष्म जीवों को भी काबू करने में नाकामयाब हो रहे है। ये पंक्तियां लिखते वक्त हम किसी को हताश नहीं करना चाहते।

चेचक के वायरस से चलकर स्वाईन फ्लू और कोरोना वायरस तक की कथा इंसान के घमण्ड को चूर-चूर करती है। अभी भी इंसान को यह मान लेना चाहिए और कम से कम शासन करने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि वो प्रकृति के मालिक नहीं बल्कि प्रकृति के ही एक हिस्से है।

सूरत (गुजरात) का प्लेग अभी कल की ही बात है लेकिन हम सबक तो लेते ही नहीं है। जब बजट बनते है तो तोप तमंचो और गोला बारूद के लिए ज्यादा चिंता होती है। इंसान को इंसान कैसे मारे, किस की सत्ता कैसे चमके इस पर बड़ी चिंता रहती है।

जैव विविधता को हम स्वीकारना नहीं चाहते हैं। प्रकृति ने हमें बुद्धि दी और हम सूरमा बन बैठे। तीसरी दुनिया के देशों में भुखमरी का ईलाज करने के लिए इस प्रकार के खाद्यान्न विकसित किए गए जिनमें जिंक न हो ; गैंहूं, बाजरा, मक्की और इसी प्रकार के प्रकृति द्वारा दिए गए खाद्यान्न के तत्वों को बदल दिया गया। हम इसे विकास कहते हैं।

बरसों पहले ऐसी मुर्गी ईजाद की गयी जो बगैर मुर्गे के हर रोज एक अण्डा देती है। एक ऐसी गाय का ईजाद किया जा रहा है जो बछड़ा पैदा नहीं करेगी व खुब दूध देगी। ऐसे जीव तैयार किए गए जो बहुत मांस देंगे लेकिन खाएंगे कम।

यह सब लिखते वक्त एक पुरानी कहानी याद आती है। एक महात्मा अपने शिष्यों के साथ भ्रमण पर थे। रास्ते में उन्हें हड्डियों का ढ़ेर मिला। शिष्यों ने गुरू से कहा कि आप स्वयं को ज्ञानी बताते हैं तो इन हड्डियों को वापस जीवित कर दें। गुरू ने कहा कि कुदरत के काम में दखल देना अच्छा नहीं, पर शिष्य कहां माने।

गुरूजी ने हड्डियों को जीवित कर दिया और वो बन गया शेर। शेर ने कहा कि बहुत तेज भूख लगी है तो मैं तुम्हें खाऊँगा। मरने के लिए कौन पहले तैयार है। गुरूजी ने कहा कि गलती तो मेरी ही थी इसलिए मैं पहले मरने को तैयार हूँ पर शेर एक-एक करके तीनों को खा गया।

वैज्ञानिकों ने हड्डी के टुकड़े से एक भेड़ बना डाली, अब माँ की कोख भी किराए पर मिलती है और टेस्ट ट्यूब बेबी भी तैयार हो गए है। आदमी की दखल जैविक क्षेत्र में इतनी हो गयी है कि वो अपने दम्भ पर मुस्कुरा रहा है।

सच तो यह है कि धन की महिमा बहुत है, सबका मकसद मनी-मनी। कम्यूनिस्ट चीन से लेकर अमेरिका तक धन कमाने व जोड़ने की लालसा की कोई सीमा नहीं है। धरती का पेट चीरकर सोना, चांदी, पेट्रोल सब निकाल लेना चाहते है और इन सब के लिए आदमी, आदमी का दुश्मन बना हुआ है।

आदमी का शोषण करना तो कई सदियों से चल रहा था लेकिन प्रकृति का शोषण करना एक वैसी ही बात है जैसे बारूद के ढेर पर दुनिया को बैठा देना, इसके लिए कोई फौज या बम-गोले नहीं चाहिए। एक वायरस ने यह बता दिया कि आदमी के गुनाह की सजा पूरे भूमण्डल को मिलने वाली है।

यह वायरस आता कहां से है और जाता कहां है पता नहीं? परन्तु यह तो सच है कि लोग मरते है, पूरा अर्थ-तन्त्रा चरमरा जाता है, जो बहुत सारी शक्ति संग्रहित करते है और धन इकट्ठा करते है उनको एक वायरस को मारने के लिए एटम बम चलाने की हिम्मत नहीं होती तो फिर ये एटम बम क्यों, तो फिर ये लश्कर व फौजें क्यों?

क्या वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था अपनी जीत पर ऐसे ही अट्हास करेगी? हम अपने अर्थ-तन्त्रा में चन्द लोगों की सम्पन्नता और उनके सोने के महल दिखाकर विकसित होते हुए तन्त्र की दुहाई देते रहेंगे लेकिन हम अपने स्वास्थ्य तन्त्रा को सुदृढ़ नहीं करेंगे, ज्ञान व शिक्षा का मानवीय व प्राकृतिक पक्ष हमारी आने वाली पीढ़ियों के सामने हम नहीं रखेंगे।

स्वास्थ्य तंत्र इतना कमजोर है कि आज भी चेचक के मामले सामने आते है और भारत जैसे देश में शीतला माता की घण्टियां बजती रहती है तो विकसित देशों में चर्च में मोमबत्तियां जलती रहती है।

पोलियों पर विजय का झण्डा गाड़ा गया लेकिन सच्चाई सब जानते है। चेचक व पोलियों के जीवाणु म्युजियम की तरह किस के पास है, प्लेग के कीटाणु किसके पास है? जैविक युद्ध कौन कर सकता है? कैन्सर व टीबी पर काबू पाने के सारे प्रयास बेनतीजा है क्योंकि हमारा वैश्विक तंत्रा यही चाहता है कि अनावश्यक लोगों की क्या जरूरत है जैसे आदिवासी, गरीब गुरबे जो मोटरकार, फ्रीज इत्यादि-इत्यादि सरमायेदारों के उत्पाद नहीं खरीदते।

वे हमारे अर्थतन्त्रा पर बोझ है, जो अच्छा उपभोक्ता नहीं है वो एक दीमक के सामान है इसीलिए विश्व अर्थव्यवस्था में रोबोट जैसी चीजें विकसित की जा रही है। इन्सान को इन्सान की जरूरत नहीं रहेंगी, यह बहुत खतरनाक सोच है।

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विश्व की सभी सरकारों ने आग लगने पर कुआं खोदने का काम किया है। वे जागृत हुए इसके लिए धन्यवाद है लेकिन इस विपदा में अगर कोई कुछ सीखे तो क्या बुराई है। इन्सान भी बचेगा व कुदरत भी बचेगी परन्तु सत्ताओं के मालिकों के पास एक वायरस से लड़ने के लिए संसाधनों की कमी है।

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इलाज करने वाले लोगों के पास संसाधन नहीं है। ऐसे में जिनके पास संसाधन है उन्हें कुछ छोड़ना ही होगा, वे प्यार से छोड़े तो दानी कहलायेगें और अगर धन दबाकर रखने की इच्छा होगी तो आने वाला वक्त इसका अलग फैसला करेगा। कोरोना वायरस से मरने वालों की संख्या कितनी होगी यह कहना मुश्किल है

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लेकिन भुखमरी व बेरोजगारी का वायरस हमारा तंत्रा ठीक नहीं करता तो भी आदमी, आदमी से लड़कर मरेगा।

(लेखक हिंदी दैनिक लोकमत के प्रधान संपादक हैं)

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