केपी सिंह
बिकरू में विकास दुबे ने 08 पुलिस कर्मियों को अपनी शैतानी सनक पूरी करने के लिए शहीद कर दिया था तो माहौल बहुत गरम हो गया था। सरकार से लेकर पुलिस अफसर तक राज्य की प्रभुता को चुनौती के मानिन्द्र इस घटना से इस कदर बिफरे हुए थे कि लग रहा था कि अब तो अपराधियों की शामत ही आ जायेगी। लेकिन इसके बाद कानपुर में अपहरित लैब टेक्निशियन की हत्या की खबर प्रकाश में आयी।
गोरखपुर में प्रापर्टी डीलर के बालक को फिरौती के लिए अपहृत किया और बाद में उसकी भी हत्या कर दी गई। कानपुर देहात में धर्मकांटा पर काम करने वाला युवक भी ऐसी ही घटना का शिकार बन गया। इन वारदातों ने सरकार और पुलिस के गुस्से के गुब्बारे की हवा निकाल कर रख दी है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पदभार ग्रहण करते ही हुंकार भरी थी कि प्रदेश में या तो अपराधियों की जगह जेल में होगी या ऊपर। उनका ठोको अभियान कुछ समय तक तो असरदार दिखा पर अब लगता है कि उनकी पुलिस के हाथ से दुर्दांत अपराधियों की लगाम छूट चुकी है।
पूर्व डीजीपी ओपी सिंह की कार्यप्रणाली संदेह से परे नहीं थी तो भी उनके कार्यकाल में काफी हद तक गनीमत रही थी। अब डैड ओनेस्ट अफसरों में शुमार हितेश चन्द्र अवस्थी के हाथ में कमान है लेकिन स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। ऐसा क्यों यह एक सवाल है।
कोरोना की महामारी ने बहुत कुछ अस्त व्यस्त कर दिया है। शासन व्यवस्था के सूत्र भी इसकी आपाधापी में गड़बड़ा गये हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जंगल राज कायम हो जाने दिया जाये। लाॅकडाउन के समय क्या आम लोग, क्या अपराधी सभी इस बला से घबराकर दुबके रहे।
इसलिए घटनाओं को भी विराम लगा रहा लेकिन इस संकट ने जिस तरह से लोगों का रोजगार छीनकर अर्थ व्यवस्था को डावाडोल किया उससे जाहिर था कि अब अपराध बढेंगे फिर भी पुलिस चैकन्नी नहीं हो सकी। कहीं न कहीं उसमें दूरदर्शिता की कमी रही।
ऐसा भी नहीं है कि अचानक अपराधियों ने सिर उठा लिया। सही बात यह है कि व्यवस्था पहले से ढीली थी। इसलिए अपराधी जब अपनी नीचता के लिए तत्पर हुए तो पुलिस के लिए उन्हें संभालन मुश्किल हो गया।
पहले से इस बात की चर्चा हो रही थी कि पुलिस में प्रोफेशनल तौर तरीकों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। ठोको नीति का सार्वजनिक एलान अंधाधुंध कार्यशैली का ही नमूना प्रमाणित हुआ। पुलिस और न्याय व्यवस्था के दायरे पृथक-पृथक हैं।
सरकार में समझदारी होती तो घोषित रूप से ठोको नीति का एलान करने में उसे संकोच लगता जो ओवरलैपिंग को निमंत्रण देने वाली साबित हुई। आश्चर्य यह है कि इस नीति के बावजूद अपराधी भयभीत होने की बजाय और दुस्साहसी बन गये। अगर ऐसा न होता तो ताबड़तोड़ अपहरण और हत्या की वारदातें सामने नहीं आती।
दरअसल पुलिस का दबदबा तब बनता है जब वह अराजकता के खिलाफ सतत खड़ाहस्त दिखे। इसीलिए अच्छे पुलिस अफसर इस बात पर जोर देते हैं कि अहस्तक्षेपीय अपराधों में भी पुलिस कर्मी मौके पर भेजे जायें और उनसे ऐसा प्रदर्शन करने को कहा जाये जिससे छोटी घटना को बड़ा रूप देने का साहस अराजक तत्व में पैदा न हो सके। लेकिन योगी राज में ऐसी तत्परता शुरू से ही नदारद रही।
अहस्तक्षेपीय ही नहीं उन घटनाओं में भी पुलिस कागजी कार्रवाई के अलावा कुछ नहीं करती जिनमें 08 वर्ष से कम की सजा होने के कारण न्यायपालिका ने उसे गिरफ्तारी करने से रोक रखा है। इस आचरण के कारण अपराधियों के बीच यह धारणा पनपी है कि पुलिस अब निष्क्रिय हो चुकी है। इस रवैये से उन्हें मनोवैज्ञानिक तौर पर बढ़ावा मिला है।
जबरदस्ती एनकाउंटर से ज्यादा असर गैंगस्टर और इसके तहत अपराधियों की परिसंपत्तियों की कुर्की जैसी कार्रवाइयों से होता रहा है। जुआ, सट्टा, अवैध शराब की बिक्री आदि संगठित अपराधों में आरोपितों को सामान्य धाराओं में हिरासत में लेकर छुट्टी पा ली जाती है जिसमें बहुधा थाने से ही उन्हें जमानत मिल जाने के कारण अवांछित तत्वों में पुलिस का भय खत्म हो जाता है। जबकि टापटेन अपराधियों का साम्राज्य इन्हीं धंधों से फलता फूलता है।
पूर्व की सरकारों में जिन जिलों में कप्तान ऐसे मामलों में गैंगस्टर में गिरफ्तारी और कुर्की की कार्रवाई करते थे वहां माफिया पस्त हो जाते थे। यह परसेप्शन बनता था कि पुलिस बहुत सख्त है। अपराध जगत के बडे़ मगरमच्छ तक इस परसेप्शन के कारण सहमें-सहमें रहते थे, छुटभैयों की तो बिसात क्या थी।
प्रोपर्टी के धंधे ने हाल के दशकों में अपराधियों के हाथ मजबूत करने में बड़ा योगदान दिया है। भू-माफियाओं को लेकर इसलिए योगी सरकार ने जब उनके खिलाफ बड़ा अभियान भरने की डींग हांकी थी तो बड़े अपराधी डर गये थे। लेकिन इस दिशा में धरातल पर कुछ हुआ होता तो विकास दुबे का पनपना जारी नहीं रह सकता था।
यह बात उसके गुर्गो के खिलाफ जैसे-जैसे कार्रवाई आगे बढ़ रही है बहुत साफ होती जा रही है। अगर यह सरकार मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद, साथ-साथ में आजम खां तक ही भू-माफिया विरोधी अभियान को सीमित रखना चाहती है तो पहली नजर में ही यह स्पष्ट होना चाहिए कि इसका बहुत इंपेक्ट न होना तय है।
वजह यह है कि इसके निहितार्थ राजनीतिक प्रतिशोध के खाते में कार्रवाइयों को दर्ज करने वाले होंगे जिससे दूर तक इस अभियान का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। भू-माफियाओं के खिलाफ गिरोहबंदी अधिनियम के इस्तेमाल की भी जरूरत थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
सरकार चाहे तो आर्थिक अपराध अनुसंधान संगठन को यह काम सौप सकती है कि पिछले 10 सालों में किसके पास शहरों में एकाएक कई एकड़ करोड़ों की जमीन आ गई है। फिर मिलान किया जाये कि कितने लोग जिला प्रशासन की सूची में भू-माफिया के रूप में दर्ज हो पाये हैं। सारा भांड़ा फूट जायेगा।
सत्य यह है कि बिकरू कांड के बाद भी ऐसे लोगों की जमानत रद्द कराने की कोई मुहिम शुरू नहीं हुई है जिनके खिलाफ हत्या, डकैती, लूट जैसे दर्जनों मुकदमें कायम हैं। यहां तक कि पहले जो लोग टापटेन और माफिया के रूप में सूचीबद्ध रहे हैं उनके तक के विरूद्ध अब खामोशी है।
डीजीपी मुख्यालय के एडीजी क्राइम से सरकार क्यों नहीं हर जिले के ऐसे लोगों की सूची मंगवा लेती जिनके विरूद्ध पिछले 10 वर्षो में हीनियस क्राइम के एक दर्जन से ज्यादा मुकदमें चल चुके हैं। सरकार की आंखे इसके आंकड़े आने पर खुल जायेंगी। पुलिस व्यवस्था सरकार की ढीलपोल और सुस्पष्ट नीति न होने के कारण मजाक बनकर रह गई है।
वैसे भी योगी सरकार मे पुलिस की बिन्दुवार समीक्षा का रिवाज खत्म हो चुका है। लोगों को तब पता चलता है जब पुलिस किसी को एनकाउंटर में ढेर करके या पकड़ने पर बताती है कि अमुक 25 हजार, 50 हजार या एक लाख का इनामी था। इनाम का एलान भी क्या गोपनीय होता है।
जो इनामी अपराधी हों उनके पोस्टर पहले से लगे होने चाहिए लेकिन अगर ऐसा होगा तो पुलिस की पोल खुल जायेगी। पता चलेगा कि जिसे भारी भरकम अपराधी साबित करने की कोशिश की जा रही है वह टिकिया चोर से ज्यादा की अहमियत नहीं रखते। असली बाहुबलियों को तो पुलिस कार्रवाई के बजाय पोसती है। ताकि उनमें नेतागीरी के चूजे पैदा हो सकें।
जब से प्रशासन में हुकूमत की बजाय मैनेजमेंट की तासीर को पनपाया गया है तब से अनर्थ हो रहा है। पुलिस व्यवस्था भी इसकी शिकार हो चुकी है। नेता, मीडिया और वकील आदि जिन संगठित प्रभावशाली वर्गो से चुनौती मिलने की संभावना होती है उन्हें पहले से साधकर रखने का पलायन मंत्र पुलिस जपती रहती है। इसलिए इन वर्गो में काली भेंड़े दाखिल होकर अपनी पैठ बना रहीं हैं।
पुलिस अफसरों को हीनभावना से उबरने की जरूरत है। दूसरे पावर सेंटरों के आगे क्यों उन्हें विगलित होना चाहिए जब वे खुद पावर सेंटर हैं। समीकरण साधने की बजाय पुलिस अफसरों को अवाचनीय तत्वों को विस्थापित कर अच्छी सोच वालों को ताकत देने के लिए संकल्पित होना चाहिए।
पुलिस अफसर घूमने वाले पहिए नहीं बल्कि समाज व्यवस्था की गाडी की धुरी हैं। वे अपनी भूमिका और शक्ति को पहचान सकें तो समाज में भले आदमियों की सर्वोच्चता कायम हो सकती है जिससे उनका काम बहुत हल्का हो जायेगा। क्या योगी सरकार मानसिकता के स्तर पर पुलिस में ऐसे सकारात्मक परिवर्तन लाने की कोई कार्ययोजना बनाने को तैयार है।