केपी सिंह
अधिकारियों पर राज्य सरकार की पकड़ का पैमान पेश करने वाली मुख्यमंत्री सूचना हेल्पलाइन पर पिछले एक महीने में आयी शिकायतों के निदान की तस्वीर बहुत बदरंग है। पिछली पांच जुलाई को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने स्वयं इस हेल्पलाइन सेवा का शुभारम्भ करते हुए घोषणा की थी कि 1076 टोल फ्री नम्बर की शिकायतों का अविलम्ब निस्तारण न करने वाले अधिकारियों को कड़ा दंड मिलेगा।
लेकिन लगता है कि अधिकारी उनकी चेतावनी को बंदर भभकी से ज्यादा कुछ नहीं मान रहे। इसीलिए इस सेवा पर दर्ज हुई शिकायतों में से केवल 25 प्रतिशत का ही समाधान हो पाने की उपलब्धि सामने आ पाई है। कहने की जरूरत नहीं है कि अधिकारियों को मुख्यमंत्री का कोई भय नहीं है इसलिए उनकी प्रतिष्ठा से जुड़े आदेश को भी वे कोई तवज्जो नहीं दे रहे हैं।
मुख्यमंत्री हेल्पलाइन सेवा 1076 के 04 अगस्त तक के आंकड़ों के मुताबिक इस पर 55 विभागों से संबंधित 2 लाख 51 हजार शिकायतें रजिस्टर की गई थी जिनमें से केवल 64 हजार 800 शिकायतों का निवारण किये जाने की रिपोर्ट अधिकारियों ने दाखिल की है।
अधिकारियों का दावा है कि 63 हजार 448 शिकायतकर्ताओं ने निदान रिपोर्ट पर संतोष जाहिर किया है लेकिन सच्चाई कुछ और है। अनौपचारिक तौर से पता चला है कि लोगों की शिकायत खुर्दबुर्द कर दी गई। जब उनसे प्रतिक्रिया जानने के लिए यह फोन किया गया कि आप किये गये समाधान से संतुष्ट हैं या नहीं तो उन्होंने बताया भी कि उन्हें किसी तरह से राहत देने की कोशिश नहीं की गई। सही बात तो यह है कि इस तरह का मलाल 90 प्रतिशत निस्तारित शिकायतों के फरियादियों को है।
यह बात इसलिए भी सही लगती है कि जब प्रदेश में कर्तव्यहीनता और घूसखोरी सारी सीमायें पार कर चुकी है। खुद मुख्यमंत्री कानून व्यवस्था की समीक्षा में यह जान चुके हैं कि जिलों के कप्तान तक किस तरह से कोताही बरत रहे हैं तो अगर उनका शिकायत निवारण सिस्टम सही तरीके से काम कर रहा होता तो अभी तक दर्जनों अधिकारी कार्रवाई की चपेट में आ चुके होते।
अगर लगभग साढ़े 63 हजार निस्तारित शिकायतों में एक भी अधिकारी और कर्मचारी को दंडित किये जाने का ब्यौरा शामिल नहीं है तो इसके केवल दो ही मतलब हो सकते हैं या तो प्रदेश में रामराज चल रहा है और कोई अधिकारी और कर्मचारी गड़बड़ी नहीं कर रहा, शिकायतें ज्यादा इसलिए हो रहीं हैं कि लोगों को शिकायत करने की फ्लू जैसी किसी बीमारी ने ग्रसित कर लिया है या सरकार यह चाहती है कि लोग 1076 पर अपना सिर पटककर तसल्ली कर लें और इसके बाद जान जायें कि भ्रष्टाचार या गैर जिम्मेदारी से बेचैन होने की बजाय जो कुछ हो रहा है उसमें चुप रहकर गुजर करना सीखना होगा। स्थायी संतोष के लिए मन को कपोतव्रती बना लेने में ही सार है।
हालांकि, मुख्यमंत्री जब रूस रवाना हो रहे थे तो उनके द्वारा दिखाये गये तेवरों के हवाले से कहा गया था कि उनका धैर्य चुक चुका है और आते ही वे एक साथ पूरे घर को बदल डालेंगे। लोग कह रहे हैं कि राम करे ऐसा हो जाये इसलिए मुख्यमंत्री के लखनऊ लौटते ही लोग उनकी ओर टकटकी बांधकर देखने लगे हैं कि किस घड़ी में वे सरकार को एकदम से पूरा घर बुहारने में लग जाते देखें।
मुख्यमंत्री ने कुछ विभागों में मंत्रियों द्वारा मनमाने ढ़ंग से किये गये तबादला आदेशों को रद्द किया है जिससे थोड़ी देर के लिए खलबली तो मची लेकिन हालत यह है कि हर विभाग में तबादलों और पोस्टिंग में संदिग्ध स्थिति दिखाई दे रही है।
खनिज विभाग में माफिया अपने पिट्ठू अधिकारी और कर्मचारियों की रीपोस्टिंग कराने में कैसे सफल हो रहे हैं अगर अधिकारियों को मुख्यमंत्री का जरा भी डर हो। नगर विकास विभाग में माफिया किस्म के अधिशाषी अधिकारी 6-7 सालों से एक ही जगह जमें होने के बावजूद नहीं हटाये जा रहे।
उनके खिलाफ जांचे ठंडे बस्ते में पड़ी हुई हैं और भ्रष्ट किस्म के ईओ एक साथ कई नगर निकायों का चार्ज उनके खिलाफ जांचे जारी होने के बावजूद संभाले हुए हैं। यहां तक कि पुलिस विभाग में एक दंडित अधिकारी को नियुक्ति और पद स्थापना से संबंधित संवेदनशील जिम्मा मिल गया है। अगर शिकायतें निस्तारित होंगी तो यह बदइंतजामी सलामत रह ही नहीं पायेगी। इसलिए मुख्यमंत्री हेल्पलाइन तक की शिकायतों की अनदेखी बंद नहीं है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को सोचना होगा कि नौकरशाही उन्हें भाव न देने पर क्यों उतारू है। मायावती के राज में तो ऐसा नहीं था। वे जो चाहती थी वह नौकरशाही से करा लेती थी। मुख्यमंत्री क्या कई अधिकारी ऐसे हैं जिन्होंने जन शिकायतों के निस्तारण का फोरम अपने स्तर से चलाया तो सिस्टम एकदम ठीक हो गया।
जैसे आईएएस अधिकारी राजशेखर और आईपीएस अधिकारी आशुतोष पाण्डेय इसके उदाहरण हैं। इसलिए यह कहना कि मुख्यमंत्री के प्रयास अंततोगत्वा कामयाब होंगे लेकिन खराब सिस्टम को ठीक करने में समय लगता है इसका कोई अर्थ नहीं है। यह केवल सरकार की फेस सेविंग की खोखली दलील है।
मुख्यमंत्री की कार्यशैली में कहीं न कहीं ऐसी पोल जरूर है जिसके कारण वे नौकरशाही से इच्छित काम नहीं ले पा रहे हैं। यह सही है कि उन्होंने भ्रष्टाचार को काबू में करने के लिए कई दूरगामी व्यवस्थायें अपनाई हैं जिनका असर आगे चलकर देखने को मिलेगा। लेकिन इतने से काम चलने वाला नहीं है लोग तात्कालिक धमाका भी देखना चाहते हैं जो अगर फुर्ती से हों तो एक दो मिसालों से ही सुधार नजर आने लगेगा।
आखिर यह सरकार की कितनी प्रभावहीनता है कि लोकसभा चुनाव के पहले गांव, शहर में सार्वजनिक स्थानों पर जो अवैध कब्जे हटाये गये थे अधिकारियों ने उन्हें फिर बहाल कर दिया। सोनभद्र नरसंहार के बाद राजस्व विभाग के अभिलेखों में दसियों साल पहले हुई हेराफेरी को भी पकड़कर भूमि माफियाओं को पस्त करने की जो हुंकार भरी गई थी वह आदिवासियों की चिता ठंडी होते ही पिचका दी गई। पालीथीन के खिलाफ चला अभियान भी जैसे ही खत्म हुआ वैसे ही बाजार में पन्निया फिर वापस आ गई।
गौ रक्षा के लिए इतना बजट लुटाये जाने के बावजूद भूखी प्यासी गौ मातायें हजारों की संख्या में अभी भी शाम होते ही सड़कों पर डेरा जमाये मिल रही हैं जिनके झुंड मौका मिलते ही किसानों की बर्बादी की कहानी लिखने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। आखिर क्या है जिसकी वजह से मुख्यमंत्री के कार्यक्रम अंजाम तक नहीं पहुच पा रहे।
कहीं ऐसा तो नहीं है कि अधिकारियों के चयन की प्रक्रिया में कोई दोष है जिसके कारण शासन के आदेश का अनुपालन कराने की क्षमता रखने वाले अधिकारी पवैलियन में बैठे हों और बेटिंग के लिए निकम्मे अधिकारियों को मैदान में उतार दिया गया हो। जो भी हो अगर व्यक्तिगत रूप से ईमानदार मुख्यमंत्री के रहते हुए शासन में कसावट नहीं आ पा रही है तो यह बहुत ही अफसोस का विषय है। जिसके निवारण के लिए योगी आदित्यनाथ को परिणामकारी मुद्रा साधनी होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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