जुबिली न्यूज डेस्क
लंबे समय से आर्थिक असमानता पर बहस हो रही है, लेकिन कोई कारगर उपाय अब तक सामने नहीं आ पाया है। दिन-प्रतिदिन आर्थिक असमानता की खाई बढ़ती जा रही है। मेहनत कोई और कर रहा है और फायदा कोई और कमा रहा है।
खेती-किसानी को लेकर कहा जा रहा है कि यह लंबे समय से फायदे का सौदा साबित नहीं हो रही है। लेकिन जहां खेती करने वाले किसान बेहाल है वहीं उनकी फसल खरीददार मालामाल हो रहे है। यह भी बड़ी सच्चाई है।
ऐसी ही एक रिपोर्ट कॉफी व्यापार से जुड़ी प्रकाशित हुई है जिसमें कहा गया है कि एक तरफ जहां कॉफी व्यापार से जुड़ी बड़ी-बड़ी कंपनियां अरबों डॉलर कमा रही हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी खेती कर रहे किसान दिन प्रतिदिन और गरीब होते जा रहे हैं।
हाल ही में जारी कॉफी बैरोमीटर रिपोर्ट 2020 में यह जानकारी सामने आई है। रिपोर्ट में कॉफी किसानों पर बढ़ते जलवायु परिवर्तन के खतरे को भी उजागर किया है।
रिपोर्ट के मुताबिक न तो यह ये कंपनियां पर्यावरण पर ध्यान दे रही हैं और ना ही ये किसानों और खेती की दशा में सुधार लाने के लिए कोई खास प्रयास किए हैं। इन कंपनियों की लिस्ट में नेस्ले, स्टारबक्स, लवाज्जा, यूसीसी और स्ट्रॉस जैसे बड़े नाम शामिल हैं।
रिपोर्ट में बताया गया है कि पूूरी दुनिया में 1.25 करोड़ खेतों में कॉफी उगाई जाती है। इनमें से 95 फीसदी फार्म 5 हेक्टेयर से छोटे हैं और 84 फीसदी का आकार 2 हेक्टेयर से भी कम है।
इन छोटे खेतों में दुनिया की करीब 73 फीसदी कॉफी उगती है। हालांकि इन लाखों फार्म्स के बावजूद इनके द्वारा उगाई करीब आधी कॉफी केवल 5 कंपनियों द्वारा निर्यात की जाती है, जिन्हें इसके बाद भूनने के लिए बड़ी कंपनियों द्वारा आयात किया जाता है।
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केवल 10 कंपनियों द्वारा 35 फीसदी कॉफी किया जाता है तैयार
दुनिया में केवल 10 कंपनियों द्वारा 35 फीसदी कॉफी को रोस्ट किया जाता है। 2019 के आंकड़ों के मुताबिक इन कंपनियों ने करीब 4,03,299 करोड़ रुपय (5,500करोड़ डॉलर) कमाए थे।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस तैयार कॉफी को बेचने से जो आय होती है उसका 10 फीसदी से भी कम इन कॉफी उगाने वाले देशों को मिलता है। उसमें से भी काट छांटकर जो बचता है वो वहां के किसानों की जेबों तक पहुंचता है। ऐसे में उनका गरीब होना स्वाभाविक ही है।
क्या है कारण?
कॉफी से जुड़ी अनेक समस्याओं में से किसानों को उपज की मिलने वाली कम कीमत भी है। जबकि यदि कॉफी उत्पादन के खर्च को देखा जाए तो उसका करीब 60 फीसदी उससे जुड़ी मजदूरी में जाता है।
पहले से ही इसकी खेती कर रहे किसान गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे हैं। ऐसे में न तो यह किसान अपने खेतों पर निवेश कर पाते हैं, न ही अपनी उपज को पर्यावरण अनुकूल बना पाते हैं।
उनकी छोटी सी कमाई में जहां घर-परिवार चलाना मुश्किल हो जाता है तो वहां पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन पर निवेश की बात करना तो बेमानी लगता है। ऊपर से बाढ़, सूखा, तूफान, कीट और बीमारियां उनकी आय में कमी और खर्चों में इजाफा कर रही हैं।
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केन्या, अल साल्वाडोर और मेक्सिको जैसे कुछ देशों में जहां बेहतरीन कॉफी पैदा होती है, वहां इसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। दरअसल कॉफी की बढ़ती मांग की वजह से भूमि पर दबाव बढ़ रहा है। इस मांग को पूरा करने के लिए तेजी से जंगलों को काटा जा रहा है।
हालांकि कॉफी उत्पादक देश और बड़ी कंपनियां आपस में मिल-जुलकर पर्यावरण और समाज से जुड़ी कई समस्याओं को हल करने में मदद कर सकती है, लेकिन अपने निजी स्वार्थ, नीतियों और योजनाओं के चलते यह स्थानीय मुद्दों से बहुत दूर हो जाते हैं।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इन रोस्टरों और व्यापारियों में से 15 प्रमुख कंपनियां ऐसी हैं जो एसडीजी में अपना कोई सार्थक योगदान नहीं दे रही हैं। न ही पर्यावरण संरक्षण और न ही किसानों और उससे जुड़े लोगों के विकास पर ध्यान दे रही हैं।
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हालांकि कुछ कंपनियों ने इस विषय पर व्यापक नीतियां बनाई हैं, लेकिन वो अपनी प्रतिबद्धताओं और वादों पर खरी नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह उन कंपनियों की जिम्मेवारी नहीं है कि वो कॉफी उत्पादन में लगे किसानों के हितों का भी ध्यान रखें साथ ही साथ ही कॉफी उत्पादन से लेकर उसकी पूरी सप्लाई चेन को दुरुस्त करें जिससे वो पर्यावरण पर कम से कम असर डालें।