श्रीश पाठक
यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि नागरिकता संशोधन कानून पर तथ्य से अधिक संदेहों एवं तर्क से अधिक अफवाहों पर जोर दिया जा रहा है । विपक्ष जहाँ सही प्रश्न करने में नाकाम रहा है वहीं सत्ता पक्ष मानो जानबूझकर अपने स्पष्टीकरणों में तनिक आलस बरत रहा है । यह विषय इतना संवेदनशील है कि यदि तनिक भी इससे गैरजिम्मेदाराना तरीके से निपटा गया तो देश को अखाड़ा बनने में देर न लगेगी। सबसे पहले इसे समझना जरूरी है, आखिर यह है क्या और आखिर अभी हुआ क्या है !
आइये प्रचलित शब्दों को समझने की कोशिश करते हैं
यहाँ तीन शब्दावलियों का अंतर और उनका आपसी संबंध समझना बेहद जरुरी है । नेशनल पापुलेशन रजिस्टर (NPR), नेशनल रजिस्टर ऑफ़ इंडियन सिटीजन (NRIC या NRC) और सीएए (सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट, 2019), राष्ट्रहित (National Interest) की परिभाषा में राष्ट्रीय सुरक्षा एवं राष्ट्रीय विकास दो महत्वपूर्ण घटक आते हैं ।
इन दोनों की पूर्ति के लिए सबसे पहले यही जानना जरूरी होगा कि आखिर इस देश में रह कौन रहा है, भले ही उसकी नागरिकता चाहे कुछ भी हो । NPR यह सूचना इकट्ठी करता है कि वह कौन से व्यक्ति हैं जो भारत में पिछले छः महीने से रह रहे हैं अथवा अगले छः महीने रहने को इच्छुक हैं । देश में रहने वाले USUAL RESIDENTS की आइडेंटिटी की जानकारी NPR में आती है ।
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इसकी कवायद 2011 जनगणना में शुरू की गयी थी और इसे 2015 तक अद्यतन कर लिया गया था । अभी यह निर्णय लिया गया है कि इसे 2021 की जनगणना में भी संपन्न किया जायेगा जिसकी शुरुआत अप्रैल 2020 से हो जाएगी ।
NRC की प्रक्रिया अपने नागरिकों के पहचान की सभी प्रासंगिक जानकारियों को इकट्ठी कर उनका डीजीटलाईजेशन करना है ताकि सरकारी योजनाओं का उचित रूप से निष्पादन किया जा सके और आंतरिक सुरक्षा को बढ़ावा मिले । NRC से पहले NPR की प्रक्रिया पूरी करना आवश्यक है तभी देश में रहने वाले सभी नागरिक-अनागरिक लोगों की सूचना सरकार को मिल सकेगी।
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NPR की प्रक्रिया पूरी भी कर ली गयी है और इसे आगे भी 2021 तक अद्यतन कर लिया जायेगा । जब NPR की प्रक्रिया इतनी शांतिपूर्ण रीति से संपन्न हो सकती है तो आखिर NRC में क्या समस्या है ? समस्या इसलिए है क्योंकि NPR नागरिक-अनागरिक का भेद नहीं करता, लेकिन NRC केवल और केवल नागरिकों की जानकारी को डीजीटलाईज्ड करने की प्रक्रिया का नाम है ।
NRC उन व्यक्तियों में निश्चित ही भय भरता है जो देश के नागरिक नहीं हैं अथवा जिनके पास इस देश के नागरिक होने का कोई वैध साक्ष्य नहीं हैं और जो सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक रूप से नागरिक सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं । NRC के ऐसे कोई प्रावधान ऐसे नहीं हैं जो किसी भी प्रकार के भेदभाव पर आधारित हों । यह सभी जाति, वर्ग, धर्म, संप्रदाय आदि पर समान रूप से लागू होगा ।
गृहमंत्री अमित शाह कह रहे हैं कि यह देश भर में लागू होगा तो यह कोई उनकी अपनी योजना नहीं है । यह देश के नागरिकों का रजिस्टर हैं तो इसे देशभर में लागू तो होना ही है और NRC कोई 2019 की प्रक्रिया भी नहीं है । यह तो 1951 की जनगणना के साथ ही शुरू की गयी थी लेकिन बाद के वर्षों में यह कवायद रुक गयी थी ।
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अब अगर NRC की कवायद रुक गयी थी तो यह अचानक फिर से कैसे शुरू हो गयी, शुरू हुई तो यह इतनी विवादास्पद क्यों है और अब NRC शुरू भी हुई तो इसकी शुरुआत असम से क्यों हुई है ! इन प्रश्नों के जवाब 1971 में मिलेंगे । पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तान के दमन से भारत के विशेषकर पूर्वोत्तर राज्यों में अवैध प्रवसन (Illegal Migration) व्यापक पैमाने पर हुआ ।
यह प्रवसन इतने व्यापक स्तर पर था कि देश के इन राज्यों के स्थानीय जनांकिकी (स्थानीय रहन-सहन, संस्कृति, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति) में ही बदलाव होने लगे । कोई आधिकारिक आंकड़ा तो नहीं उपलब्ध है लेकिन तकरीबन 15 मिलियन (एक करोड़ पचास लाख ) के करीब अवैध प्रवसन भारत में हुआ।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने इसी आधार पर सैन्य हस्तक्षेप किया और बांग्लादेश नाम का एक नया देश अस्तित्व में आया । इतने बड़े पैमाने पर हुए प्रवसन से निश्चित ही स्थानीय स्तर पर चुनौतियाँ उभरनी थीं और फिर उभरी भी । पूर्वोत्तर राज्यों खासकर असम और बंगाल में बांग्लादेशी खेप रहने, जीने और खाने की जद्दोजहद करने लगा ।
भारत-बांग्लादेश सीमा काफी झिरझिरा (porous) है, इसलिए 1971 के बाद भी अवैध प्रवसन भारत में होता रहा । यह अवैध प्रवसन देश के विकास और सुरक्षा दोनों के लिए खतरनाक है । असम में 1979 से 1985 तक इस प्रवसन का प्रचंड विरोध हुआ । इसे असम एजिटेशन कहा जाता है और इसमें तकरीबन 900 से अधिक लोग मारे गए थे । अंततः राजीव गाँधी सरकार ने असम आन्दोलन के नेताओं के साथ असम एकोर्ड पर हस्ताक्षर किये जिसमें दो महत्वपूर्ण तथ्यों पर समझौता हुआ।
पहला, 1 जनवरी 1966 के पहले आये हुए सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता प्रदान की जाय और दूसरा, 24 मार्च 1971 (बंगाल से आने वाले अवैध प्रवसनों में सबसे बड़ा हुजूम मार्च, 1971 का माना जाता है ) तक आये हुए लोगों से मत का अधिकार ले लिया जाय और यदि वे चिन्हित होने के अगले दस वर्ष तक इस देश में रहते हैं तो ही उन्हें मताधिकार सहित पूर्ण नागरिकता अधिकार दिया जाय ।
24 मार्च 1971 के बाद आये लोगों को अवैध प्रवासी घोषित किया जाय । अब चूँकि भारत में बांग्लादेशी अवैध प्रवसन होता रहा, सीमा सुरक्षा इस प्रवसन को रोकने में लगातार नाकाम रही, अवैध प्रवासी, भ्रष्टाचार का सहारा ले आधिकारिक पत्र बनवाते रहे और नेताजन वोटबैंक की राजनीति में आँख मूंदे रहे और अपनी सत्ता बनाते रहे तो यह समस्या फिर-फिर सर उठाती रही।
हालिया उठापटक की शुरुआत 2005 में हुई l असम एकोर्ड के बाद अवैध प्रवासियों के पहचान और उन्हें वापस भेजने की प्रक्रिया के लिए असम के लिए भारतीय संसद ने IMDT ACT, 1983 बनाया । लेकिन आल आसाम स्टूडेंट्स यूनियन के लोकप्रिय नेता सर्बानन्द सोनोवाल ने एक पीटिशन सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की जिसमें कहा गया कि चूँकि इस एक्ट में अवैध प्रवसन पुख्ता करने की जिम्मेदारी शिकायतकर्त्ता पर ही डाल दी गयी है न कि अवैध प्रवासी को अपनी नागरिकता पुख्ता करने को कहा गया है इसलिए यह लगभग असंभव हो जाता है कि अवैध प्रवसन को पहचानकर उन्हें वापस भेजा जाय।
2005 में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया । इसी साल केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार ने असम सरकार और आल आसाम स्टूडेंट्स यूनियन के साथ मिलकर त्रिपक्षीय बैठक की जिसमें असम में NRC की प्रक्रिया शुरू करने का निर्णय लिया गया ।2013 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से कहा कि वह असम में NRC की प्रक्रिया प्रारंभ करे और 2015 से सुप्रीम कोर्ट के प्रत्यक्ष निगरानी में यह प्रक्रिया शुरू भी हो गयी।
अब तक केंद्र में मोदी सरकार आ चुकी थी और उसने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप असम में NRC की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी l आइए, अब समझते हैं कि असम में NRC इतना विवादित क्यों हो गया जबकि इसके किसी प्रावधान में कोई भेदभाव की बात नहीं है l इसमें पूरी तरह से राजनीतिक एवं दफ्तरशाही कारकों की भूमिका है ।
राजनीतिक कारक जनसामान्य में एक अफरातफरी का माहौल बनाते हैं । जनता के हित में तो कुछ ठोस नहीं हो पाता लेकिन जिस प्रकार कुछ राजनीतिक दल खुले आम अल्पसंख्यकों की राजनीति करते हैं उसी प्रकार कम से कम भाजपा खुले आम बहुसंख्यकों की राजनीति करती है। IMDT ACT के रद्द हो जाने से जातीय नेता बने सर्बानन्द सोनोबाल तब तक (2016) भाजपा का दामन थाम असम के मुख्यमंत्री बन चुके थे । केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार बन जाने से राज्य के अल्पसंख्यकों में एक बेबुनियाद भय फैलाया गया कि NRC उनकी नागरिकता छीनने की कवायद है जबकि यह सभी लोगों पर समान रूप से लागू होता है ।
दफ्तरशाही कारक विवाद का मूल कारक है । पिछले दस वर्षों से इस NRC की प्रक्रिया में केवल असम में तकरीबन 1600 करोड़ खर्च हो चुके हैं और इस काम में लगभग 52000 लोग लगे हुए हैं । असम में 19 लाख से अधिक लोग NRC की लिस्ट से बाहर कर दिए गए हैं जिसमें सभी वर्गों और धर्मों के लोग हैं । सभी राज्यों को डिटेंशन सेंटर बनाने के निर्देश दिए गए हैं और पूर्वोत्तर राज्यों में बनाये गए छः डिटेंशन सेंटर बने हैं लेकिन 19 लाख लोगों के लिए लगभग हजार करोड़ रुपये और खर्चने होंगे।
इस लिस्ट से उहापोह की स्थिति पैदा हो गयी है, भारतीय सेना में अपनी सेवाओं से मैडल तक जीतने वालों के नाम इस लिस्ट से बाहर हैं, सत्तारूढ़ भाजपा को भी राज्य में जवाब देते नहीं बन रहा । अब चूँकि यह प्रक्रिया पूरे देश भर में देर-सबेर पूरी करनी है तो जनसामान्य में एक सिहरन होना स्वाभाविक है।
एक अनुमान के मुताबिक NRC को देश भर में लागू करने के लिए प्रशासनिक खर्च के रूप में करीब 50,000 करोड़ रूपये, डिटेंशन सेंटर के निर्माण और इसके रखरखाव के लिए तीन लाख करोड़ रूपये और लगभग 2 करोड़ अवैध प्रवासियों के भोजन के लिए लगभग 36 करोड़ रुपयों की जरुरत होगी । यह सभी खर्च आखिरकार जनता के टैक्स से ही वसूले जायेंगे, अब यदि इसमें ढुलकती अर्थव्यवस्था का सन्दर्भ जोड़ लिया जाय तो किसी भी तार्किक व्यक्ति को सिहरन ज़रुर होगा ।
इस दफ्तरशाही अक्षमता को सभी राजनीतिक दल, राजनीतिक लाभ के लिए अपने-अपने कुछ मिडिया समूहों के साथ अपने-अपने तरीकों से इसकी व्याख्या कर रहे हैं। यह स्थिति भारतीय नागरिक-समाज को लगातार असमंजस में डाल रहा ।
इसी बीच केंद्र की भाजपा सरकार ने नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 को कानून बनाकर देश के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है । यह क्या है, इसकी आवश्यकता अभी ही क्यों आन पड़ी, इसका NRC से क्या संबंध है और आखिर इसके लिए पूरे देश में कुछ लोग विरोध क्यों कर रहे हैं, यह विरोध-प्रदर्शन अब उग्र क्यों हो रहे हैं, लोग इस आलोक में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत क्यों हो रहे हैं, राज्यों की गैर-भाजपाई सरकारें इसके विरोध में क्यों हैं, आदि-आदि प्रश्नों को आइये समझते हैं।
भारत में, नागरिकता अधिनियम, 1955 के प्रावधान ही भारतीय नागरिकता के निर्णयन में प्रयुक्त होते हैं जिसमें वर्ष 1986, 1992, 2003, 2005, 2015 में विभिन्न संशोधन किये गए हैं । हालिया संशोधन 2019 में किया गया, जिसे ही हम नागरिकता संशोधन कानून, 2019 के नाम से जानते हैं जो कि आम बोलचाल में सीएए (Citizenship Amendment Act: CAA) के नाम से जाना जा रहा। अब जबकि देश भर में NRC की प्रक्रिया चलने को है जिसमें कि नागरिकों के प्रासंगिक जानकारियों को डिजिटल फॉर्मेट में सहेजा जाना है, लेकिन इसके पूर्व ही केंद्र सरकार ने CAA के माध्यम से नागरिकता के प्रावधानों में बदलाव कर दिया है ।
नागरिकता अर्जित करने के अन्य उपबंधों के अलावा देशीयकरण (naturalisation) की शर्त कहती है कि यदि कोई भारत में पिछले 12 वर्षों से रह रहा है (अन्य विशिष्ट शर्तों के साथ ) तो वह भारत की नागरिकता अर्जित कर सकता है । इसी प्रावधान में दो संशोधन करते हुए CAA, 2019 ने तीन पड़ोसी देशों (पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान एवं बांग्लादेश- देश जो सांविधानिक अथवा जनांकिक रूप से मुस्लिमबहुल राष्ट्र हैं) से आने वाले अवैध प्रवसन (मुस्लिम धर्म छोड़कर हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी एवं क्रिश्चियन) को भारतीय नागरिकता प्रदान करता है यदि वे 31 दिसंबर, 2014 के पहले भारत में आये हैं, साथ ही नागरिकता अर्जित करने के लिए उन्हें पूर्व की तरह 12 वर्षों की अवधि तक भारत में रहना सिद्ध नहीं करना है, यह अवधि इनके लिए केवल 6 वर्ष कर दी गयी है ।
पहली बार धार्मिक प्रताड़ना को आधार बनाकर नागरिकता प्रदान करने की बात की गई है । चूँकि धार्मिक प्रताड़ना (religious persecution) को आधार बनाकर केवल मुस्लिम अवैध प्रवसन को नागरिकता के अधिकार से वंचित किया जा रहा और जिन तीन पड़ोसी देशों को चुना गया है वे मुस्लिमबहुल राष्ट्र हैं तो ही इस कानून का विरोध धार्मिक विभाजन के आधार पर किया जा रहा । चूँकि इस विशेष संशोधन में धार्मिक आधार बनाने का ठीकरा गृहमंत्री अमित शाह ने नेहरु-लियाकत पैक्ट पर फोड़ा है तो उसका सन्दर्भ समझ लेते हैं l विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा एवं उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए दिल्ली में 1950 में एक समझौता किया गया।
इस समझौते के विषयवस्तु एवं उद्देश्य में कहीं कोई खोट नहीं है लेकिन यह सच है कि इस समझौते के बाद भी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के हालात में कोई सुधार नहीं हुआ । यह स्थिति नेहरु-लियाकत पैक्ट के बिना भी होती ही, इसमें कोई संदेह नहीं है।अब इस पैक्ट को सहसा आधार बनाकर नागरिकता संशोधन में धार्मिक आधार पर छूट देने की कवायद एक लिजलिजे तर्क पर आधारित है। आधार यदि नेहरु-लियाकत पैक्ट है तो अफगानिस्तान से आये अवैध प्रवसन को क्यूँ इसमें शामिल किया जा रहा और यदि आधार धार्मिक प्रताड़ना का है तो श्रीलंका, भूटान, म्यांमार आदि देशों के अवैध प्रवसन को नागरिकता से वंचित क्यूँ किया जा रहा ।
प्रश्न यह भी है कि इस संशोधन की जो कट ऑफ तारीख है- 31 दिसंबर, 2014, उसका आधार क्या है, इसके पहले के सभी संशोधनों की कट ऑफ तारीखों का एक तर्कसम्मत आधार रहा है l क्या सिर्फ यही आधार है कि 2014 में भाजपा की सरकार आ गयी?
NRC की प्रक्रिया में कोई नीतिगत भेदभाव नहीं है, लेकिन CAA, मुस्लिम अवैध प्रवसन के अलावा लगभग शेष सभी प्रमुख धर्मों (हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी एवं इसाई) के भारत में अवैध प्रवसन को नागरिकता प्रावधानों में छूट देता है । देशव्यापी NRC के ठीक पहले CAA, अधिकांश धार्मिक अवैध प्रवसन को (बस मुस्लिम अवैध प्रवसन को छोड़कर) निर्णायक छूट देकर अवैध प्रवसन को वैधता प्रदान कर रहा है; विवाद की जड़ यहाँ है । इसके पहले कभी धर्म के आधार नागरिकता क़ानूनों में संशोधन इसप्रकार नहीं हुआ है कि किसी एक धर्म को नागरिकता लाभ से वंचित किया गया हो, इसलिए यह अभूतपूर्व है ।
यह सच है कि देश के अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों की नागरिकता पर NRC और CAA से कोई आंच नहीं आने वाली, बल्कि सच यह है कि NRC प्रक्रिया में एक सामान्य जाँच पड़ताल (अगर दफ्तरशाही, उसे सामान्य रहने देती है तो-असम NRC प्रक्रिया के बाद तो इसकी आशा करना लगभग साहसिक है ) से सभी को गुजरना होगा, इसमें धार्मिक आधार पर कोई प्रावधान नहीं है । लेकिन कुछ प्रश्न यहीं से उभरते हैं जो मानो जानबूझकर विपक्ष के द्वारा उसी शिद्दत से पूछे नहीं जा रहे और सत्ता पक्ष उनके जवाब नहीं दे रहा ताकि इस तात्कालिक उहापोह से उपजे ध्रुवीकरण का राजनीतिक लाभ दोनों पक्षों द्वारा लिया जा सके ।
- यह पहली बार है जब धार्मिक प्रताड़ना को आधार बनाया गया है, प्रताड़ना के सभी अन्य आधारों को क्यों छोड़ा गया है ?
- यदि धार्मिक प्रताड़ना को आधार बनाया ही गया है तो केवल छः धर्मों के अवैध प्रवासियों की प्रताड़ना को ही महत्त्व क्यों?
- पड़ोसी देशों में से केवल तीन ही ऐसे देश क्यों चुने गए, जो कि मुस्लिम बहुल राष्ट्र हैं, क्या इसलिए ताकि CAA द्वारा केवल मुस्लिम अवैध प्रवासियों को छूट से वंचित किया जा सके ?
- क्या देश की सुरक्षा के लिए केवल मुस्लिम अवैध प्रवसन को संज्ञान में लिया जायेगा ?
- क्या आतंकवाद का कोई एक धर्म होता है ?
- क्या छूट में लिए गए धर्मों से संबंधित व्यक्तियों के आतंकवाद संबंधी संलिप्तता के वैश्विक उदाहरण नहीं हैं ?
- क्या जिन धर्मों के अवैध प्रवसन को छूट देकर छः साल के समय पश्चात् ही नागरिकता देने की वकालत की गयी है, क्या यह एक प्रकार से अवैध प्रवसन की प्रक्रिया को वैधता देना नहीं है ?
- क्या भारत के अपने नागरिकों को राज्य की सेवाएं समुचित मिल पा रही हैं कि सरकार छः धर्मों के इन अवैध प्रवासियों को पूर्ण नागरिकता प्रदान कर इनके मौलिक अधिकारों के निष्पादन में भारतीय संसाधन खर्च करने को उत्सुक है ?
- क्या भारत की मौजूदा अर्थव्यवस्था एवं रोजगार के आंकड़े इसकी मंजूरी देते हैं कि हम यह बोझ नियमित करें ?
- क्या यह असम एकोर्ड का सरासर उल्लंघन नहीं है जिसमें कट आफ तारीख 24 मार्च 1971 रही थी और अब यह सहसा 31 दिसंबर 2014 कर दी गयी है (कुछ ट्राइबल क्षेत्रों को छोड़कर ) ?
- क्या यह उन 900 से अधिक हुए बलिदानों का अपमान नहीं है, जिनके बाद असम एकोर्ड हुआ और कट ऑफ तारीख 24 मार्च 1971 रखी गयी थी ?
- अब बस मुस्लिमों को छोड़कर बाकि छः धर्मों के 31 दिसम्बर 2014 तक के अवैध प्रवसन को पूर्ण नागरिकता प्रदान कर दी जाएगी तो असमी संस्कृति की चिंताओं का क्या होगा ? असम में सर्बानन्द सोनोवाल की व्यक्तिगत निष्ठा अब दांव पर है।
अभी अमेरिका के निचले सदन में डेमोकेट सांसद प्रमिला जयपाल एक रिजोल्युशन लेकर आई थीं जिसमें भारत के कश्मीर सम्बन्धी रोकों और बंद की कड़े शब्दों में आलोचना की गयी थी । कश्मीर को लेकर भारत पहले ही वैश्विक मीडिया के घेरे में हैं । फिर भारत के अपने पड़ोसियों से संबंध यों भी बहुत उत्साहजनक नहीं है ।
बांग्लादेश से संबंध बेहतर रहे हैं लेकिन अब इस CAA से अपरोक्ष रूप से हम पाकिस्तान, अफग़ानिस्तान और बांग्लादेश पर सीधा ही धार्मिक प्रताड़ना का आरोप लगा रहे हैं । अवैध प्रवसन का मुद्दा, भारत-बांग्लादेश संबंधों में यों भी एक गर्म मुद्दा है, ऐसे में क्या हम अपनी विदेश नीति पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर गंभीर एवं सजग हैं ?
किसी देश की कल्पना भी असंभव है यदि उस देश में नागरिक न हों । प्रत्येक देश अपने इतिहास, समाज और भूगोल के कारकों के हिसाब से अपने देश की नागरिकता की परिभाषा गढ़ता है और अपने संविधान में उसे उकेरता है। राष्ट्र अपने नागरिकों से ही बनता है और नागरिकों के लिए उसकी समूची सक्रियता होती है जिसे ही हम ‘राष्ट्रहित’ कहते हैं । दुनिया भर के संविधानों में नागरिकता के लिए दो आधार तर्क बनते हैं: जन्म स्थान के आधार पर (jus soli) एवं रक्त आधार पर (jus sanguinis)।
भारत की संविधान सभा ने आधुनिक राजनीतिक विकास एवं सहिष्णु लोकतांत्रिक विकास को वरीयता देते हुए उदात्त आधार ‘जन्मस्थान’ को चुना एवं ‘रक्त आधार’ को वरीयता नहीं दी । यहीं; यह समझने की आवश्यकता है कि भारत को आज़ादी एक असाधारण परिस्थिति में मिली और धार्मिक विभाजन की त्रासदी ने इसे पूरा झिंझोड़ ही दिया था ।
भारत की संविधान सभा ने अपने समय-काल-परिस्थिति को समझा और आधुनिक राजनीतिक विकास को भी गले लगाते हुए भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया । भारतीय ऐतिहासिक परम्परा एवं गांधीवादी मूल्यों ने भारतीय राज्य के लिए धर्म को अछूत नहीं बनने दिया अपितु सर्वधर्म समभाव (equidistance) की सदाकांक्षा ने सेकुलरिज्म के अनूठे संस्करण को अपनाया। भारतीय पुरोधाओं की आशाएं असाधारण रूप से आधुनिक थीं और आने वाली संततियों पर उनके अनन्य विश्वास को देखकर विस्मय होता है। विभाजन के वक्त भी लोग थे जो अतिवादी मुस्लिम या अतिवादी हिन्दू थे।
पाकिस्तान बनने के बाद यह सबसे सरल मार्ग था कि भारत को हिन्दू राष्ट्र पथ पर सरका दिया जाय l लेकिन इसका अर्थ यह भी होता कि अंततः हम औपनिवेशिक विष से कभी उबर न सके, भारत के मध्यकालीन इतिहास के स्याह पक्ष को तो हम विरासत में स्थान दे रहे पर उसके उजले पक्ष को पूरी तरह अस्वीकार्य कर रहे। फिर राज्यतंत्र या तानाशाही, ऐतिहासिक बदले ले सकते हैं लेकिन लोकतंत्र उर्ध्वगामी होता है, वह अतीत की ज्यादतियों को दुहराता नहीं, उनसे सीखते हुए नयी इबारत लिखता है ।
सौभाग्यशाली हैं हम कि हमें ऐसे संवेदनशील, आधुनिक पुरखे मिले जिन्होंने एक ऐसे आधुनिक भारत की नींव रखी जिसमें भरसक औपनिवेशिक कुप्रभावों को मिटाया जा सके और नए न्यायपूर्ण आधुनिक राष्ट्र को खड़ा किया जा सके।
CAA को जिसप्रकार से डिजाइन किया गया है वह इस महान भावना को चोट पहुंचाता है। इसके दूरगामी खतरे हो सकते क्योंकि यह देश के अल्पसंख्यकों में बेजा की असुरक्षा पनपाता है खासकर तब जबकि सरकार अफवाहों से निपट नहीं पा रही, प्रदर्शनों का केवल दमन कर रही और विपक्ष केवल इसे एक मौके की तरह देख रहा।