केपी सिंह
राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक सुधारों के साथ धार्मिक सुधार की भी देश में बड़ी आवश्यकता है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कार्यभार संभालते ही धार्मिक कुरीतियों की प्रतिक्रिया में एक कार्यक्रम में कुछ जगह पंडों द्वारा की जा रही अराजकता को लेकर कह दिया था कि ऐसा करने वाले पंडे नहीं गुंडे हैं। उनकी इस बेलौस फटकार से एक बड़ा वर्ग उद्वेलित हो गया था। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए इस टकराहट को जहां का तहां रोकने के लिए योगी ने तत्काल चुप्पी साध ली लेकिन वे धार्मिक सुधार के एजेंडे से लगता है कि विरत नहीं हुए थे।
उन्होंने अपने गुरू महंत अवैद्यनाथ की स्मृति में गोरखपीठ में आयोजित कार्यक्रम में राष्ट्रीय पुर्नजागरण यज्ञ और संत समाज विषय पर गुरूवार को व्याख्यायन आयोजित किया जिसका शुभारंभ करते हुए कहा कि मंदिर और मठ सिर्फ पूजा पाठ तक सीमित न रहें बल्कि लोक कल्याणकारी कार्यो में भी हाथ बंटायें।
कबीलाई व्यवस्था से लेकर राज्य व्यवस्था के आदिम काल तक जब वैधानिक संस्थाओं का अस्तित्व नहीं था, धर्म के माध्यम से ही व्यवस्था के अनुशासन का पालन कराया जाता था जो आज के समय के अनुशासन तंत्र से कहीं अधिक प्रभावी था। इसकी नीव उन धर्माचार्यो के त्याग और संयम पर खड़ी थी जो किसी भी इन्द्रिय का सुख न लेने का दंड जैसा व्रत अपने जीवन में अपनाये हुए थे। जिव्हा मास मदिरा का स्वाद ले यह तो बहुत बड़ी बात थी यह धर्माचार्य जो कि बाद में ब्राह्मण जाति के रूप में संस्थाबद्ध हुए वे तली हुई सब्जियों तक के आस्वादन से भी अपने को वंचित रखते थे। नींद आये या न आये उन्होंने अपने लिए मखमली सेज का निषेध कर रखा था और जमीन पर मृगछाला बिछाकर सोते थे। महल तो क्या साधारण घर के लिए भी वे लालायित नहीं हो सकते थे इसलिए घासफूस की झोपड़ी में रहते थे।
इसलिए जब समाज का विकास शुरू होने पर गुरूकुल खोलने की आवश्यकता सामने आयी तो राजा ने नये कर लगाने की बजाय उन्हें आगे किया। ऋषियों ने अपने लिए नहीं गुरूकुलों के लिए गाय और संपत्ति मांगी ताकि वे बटुकों को निशुल्क आश्रय की व्यवस्था सात्विक भोजन सहित कर सकें। भला अपरिग्रही ब्राह्मणों को सामाजिक कार्य के लिए कोई भी समृद्ध और सक्षम व्यक्तित्व दान देने से मना कैसे कर सकता था। दान और टैक्स में यही अंतर है। टैक्स पुण्य लाभ नहीं देता और पुण्य लाभ के बिना उस समय कितना भी धनवान व्यक्ति अपने को अधूरा अनुभव करता था।
समय बदला तो यह व्यवस्थायें खंडित होती चली गई। परंपराओं का स्थान तकनीकी व्यवस्थाओं ने ले लिया। प्राचीन सम्यता के भारत जैसे देश भी इससे अछूते नहीं रहे। लोकोपकार के लिए सरकार से इतर जो तंत्र आधुनिक समय में खड़ा किया गया वह एनजीओ का तंत्र है। लेकिन यह तंत्र क्या प्राचीन ऋषियों और ब्राह्मणों की तरह त्याग व संयम वाले भद्रजनों द्वारा संचालित किया जा रहा है। नहीं ! तो एनजीओ के लोगों से नैतिक तेज को वहन करने की आशा कैसे की जा सकती है।
दूसरे देशों की जो मुख्य धारा की धार्मिक सभ्यतायें हैं उनका इतिहास भारतीय धार्मिक सम्यता के सापेक्ष अत्यंत नया है। इन धार्मिक सम्यताओं ने भारतीय धार्मिक सम्यता के संस्कार और सिद्धांतों का ही अनुशीलन किया है। लेकिन यह दुर्भाग्य का विषय है कि गुरू ही अपना ज्ञान भूल गया और उसे शिष्यों से सीखने की जरूरत महसूस हो रही है।
अमेरिका और यूरोप में ऐश्वर्य के शिखर पर बैठे लोग अपने जीवन को सार्थक करने के लिए अपनी धन सम्पदा पर कुंडली मारकर बैठने का जतन छोड़कर चैरिटेबिल कामों के लिए अधिकतम दान करने की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं, चर्च दुनिया भर में हर मजहब के बीमार, अशिक्षित और अभावग्रस्त लोगों के उद्धार के लिए सदाव्रत बांटने को आगे आ रहे हैं लेकिन उस देश में जहां सोने में कलि का वास बताने वाली श्रीमदभागवत कथा का पाठ हर गली गांव में किया जाता है मंदिरों में सोने का डम्प लगवाकर कलयुग को पोसने का पाप किया जा रहा है। मंदिर मठों की जमीन से परोपकार का एक कार्य नहीं होता।
मठाधीश्वरों के लिए त्याग और संयम की बाध्यतायें स्वतः समाप्त कर दी गई हैं। दूसरी ओर इनमें अपार वैभव संचित हो रहा है। ऐसे में अगर स्वामी पथ भ्रष्ट होकर व्यभिचार नहीं करेंगे तो क्या करेंगे। इन गर्हित कृत्यों को धिक्कारने की बजाय साध्वियां धर्म को एक गिरोह समझकर इन्हें चरित्रवान होने का सर्टिफिकेट बांटने में लगी हैं। हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा को इससे बड़ा आघात कोई और नहीं है।
बिडम्वना यह है कि हिन्दू संवैधानिक मानस से परे प्रदर्शित करके अपने समुदाय को उच्छृंखलता के अपयश का भागी बन रहे हैं। हिन्दू संविधान स्त्री को साध्वी होने की अनुमति नहीं देता लेकिन इसके बावजूद साध्वियों को मान्यता दी जा रही है। हिन्दू संविधान कहता है कि संत तो किसी भी जाति का हो सकता है लेकिन शंकराचार्य से लेकर महामंडलेश्वर तक किसी धार्मिक पद का अधिकारी ब्राह्मण के अलावा किसी और जाति का नहीं हो सकता। यह प्रावधान दूसरी जातियों को नीचा दिखाने या ब्राह्मणों को ईश्वरीय खिताब देने के लिए नहीं की गई थी इसके पीछे एक सोच है।
माना यह गया था कि ब्राह्मण के रूप में ऋषियों की वे संताने संस्थाबद्ध हुई जिन्हें असीम त्याग और संयम का अभ्यास था। इसलिए ब्राह्मणों के डीएनए में इन प्रतिबंधों से बंधकर जीवन का निर्वाह करना शामिल है। जबकि दूसरी जातियों के लोग मंदिर मठों के वैभव और ऐश्वर्य को प्राप्त करने के बाद ऐसा डीएनए न होने के कारण भटक सकते हैं। इसके बावजूद अगर दूसरी जाति के लोगों को धार्मिक अधीश्वर के रूप में मान्यतायें दी जा रही हैं तो यह स्वेच्छाचारिता हिन्दू संविधान का स्पष्ट उल्लंघन हैं। कोई समाज और देश अपने संविधान के उल्लंघन से सुरक्षित नहीं बना रह सकता इसलिए इस अनिष्ट को गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
बहरहाल योगी आदित्यनाथ ने धार्मिक अधिकारियों को अपने उत्तरदायित्व का बोध बहुत शालीन तरीके से महंत अवैद्यनाथ की पुण्य स्मृति के कार्यक्रम में कराने की कोशिश की है। इस देश को अकाल मृत्यु और वंचनाओं के दैन्य से मुक्त कराने में सरकारें कभी सफल नहीं हो सकती। इस कार्य के लिए अपने संसाधनों के साथ प्राचीन काल की तरह समाज को आगे आना होगा। पहल धार्मिक संस्थाओं से होगी तो आम श्रृद्धालु भी परोपकार के लिए हाथ खोलने को प्रवृत्त होंगे। अनुष्ठानों से पुण्यार्जन नहीं होता। गांधी बब्बा ने संदेश गुंजाया था कि परहित सरिस धर्म नहीं भाई। योगी आदित्यनाथ ने इसको कार्यरूप देने के लिए जो कदम आगे बढ़ाया है उसका स्वागत होना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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