केपी सिंह
उत्तर प्रदेश में राजनीति अचानक खुल्लम खुल्ला जाति केन्द्रित हो गई है। पौराणिक मिथकों को आधार बनाकर होने वाले राजनैतिक खेल के बीच इस मोड़ के मद्देनजर कहीं-कहीं परशुराम भगवान श्रीराम से बड़े होने लगे हैं।
सपा और बसपा में परशुराम की विशालकाय भव्य प्रतिमा लगाने को लेकर होड़ की स्थिति पैदा हो गई है। कांग्रेस ने ब्राह्मणों को उकसाने के लिए अलग विंग बन चुकी है। तो भारतीय जनता पार्टी को ब्राह्मणों का मनाये रखने के लिए सजातीय नेताओं को आगे करके कोशिश करनी पड़ रही है। जाति केन्द्रित हो चुकी राजनीति अपने बिडम्वना के अनुरूप वास्तविक मुद्दों को नेपथ्य में ढ़केलती जा रही है।
ब्राह्मणों को लेकर यह कोशिश न तो नई है और न ही अचानक है। एक समय था जब सवर्ण वर्चस्व (जिसकी धुरी ब्राह्मण माने जाते हैं) के खिलाफ होने वाली राजनीति के धड़ाधड़ सफल नतीजे आये। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को इसी राजनीतिक कशिश की बदौलत फर्श से उठकर अर्श पर पहुंचते देखा गया है। लेकिन जैसा कि ज्ञात है धरती गोल है इसलिए सारी घटनाओं और प्रवृत्तियों का घूम फिर कर किसी बिन्दु पर वापस पहुंचना इनकी निर्धारित नियति साबित होती है। इसी के मुताबिक लगभग डेढ़ दशक पहले सामाजिक न्याय की राजनीति ने पलटा खाना शुरू कर दिया था और ब्राह्मण विरोधी राजनीति के खेमे से ही यह नया इलहाम गूंज उठा कि जिसके साथ ब्राह्मण होंगे सत्ता उसी का वरण करेगी।
2007 में जब मायावती को पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का अवसर मिला था तो वे इसी विश्वास की गिरफ्त में थी। नारा गूंज रहा था हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा विष्णु महेश है। दूसरी ओर कानून व्यवस्था की सबसे बड़ी चैम्पियन बनने के लिए मायावती का उतावलापन संतुलन बिगाड़ने लगा जब उन्होंने बांदा के पार्टी विधायक पुरूषोत्तम नारायण द्विवेदी और औरेया के विधायक शेखर द्विवेदी को रणनीतिक तकाजे को ध्यान में रखे बिना जेल पहुंचवा दिया। इसी तरह 2012 में जब सपा ने बसपा के हाथ से सत्ता छीनी तो वह भी इस उपलब्धि के लिए कहीं न कहीं ब्राह्मणों के एहसान से भरी हुई थी। यह दूसरी बात है कि सपा भी ब्राह्मणों के समर्थन को सत्ता संचालन के दौरान हुई चूकों के चलते सहेजकर नहीं रख पाई।
2017 आते-आते देश प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य काफी हद तक बदल चुका था। ब्राह्मणों में यह चर्चा व्याप्त थी कि संक्रमण कालीन राजनीति की विवशताओं की बजह से उन्हें बसपा और सपा का साथ देना पड़ा था। पर उनका गन्तव्य ये दल नहीं हैं। इसलिए अपने ठौर पर ठिकाना करते हुए ब्राह्मणों ने इस चुनाव में अपना पूरा समर्थन भाजपा को लुटा दिया।
दूसरी ओर 2017 में टिकट वितरण के समय कुछ अंतर्विरोध भी देखे गये। तमाम क्षेत्रों में ब्राह्मणों की शिकायत थी कि कांग्रेस के पुराने दौर में जिन सीटों पर ब्राह्मण विधायक निर्वाचित होते थे नयी बयार में वे सीटें दूसरी जातियों के हिस्से चली गई थी। इसका निराकरण कर उन सीटों पर ब्राह्मण उम्मीदवारी बहाल की जायें। जहां ऐसा नहीं हुआ वहां भाजपा नेतृत्व को ब्राह्मणों की बगावत का सामना करना पड़ा। लेकिन यह भी सत्य है कि इसके बावजूद अधिकांश ब्राह्मणों ने चुनाव के दिन कमल निशान पर ही बटन दबाया था।
ब्राह्मणों के इस रवैये को ध्यान में रखकर सपा और बसपा ने चुनाव के बाद इनके प्रति अपनी सांगठनिक आयोजना में बौखलाहट भी दिखायी। दोनों पार्टियां ब्राह्मणों को दरकिनार कर अपनी मूल वोट बैंक को साधने में तल्लीन हो गई थी। पर अब जबकि उन्हें यह दिख रहा है कि ब्राह्मणों को लक्ष्य करके वे भाजपा में बड़ी सेंधमारी कर सकती हैं तो उनका ब्राह्मण प्रेम फिर छलक आया है। हालांकि ये पार्टियां भाजपा का कितना अहित चाहती हैं यह भी एक सवाल है। दोनों पार्टियां भाजपा पर कम हमलावर हैं, एक दूसरे पर ज्यादा इस तथ्य को नजरंदाज नहीं किया जा सकता।
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कांग्रेस भी ब्राह्मणों को साधने की राजनीति में पीछे नहीं है। जितिन प्रसाद पार्टी की ओर से जिलों-जिलों में जूम पर सजातियों के साथ वेबिनार कर रहे हैं। ब्राह्मण हित के मुद्दों पर उनके तीखे बयान भी आ रहे हैं। मजेदार बात यह है कि कुछ समय पहले तक जितिन प्रसाद का नाम भी सिंधिया और सचिन पायलट की सीरीज में विक्षुब्धों की लिस्ट में लिखा जा रहा था। उधर पूर्वांचल में कांग्रेस की ओर से ब्राह्मणों पर डोरे डालने का मोर्चा राजेश मिश्रा संभाले हुए हैं।
ब्राह्मणों की संख्या भले ही अपार न हो लेकिन उनका पासंग राजनैतिक तराजू की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाता है। जिसकी वजह से ब्राह्मण विरोधी राजनीति से आगे बढ़े दलों में भी बाद में उनका समर्थन हासिल करने की प्यास देखी जाने लगती है।
दरअसल तमाम बदलाव के बावजूद समाज में अपनी परंपरागत भूमिका के कारण ब्राह्मणों को यह श्रेय हासिल है कि लगभग हर ब्राह्मण दूसरी कौम के कम से कम पांच लोगों को इधर से उधर करने की क्षमता रखता है। यह क्षमता किसी दूसरी जाति में नहीं है। ब्राह्मणों में ऊर्जा भी अधिक है तो असंतोष का गुण भी उनमें अधिक रहता है क्योंकि वे विपुल ऊर्जा के कारण एक आर्बिट में स्थिर नहीं रह सकते। नतीजतन उनको संतुष्ट रखना हर दल के लिए चुनौती बन जाता है।
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योगी सरकार का जहां तक संबंध है। इसकी शुरूआत से परिस्थितियां ऐसी पैदा हुई जिससे ब्राह्मणों में उनके प्रति संशय का बीज पड़ गया। गोरखपुर जिले की राजनीतिक अदावत के चलते योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद पहला काम हरिशंकर तिवारी को सबक सिखाने के प्रयास के रूप में हुआ। उनके घर पुलिस ने दबिश क्या दी हंगामा मच गया। विरोधी ही नहीं भाजपा के ब्राह्मण विधायक तक सरकार की खिलाफत में सामने आ गये।
इसके बाद योगी ने जिस तरह भाजपा से कोई संबंध न होते हुए भी क्षत्रिय दबंगी के प्रतीक पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर के महिमा मंडन में रूचि ली और राजा भैया से लेकर यशवंत सिंह तक पर अनुग्रह किया जबकि इनका भी कोई संबंध भाजपा से नहीं है। उससे ब्राह्मण सशंकित होते चले गये। स्वामी चिन्मयानंद, अशोक चंदेल और कुलदीप सिंह सेंगर के मामले में भी उन पर जातीयता का ठप्पा मजबूत हुआ।
ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय के अतीत के तीखे संघर्ष की इतनी गांठें है जिससे क्षत्रिय वर्चस्व को हजम न कर पाना ब्राह्मणों के लिए लाजिमी हो जाता है। कानपुर के विकास दुबे द्वारा पुलिस वालों के नरसंहार का मामला दूसरी तरह का था फिर भी वह और उसका गैंग ब्राह्मण अस्मिता का प्रतीक बन गया। इसे लेकर ब्राह्मणों के उद्वेलन को विपक्षी दलों ने भी जमकर हवा दी।
लेकिन क्या इस युग में भी जाति की राजनीति को सींचना उचित माना जा सकता है। एक ओर यह निष्कर्ष सामने आ रहा है कि जाति व धर्म की राजनीति के कारण नेता और पार्टियां इतने ज्यादा गैर जबावदेह हो गये हैं। राजनीति और लोकतंत्र को पटरी पर लाने के लिए इस रवैये को तिलांजलि देनी होगी।
दूसरी ओर व्यवहारिक स्थिति यह है कि जाति के मुद्दे की लत राजनीतिज्ञों को इतनी मुंह लग चुकी है कि इसे छोड़ पाना उनके बूते की बात नहीं रह गया है। बसपा का वजूद जिन मुद्दों के कारण उभरा क्या ब्राह्मण कार्ड खेलकर वह अपनी उस गर्भनाल से नाता नहीं तोड़ रही है।
सिर्फ अच्छी कानून व्यवस्था के प्रमाण पत्र को लेकर किसी राजनीतिक पार्टी का सर्वाइवल संभव नहीं है। अच्छी कानून व्यवस्था तो अच्छे अफसर भी कायम कर सकते हैं। लेकिन राजनीतिक पार्टी की आत्मा एक विचारधारा होती है। नेता के पास दूर दृष्टि और दूरगामी लक्ष्य व कार्यक्रम होना अनिवार्य है।
सपा को लेकर भी यही बात कही जा सकती है। वर्ण व्यवस्था के उपनिवेश को खत्म करने की जद्दोजहद के नाते देश में लोहिया का सोशलिस्ट आंदोलन पहचाना गया। आज तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस पहचान को मिटाने पर उतारू होकर समाजवादी पार्टी इतिहास में सिद्धांतहीन और विश्वासघाती पार्टी के रूप में दर्ज होने के जोखिम का शिकार बन रही है।
दोनों पार्टियों का मूल वोट बैंक अपने आकाओं की इस नई तुष्टिकरण राजनीति से छिन्न हो रहा है। कहीं इनकी नियति आधी छोड़ पूरी को धावे, पूरी मिले न आधी पावे जैसी कहावत में सिमटती न दिखने लगे।
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