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बिहार में 1990 के दशक में मुख्यमंत्री लालू यादव ने चरवाहा विद्यालय की शुरुआत की थी। बिहार के सुदूर गांवों में खुले इन स्कूलों के पीछे सरकार की सोच थी कि गांव-देहात के जो बच्चे आर्थिक कमजोरी के कारण स्कूल नहीं जा पाते हैं, इसके बजाये उन्हें पशुओं की चरवाही करनी पड़ती है, स्कूलों को ही उनके नजदीक पहुंचाया जाए। गरीबों के बच्चों को शिक्षित करने की पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की यह पहल न सिर्फ बिहार बल्कि देश-दुनिया में चर्चित हुई थी।
शुरुआत में इन स्कूलों की काफी वाहवाही हुई, मगर बाद के दिनों में बिहार सरकार की इस योजना ने दम तोड़ दिया। पिछले दो दशकों में चरवाहा विद्यालय का आधारभूत ढांचा जर्जर हो गया। एक ग्रामीण ने बताया कि चरवाहा विद्यालय शुरूआती एक-दो साल तो खूब चला लेकिन कुछ समय के बाद पहले शिक्षकों ने आना बंद कर दिया और उसके बाद बच्चों ने भी आना बंद कर दिया।
बता दें कि एक समय था जब यह विद्यालय दिनभर छात्रों की भीड़ से गुलजार होते थे। इलाके के चरवाहे अपने मवेशी लेकर आते और उन्हें विद्यालय परिसर में चरने को छोड़ देते फिर विद्यालय में मौजूद शिक्षक उन बच्चों को पढ़ाते-लिखाते। शाम को जब यह चरवाहे घर लौटते तो चारा भी करके ले जाते थे। इस तरह उन्हें अपने काम के साथ शिक्षा का अवसर मिल जाता। इन विद्यालय में महिलाऐं भी पापड़, आचार और अन्य उत्पाद बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करती थीं।
एक शिक्षाविद् ने बताया कि चरवाहा विद्यालय के विचार में श्रम की प्रतिष्ठा थी, वैज्ञानिकता थी और रोजगार से शिक्षा की तरफ जाने की सोच थी लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक कारणों से ये सफल ना हो सका। बता दें कि चरवाहा विद्यालय को चलाने की जि