जीवन की विभीषिकायें नित नये रूप में सामने आ रहीं हैं। कभी प्राकृतिक दावनल के रूप में तो कभी मानव के कथित विकासात्मक कृत्यों के परिणामस्वरूप महामारी के नये स्वरूप पर जहां विश्व चिंतित है वहीं विनाशकारी हथियारों की होड भी बढती जा रही है।
वर्चस्व की कामनायें निरंतर हिलोरें मार रहीं हैं। ऐसे में विश्व की मानवीय आस्था तार-तार होना स्वाभाविक ही है। जीवन के मूल्यों को स्वीकारने की परम्परा को धर्म का नाम देकर अधिपत्यवाद निरंतर शिखर की ओर बढ रहा है।
देशों के मध्य वैमनुष्यता का बीजारोपण इन्हीं धार्मिक आस्थाओं के मध्य पैदा की जाने वाली खाई का परिणाम है। वर्तमान सामाजिक मूल्यों को पुरानी सम्प्रदायवादी व्यवस्था के आइने से देखने का नजरिया बदलना होगा।
महापुरुषों के व्दारा दिये गये निर्देशों के मर्म को समझे बिना, लकीर का फकीर होना कदापि उचित नहीं है। सनातनी व्यवस्था हो या शिरियत कानून, बौध्द पध्दति हो या फिर ईसाई सोच।
वर्तमान में इन्हें राष्ट्रीय संविधान का अंग बनाने से आधुनिक अनुसंधानों को धता बताने जैसा है। जिस युग में वे व्यवस्थायें सामाजिक संतुलन, शांति और सुखी जीवन हेतु लागू की गईं थी तब वे समाचीन थीं, उनकी आवश्यकता थी और उनके परिणाम भी सामने आये थे।
देश, काल और परिस्थितियां बदलतीं चलीं गईं। पैदल यात्रा के स्थान पर आज वायुयानों तक सुविधायें उपलब्ध हैं। व्यक्तिगत संदेशा पहुंचाने की जगह अब मोबाइल सुविधाओं के माध्यम से सीधा संवाद सुलभ हो गया है।
ऐसे में पद-यात्रा, चिट्ठी-पत्री भेजना, किसी मूर्खता से कम नहीं होगा। कुछ राष्ट्रों में तो आंतरिक कलह से लेकर पडोसियों के साथ तनातनी का माहौल भी इन्हीं मूल्यों के विरोधाभाषी होने के कारण बना हुआ है।
कट्टरपंथियों की सीमित सोच आज भी युगों पुरानी परम्पराओं की दुहाई पर अंगडाई ले रही है। ऐसे लोगों की पर्याप्त संख्या हर सम्प्रदाय, हर धर्म और हर समाज में मौजूद है, जो निजी स्वार्थों के लिये आपसी दूरियां पैदा करने का वातावरण निर्मित करते हैं और फिर उसे हवा देकर दूर-दूर तक पहुंचाते हैं।
यही आग आज पूरी दुनिया में लग चुकी है। कहीं इस्लाम का जेहाद जिंदाबाद हो रहा है तो कहीं सनातन का परचम फहराया जा रहा है। कहीं ईसाइयत के विस्तार हेतु फंडिंग की जा रही है तो कहीं लालच से आधार पर धर्म परिवर्तन की कोशिशें तेज हैं।
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या व्यक्तिगत जीवन जीने की एकरूपता वाली भीड जुटाना ही हमारा लक्ष्य है, या फिर इससे आगे भी कुछ सोचने, करने और परिणाम प्राप्त करने की प्रेरणायें जीवित हैं।
मानवीय काया की विशेषताओं का उपयोग हर युग में होता रहा है। बुध्दि, विवेक और ज्ञान की त्रिवेणी ने हमेशा ही सामंजस्य बनाने के यक्ष प्रश्न को उत्तर तक पहुंचाया है। अफगानस्तान के हालातों से लेकर पाकिस्तान की आंतरिक कलह आज किसी से छुपी नहीं है।
तुर्की, ताइवान और इजराइल जैसे अनेक राष्ट्र इसी तरह की ज्वाला में जल रहे हैं। भारत में भी सीमापार से आने वाली सहायता के आधार पर धार्मिक उन्माद फैलाने का षडयंत्र वर्षों से चल रहा है।
बाह्य आक्रान्ताओं के समर्थकों की संख्या निरंतर बढती जा रही है। धनबल के आधार पर जनबल तैयार करने की मुहिम चल रही है। व्यवसायिक एकाधिकार का चलन जोरों पर है। व्यक्तियों, समाजों को भय दिखाकर शोषण करने वालों के हौसले अब सरकारों को भी डराने की दिशा में बढ चले हैं।
इन राष्ट्रघाती ठेकेदारों के साथ किये जाने वाले सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार से उनके हौसलों को पंख लगते देर नहीं लगेगी। वे फिर किसी नई मांग के सामने सरकारों को झुकाने का मंसूबा पालकर किसी नये बैनर के तले इकट्ठा होंगे।
संविधान में मनमाने संशोधन करवाने का दबाव बनायेंगे और हम अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर खामोशी से स्वयं को किस्तों में कत्ल होते देखते रहेंगे। आखिर वह कौन सी मजबूरी है जो हमें राष्ट्र के हित में कडे कदम उठाने से रोकती है। इसके उत्तर में एक ही बात सामने आती है जिसे हम वोट बैंक की मजबूरी कह सकते हैं।
मुट्ठी भर लोगों की अनुचित मांगों के लिए मुट्ठी से बाहर के लोगों का हायतोबा मचाना किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता, परन्तु ऐसा हो रहा है। सत्ताधारी दल जब एक वर्ग के तुष्टीकरण हेतु कार्य करता है तो विपक्ष दूसरे वर्ग के मुद्दों को हवा देकर खाई को बढाने का काम करता है। उसमें भी तुष्टीकरण के विरोध में जाने का साहस नहीं होता।
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यदि विपक्ष ही यह साहस दिखा दे, तो वास्तविक आवश्कता और बनावटीपन का भेद का उजागर होते देर नहीं लगेगी, परन्तु ऐसे में तुष्टीकरण वाले वर्ग को मिलने वाले लाभ में अवरोध बनने का खामियाजा चुनावी काल में विपक्ष को मिलने की संभावना रहती है।
सो वह भी दूसरे वर्ग के साथ खडा होकर उनकी मांगों को हवा देता है और शुरू हो जाती है वर्गगत खींचातानी। ऐसी चालें मां भारती की वसुन्धरा पर बाह्य आक्रान्ताओं के साथ आयीं और स्थाई हो गई।
इस स्थायित्व के पीछे उन आक्रान्ताओं के अनुयायियों की महात्वपूर्ण भूमिका रही। फूट डालो, राज्य करो। यह मूल मंत्र आज भी भारत भूमि पर फलफूल रहा है।
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जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, भाई-भतीजावाद, वंशवाद, सामंतवाद, कुबेरवाद, आतंकवाद जैसे अनेक कारकों का एक साथ तांडव हो रहा है। देश में ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भी परउपदेश कुशलबहुतेरे का राग अलापा जा रहा है।
स्वयं के देश में तानाशाही करने वाला चीन अन्य राष्ट्रों के मानवाधिकारों के मुद्दों को रेखांकित करता है, विस्तारवादी नीतियों को व्यवहार में उतारने वाला यह देश दूसरों को सीमा कानून का पाठ पढाता है।
गैर इस्लामिक आस्था स्थानों को ध्वस्त करने वाला पाक भी अन्य देशों की धार्मिक बंदिशों पर रोष व्यक्त करता है। ऐसा केवल चीन या पाक तक ही सीमित नहीं है बल्कि विश्व के अनेक राष्ट्रों में खाने और दिखाने के दांतों में बेहद फर्क है।
यही फर्क आज विश्व को तीसरे युध्द की दिशा में बढा रहा है। अभी समय है हमें वास्तविकता को अंगीकार करके सचेत हो जाना चाहिये अन्यथा रोम और बांसुरी का कथानक की पुनरावृत्ति होते देर नहीं लगेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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