Tuesday - 29 October 2024 - 8:41 AM

विश्वयुध्द की तेज होती बयार में शांति का शंखनाद

डा. रवीन्द्र अरजरिया

विश्व युध्द के मुहाने पर स्थितियां पहुंचती जा रहीं है। वर्चस्व की जंग में अत्याधुनिक हथियारों का जखीरा विस्तारवादी नीतियों को बढावा दे रहा है।

राष्ट्रीय विकास और संपन्नता के नाम पर नागरिकों को बरगलाने वाले राष्ट्रों की सरकारें कुटिल देशों की चालों में फंसती जा रहीं है। आपसी संबंधों को अह्म की तराजू पर तौलने वाले स्वयं को बेहद महात्वपूर्ण मानने लगे हैं। आका और दास के मध्य मित्रता जैसे शब्द कहीं खो से गये हैं।

अनेक राष्ट्र स्वयं को मुखिया बनाने के लिए षडयंत्रों का पिटारा खोल रहे हैं ताकि सुविधाओं की मृगमारीचिका के सहारे गुलामों की फौज तैयार की जा सके। श्रीलंका की कंगाली के बाद लेबिनान के उप प्रधानमंत्री ने भी अपने देश की बदहाली के बारे में खुद ही बयान दिया है। वहां का सेन्ट्रल बैंक तो पहले ही दिवालिया हो चुका है। आवाम के हालत बदतर होते जा रहे हैं।

नेपाल में भी आर्थिक स्थिति का तानबाना कमजोरी के शीर्ष पर पहुंच चुका है। पाकिस्तान जैसे अनेक राष्ट्रों पर कर्जों का कमर तोड बोझ निरंतर बढता जा रहा है। इनमें से ज्यादातर देशों की सिसकती आहों के पीछे चीनी षडयंत्र को ही उत्तरदायी मानने वालों की कमी नहीं है।

विकास, सुविधा और संसाधनों के नाम पर सपना दिखाने वाला ड्रेगन, अपने मोहपाश में आ चुके देशों के खून की आखिरी बूंद तक चूसने से बाज नहीं आता। कथित सुख और संपन्नता का दावानल दुनिया के अनेक देशों को अपने शिकंजे में ले चुका है। ऐसे में रूस की यूक्रेन के साथ हो रही जंग से दुनिया दो भागों में बट गई है जबकि तीसरा घटक शांति की वकालत भी कर रहा है।

समाधान के पक्षधरों की संख्या बेहद कम है क्योंकि स्वयं को चौधरी मानने वाले राष्ट्र, समझौते की परिणति में खिलखिलाते चेहरे नहीं देखना चाहते। अमेरिका और रूस के मध्य लम्बे समय से चल रही वर्चस्व की खामोश जंग अक्सर सामने आती रही है। यूक्रेन के ताल ठोकते ही अमेरिका ने खुलकर मोर्चा सम्हाल लिया।

रूस के विरोधी के कंधे का उपयोग करके समान सोच वाले देशों को अपने खेमे में मिलाने का क्रम शुरू कर दिया गया। दूसरी ओर समझौता, समाधान और शांति के रास्ते खोजने वालों पर अमेरिका ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर दबाव बनाने का पूरा प्रयास किया।

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यह अलग बात है कि उसे कई स्थानों पर आशातीत सफलता नहीं मिली। चीन के साथ ताइवान के कटुता पूर्ण संबंधों का लाभ लेने के लिए अमेरिका ने स्वयंभू न्यायाधीश की भूमिका स्वीकारना शुरू कर दी। वहां के 6 सांसदों ने ताइवान का दौरा किया और सीनेटर ने ताइवान को हर संभव मदद देने का भरोसा दिलाया।

दुनिया के दूसरे कोने में इजराइल के साथ फिलिस्तीन का विवाद चरम सीमा पर पहुंचता जा रहा है। जंग के हालात पुन: निर्मित होने लगे हैं। पाकिस्तान ने एक बार फिर अफगानिस्तान के दो प्रान्तों पर हवाई हमले किये। तालिबान ने पाकिस्तान के विरुध्द मोर्चा खोल दिया।

अफगान के वर्तमान हालातों के लिए पूरी तरह से अमेरिका की नीतियां ही उत्तरदायी रहीं। विगत 75 वर्षो से उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया के मध्य चल रही जंग को जहां एक ओर रूस हवा देता रहा तो वहीं दूसरी ओर अमेरिका दम भरता रहा।

ईरान-ईराक से लेकर तुर्की-सीरिया तक आपसी वैमनुष्यता फैली है। चारों ओर युध्द जैसे हालात पैदा हो रहे हैं। ऐसे में भारत के लिए आवश्यक है कि वह अपने हितों की रक्षा के लिए दूरगामी नीतियों का अनुशरण करे।

अभी तक का विश्लेषण यह स्थापित करता है कि जहां देश की विदेश नीति पूरी तरह से न केवल सफल रही बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान भी स्थापित की है। इसी का परिणाम है कि विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने भारत आकर अनेक समझौतों को अंतिम रूप दिया। अमेरिका में भी दो+दो की बैठकें सारगर्भित हुई हैं।

अब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री का दौरा भी इसी श्रंखला की एक महात्वपूर्ण कडी है। कोरोना काल में अपने नागरिकों की सुरक्षा के साथ-साथ विश्व को वैक्सीन सहित अन्य संसाधन उपलब्ध कराने में देश अग्रणीय रहा है।

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श्रीलंका में भुखमरी के हालात हों या फिर अफगानिस्तान में खाद्यान्न का संकट, भारत ने हमेशा ही सहयोग के लिए हाथ बढाये हैं। यही कारण है कि दुनिया के अधिकांश देश भारत के साथ खडे नजर आते हैं। जब दुनिया में हिंसा से वर्चस्व कायम करने का फैशन चल निकला हो तब देश की मानवीयता का परचम, नित नई ऊंचाइयां छूने लगा है।

विश्वयुध्द की कगार पर पहुंच चुके हालातों के मध्य एक बार फिर खूनी सुनामी के ढहाके गूंजने लगे हैं। कहीं साम्प्रदायिकता के नाम पर रक्त की धारायें बहायी जा रहीं है तो कहीं पुराने विवादों को ताजा करने की कवायत चल रही है।

विस्तारवादी मानसिकता के पोषक स्वयं के अह्म की पूर्ति के दुनिया को युध्द में झौकने का षडयंत्र कर रहे हैं। ऐसे में विश्वयुध्द की तेज होती बयार में शांति का शंखनाद कर रहा है भारत। यही तो है हमारी विरासत की थाथी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है।)

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