सुरेंद्र दुबे
उत्तर प्रदेश में भी अब नागरिकता का जिन्न बाहर निकल सकता है। अभी तक उत्तर प्रदेश में रहने वालों को विभिन्न प्रकार की नौकरियों में सिर्फ ये सिद्ध करना होता था कि वे उत्तर प्रदेश में ही पैदा हुए हैं इसलिए उत्तर प्रदेश के नागरिक हैं।
परंतु उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने स्वयं कहा है कि उत्तर प्रदेश में भी नागरिकता रजिस्टर का नियम लागू हो सकता है इसलिए ये मान लेने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि उत्तर प्रदेश के लोगों को भी यह सिद्ध करना पड़ेगा कि वे इस देश के नागरिक हैं।
नागरिकता का ये जिन्न असम से बाहर आया था जहां बड़ी तादाद में बंगलादेशी और रोहिंग्या मुस्लिम नागरिक आकर बस गये हैं, जिसका सरकारों ने जमकर वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया। अब भाजपा सरकार को लगता है कि इन घुसपैठियों को देश से बाहर निकल कर फेंक दिया जाए तो वोट बैंक का संतुलन उनके पक्ष में हो जाएगा।
असम में बांग्लादेश से आए घुसपैठियों पर बवाल के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी अपडेट करने को कहा था। पहला रजिस्टर 1951 में जारी हुआ था। ये रजिस्टर असम का निवासी होने का सर्टिफिकेट है। इस मुद्दे पर असम में कई बड़े और हिंसक आंदोलन हुए हैं।
1947 में बंटवारे के बाद असम के लोगों का पूर्वी पाकिस्तान में आना-जाना जारी रहा। 1979 में असम में घुसपैठियों के खिलाफ ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन ने आंदोलन किया। इसके बाद 1985 को तब की केंद्र में राजीव गांधी सरकार ने असम गण परिषद से समझौता किया। इसके तहत 1971 से पहले जो भी बांग्लादेशी असम में घुसे हैं, उन्हें भारत की नागरिकता दी जाएगी।
पहले महाराष्ट्र फिर उत्तराखंड और अब उत्तर प्रदेश में नागरिकता रजिस्टर बनाए जाने का तराना छेड़ दिया गया है। जो आगे चलकर एक चुनावी मुद्दा बन सकता है। भला कौन कहेगा कि विदेशी घुसपैठिये को इस देश का नागरिक माना जाए। तो इस पर फिर जमकर राजनीति भी होगी। हिन्दू–मुस्लिम के नाम पर तर्क-वितर्क भी चलेंगे।
उत्तर प्रदेश की आबादी साढ़े बाइस करोड़ से अधिक है, जिसमें बांगलादेशी घुसपैठियों की संख्या नगण्य होंगी। अधिकांश कार्यदायी निजी संस्थाएं श्रामिकों के रूप में इन लोगों का इस्तेमाल करती हैं। ये बात सरकार को पता है। पर राजनीति करने के लिए अगर नागरिकता को ही मुद्दा बनाया जाए तो इसमें भाजपा कोई फायदा नजर आ रहा है।
अब अगर उत्तर प्रदेश में नागरिकता तय करने के लिए कोई वर्ष तय किया जाता है तो यह वर्ष तय करना सरकार के लिए काफी टेढ़ी खीर होगी। क्योंकि यहां नागरिकता के नाम पर कभी कोई विवाद नहीं रहा। विवाद बनाने में क्या जाता है। सरकार यह देखेगी कि किस वर्ष सीमा को नागरिकता का आधार बनाया जाए, जिससे अधिक से अधिक राजनैतिक लाभ हो सके।
अभी तक हम सिर्फ पैन कार्ड, आधार कार्ड व वोटर कार्ड को ही अपने नागरिक होने का एक प्रमाण पत्र समझते रहें हैं। पर अब ऐसी स्थिति आ सकती है जब हमें अपना खानदानी शिजरा पेश कर ये बताना पड़े कि हम कई पीढि़यों से उत्तर प्रदेश में ही रह रहे हैं और यहां के नागरिक हैं।
हो सकता है हमें अपने पैन कार्ड, आधार कार्ड और वोटर कार्ड नए सिरे से बनवाना पड़े, जिससे तमाम तरह की दिक्कतें पैदा होंगी। परंतु कम से कम रोजगार जरूर बढ़ेगा। आर्थिक मंदी से निकलने का ये एक बहुत बड़ा फॉर्मूला हो सकता है। हो सकता है यही सोच कर सरकार नागरिकता का जिन्न बोतल से बाहर निकालना चाहती है। कम से कम इससे हम शिक्षा, बेरोजगारी, किसानों की खस्ताहालत और देश में व्याप्त जल संकट जैसे तमाम फिजूल के मसलों पर चिंता करने से बच जाएंगे।
पहले यह तय हो जाए कि उत्तर प्रदेश के कितने निवासी असल में भारतीय नागरिक हैं। फिर जब यह तय हो जाएगा तब नागरिकों को उनके मूलभूत अधिकारों, रोजी-रोटी और स्वच्छ पर्यावरण पर बहस करते अच्छा लगेगा। पूरानी सरकारों ने कभी इस मूलभूत समस्या के महत्व को समझा ही नहीं और बिला वजह प्रदेश के विकास और समृद्धि की योजनाएं बनाते रहे। नए शासकों को यह इल्म हुआ है सो वे नागरिकता का जिन्न बाहर निकालने के लिए तत्पर दिखाई दे रहें हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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