प्रीति सिंह
जितना काम पांच साल में हुआ उतना 60 साल में नहीं हुआ। काम बोलता है। हमारे सरकार में दलितों का स्थिति सुधरी है। यूपीए सरकार की देन है कि देश के हर नागरिक के हाथ में मोबाइल इंटरनेट है। ऐसे तमाम बातें देश के नेता जनता से संवाद करते वक्त बोलते हैं। सभी अपनी उपलब्धियां गिनाते हैं और इन उपलब्धियों को जनता तक पहुंचाने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करने से भी परहेज भी नहीं करते।
चुनावों में पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। यहां सवाल उठता है कि जब सरकार काम कर रही है और जनता को इसका लाभ मिल रहा है, देश विकास की ओर अग्रसर है तो फिर इन उपलब्धियों को बताने के लिए अरबों रुपए बर्बाद करने जरूरत क्यों पड़ रही है। फिलहाल चुनावों में जिस तरह धन बल का प्रयोग हो रहा है वह न तो देश के लिए ठीक है और न ही जनता के लिए।
पिछले दिनों ‘फेसबुक वीकली एंड लाइब्रेरी डेटा’ की एक रिपोर्ट जारी हुई थी, जिसमें बताया गया था कि फेसबुक विज्ञापनों पर बीजेपी और उसके सहयोगियों ने फरवरी में 2.37 करोड़ रुपये खर्च किए।
दो सप्ताह के भीतर विज्ञापनों में निवेश करने में शीर्ष 20 फेसबुक पेजों का योगदान 1.90 करोड़ रुपए से ज्यादा का है। इसमें भाजपा समर्थक पेजों ने ही 1.5 करोड़ रुपए से अधिक खर्च किया है। ये तो हो गया सोशल मीडिया पर खर्च और वह भी चुनाव से पहले। अभी तो पूरा चुनाव पड़ा है।
लोकतंत्र और चुनाव धन का बंधक बन गया है। चुनाव प्रणाली धन पर आश्रित हो गई है और राजनीतिक दलों के खर्च की कोई सीमा नहीं है। चुनाव की फंडिंग में पारदर्शिता लाने के लिए प्रबल चुनाव सुधार की सख्त जरूरत है। चुनाव में बीजेपी द्वारा पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। आम चुनाव-2019 में बीजेपी 90,000 करोड़ रुपये खर्च करेगी। अनुमान है कि लोकसभा चुनाव-2019 में एक लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे, जिसका 90 फीसदी हिस्सा भाजपा खर्च करेगी। – प्रशांत भूषण (जाने माने वकील व सामाजिक कार्यकर्ता)
समाजशास्त्री डा. शफीक अहमद का कहना है कि जब सरकार को लगता है कि उसने बहुत काम किया है तो फिर उसे डर किस बात का है। उनके सांसदों ने जनता की समस्याओं का निस्तारण किया है और वह पांच साल जनता की सेवा में जुटे रहे हैं तो उन्हें प्रचार-प्रसार पर इतना खर्च करने की जरूरत नहीं। राजनीतिक दल असलियत से वाकिफ हैं। उन्हें अच्छे से पता है कि बाजारीकरण के दौर में जो दिखता है वहीं बिकता है।
चुनाव में धन बल के इस्तेमाल पर लंबे समय से उठ रहा सवाल
देश में चुनाव प्रचार अभियान पर बड़ी मात्रा में धनबल के इस्तेमाल को लेकर लगातार सवाल उठाए जाते रहे हैं। माना जाता है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में भी इसकी वजह से सभी उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में बराबरी का मौका नहीं मिल पाता है। साथ ही, इससे चुनाव में भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए ही उम्मीदवारों के लिए चुनावी खर्च की सीमा तय की गई है।
लोक सभा चुनाव में कोई उम्मीदवार 70 लाख रुपये तक खर्च कर सकता है। वहीं, विधानसभा चुनाव के लिए यह सीमा 28 लाख रुपये तय की गई है। कुछ सीटों, जिनमें अधिकांश पूर्वोत्तर के राज्यों में स्थित हैं, के लिए यह रकम क्रमश: 50 लाख रु और 20 लाख रुपये है, लेकिन, उम्मीदवारों की तरह राजनीतिक दलों के लिए इस तरह की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है।
2014 का आम चुनाव था देश का सबसे महंगा चुनाव
इससे पहले 2014 के आम चुनाव को भी देश का अब तक का सबसे महंगा चुनाव बताया गया था। उस चुनाव में भाजपा ने अकेले ढाई महीनों के अभियान के दौरान 712 करोड़ रु खर्च कर डाले थे. वहीं, कांग्रेस के लिए यह आंकड़ा 486 करोड़ रुपये था। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने 2014 के लोकसभा चुनाव और आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम विधानसभा चुनाव में जो पैसे खर्च किए वह राकांपा (51 करोड़ रुपये से अधिक) और बसपा (30 करोड़ रुपये) जैसे मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दलों से बहुत अधिक था।