सुरेंद्र दुबे
आखिर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह कह कर कि वह भारत और पाकिस्तान के बीच विवादों के निपटारे के लिए भारत की इच्छा के अनुरूप मध्यस्थ की भूमिका निभाने को तैयार हैं, चीन को भी मध्यस्थ जैसी भूमिका निभाने के लिए उकसा दिया है। भारत ने लाख सफाई दी कि उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कभी-भी अमेरिका को भारत-पाकिस्तान मसले पर मध्यस्थ बनने का न्यौता नहीं दिया। परंतु संदेह ज्यों का त्यों बना हुआ है। चीन की भी लार टपक रही है कि वह भी भारत-पाकिस्तान के बीच एक मध्यस्थ की भूमिका निभाए। ताकि वह पाकिस्तान के मामले में अमेरिका के समकक्ष दादागिरी कर सके।
अभी अमेरिका का प्रकरण शांत भी नहीं हुआ था कि चीन ने भी बड़े भाई की भूमिका निभाना शुरू कर दिया। चीन ने शुक्रवार को कहा कि भारत और पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दे सहित अन्य मामलों का समाधान शांतिपूर्वक वार्ता के जरिए करना चाहिए। उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच अच्छे संबंधों के लिए प्रयास किए जाने के अमेरिका सहित अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन किया। चीन की यह प्रतिक्रिया कश्मीर मुद्दे पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सोमवार को दी गई प्रतिक्रिया के बाद आयी है। लगता है चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को गुजरात में साबरमती नदी के किनारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ झूला झूलने की याद आ गई है।
ट्रंप के बयान को लेकर भारत की संसद में भी जमकर हंगामा हुआ था और विदेश मंत्री एस जयशंकर ने मध्यस्था के किसी प्रस्ताव का खंडन किया था, परंतु इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुप्पी साधे हुए हैं। केंद्र सरकार के तमाम मंत्रियों ने तरह-तरह के खंडन किये और यहां तक कि अमेरिका की ओर से भी इस तरह की खबरों का खंडन किया गया, पर मूल मुद्दा यह है कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति यह कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं उनसे मध्यस्थ बनने को कहा था तो खंडन भी प्रधानमंत्री के स्तर से ही आना चाहिए था।
अब न तो डोनाल्ड ट्रंप अपने दावे को दोहरा रहे हैं और न हीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं आकर इस बात का खंडन कर रहे हैं कि उन्होंने कभी मध्यस्थ बनने का प्रस्ताव दिया था। कूटनीतिक जानकारों का मानना है कि नरेंद्र मोदी स्वयं इस बात का खंडन इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि वह ट्रंप की बातों का खंडन कर उन्हें नाराज नहीं करना चाहते हैं। वह ट्रंप का इस्तेमाल पाकिस्तान पर लगातार दबाव बनाए रखने के लिए करना चाहते हैं। ऐसा उन्होंने पुलवामा कांड के बाद भी किया था, जिसके अच्छे परिणाम निकले और बालाकोट पर एयरस्ट्राइक जैसी घटना पर भारत को अमेरिका का खुला समर्थन प्राप्त हुआ था।
आपको याद होगा कि जब 22 जुलाई को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान अपने सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा और इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस यानि आईएसआई (ISI) के महानिदेशक फ़ैज़ हमी के साथ अमेरिका पहुंचे तो भारत को ये लगा कि अब पाकिस्तान पूरी तरह अमेरिका के दबाव में आ गया है और भारत को पाकिस्तान समर्थित आतंकी घटनाओं पर नियंत्रण करवाने में मदद मिलेगी, जिसकी वजह से कश्मीर लगातार आतंकवाद व उग्रवाद का अड्डा बना हुआ है।
अमेरिका में जिस तरह से इमरान खान को घटिया दर्जे की मेहमान नवाजी अता की गई, उससे इन खबरों को बल मिला कि वाकई इमरान खान बहुत घबराए हुए हैं। इसलिए हर बेइज्जती को बर्दाश्त कर ट्रंप हुजूर के सामने माफी मांगने के लिए आए हुए हैं, क्योंकि पाकिस्तान जिस आर्थिक संकट से गुजर रहा है उसमें अमेरिका की मदद हर कीमत पर चाहिए ही चाहिए। भारत को ये उम्मीद थी कि अमेरिका भारत में हो रहे आतंकी हमलों के लिए इमरान खान को जमकर फटकार लगाएगा और हो सकता है कि मुंबई के 26/11 के हमले के दोषी हाफिज सईद को भारत को सौंपने जैसी सलाह भी दे दे।
परंतु इमरान खान ने एक शातिराना चाल चलते हुए ये खुलासा कर दिया कि पाकिस्तान में इस समय लगभग 40 हजार आतंकवादी सक्रिय हैं, जिसके लिए पूर्व की सरकारें जिम्मेदार हैं। पाकिस्तान ने तो पुलवामा कांड को भी स्वीकार किया। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को लगा कि इमरान ने पाकिस्तान को पूरी तरह नंगा कर दिया है, परंतु मेरा मानना है कि इमरान खान ने ये रहस्योद्घाटन कर अमेरिका के सामने स्पष्ट किया कि पाकिस्तान से आतंकी घटनाओं का रोका जाना इतना आसान नहीं है जितना भारत समझता है।
आतंवादियों के समर्थन से ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने इमरान खान अमेरिका को यह झूठ बताने में भी कामयाब रहे कि उनकी सरकार आतंकवादियों के खिलाफ कड़े कदम उठा रही है तथा हाफिज सईद जैसे खूंखार आतंकवादियों को इनके साथियों सहित जेल में डालना इसका सबूत है। पुलवामा कांड के मास्टरमाइंड अजहर मसूद पर तो कोई चर्चा ही नहीं हुई, जो हमारा सबसे ताजा वांछित अपराधी है।
दूसरा खेल डोनाल्ड ट्रंप ने यह कहकर कर दिया कि नरेंद्र मोदी ने उनसे भारत-पाक मसले पर मध्यस्थ बनने का प्रस्ताव रखा है, यह सुनकर इमरान की तो बांछे खिल गई। वह अपना सारा अपमान भूल गए। उन्हें लगा कि अगर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की भूमिका में अमेरिका आ जाए तो ये भारत की एक बड़ी कूटनीतिक हार होगी। ठीक भी है, भारत ने कभी-भी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता स्वीकार नहीं की और हमेशा द्विपक्षीय बातचीत से समस्या का हल करने की वकालत की। इसके लिए शिमला समझौता व लाहौर घोषणा पत्र की हर बार चर्चा की गई।
ट्रंप के इस बयान ने सारी रामलीला ही बदल दी। भारत और अमेरिका मध्यस्थता वाले मुद्दे पर सफाई देने में फंस गए। इमरान की इससे बढ़िया अमेरिकी यात्रा क्या हो सकती थी, जहां वो आए थे इमदाद लेने और इमदाद के साथ ही साथ मध्यस्थता की जकात पाकर निहाल हो गए। चीन को भी आखिर पाकिस्तान की बड़ी चिंता है। उसने खरबों डॉलर वहां चीन-पाक आर्थिक गलियारे के निर्माण में लगा रखे हैं। खरबों डॉलर कर्ज दे रखा है। चीन के लिए इससे अच्छा क्या हो सकता है कि भारत मध्यस्थता की बात स्वीकार कर ले। अगर ऐसा होता है जिसके लिए भारत कभी तैयार नहीं होगा, तो आगे पीछे तो उसे दादागिरी का मौका तो मिलेगा ही। मुझे लगता है कि नई परिस्थितियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोई नई कूटनीतिक व्यूह रचना करनी चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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