चेतन गुरुंग
मीडिया और गाहे-बागाहे के ये फुसफुसाहट और दबा-दबा शोर उत्पन्न करते रहते हैं कि अब सरकार में नेतृत्व परिवर्तन हो के रहेगा। उत्तराखंड बीजेपी में हवा के झोंके सूखे पत्तों और शाखाओं को मद्धिम अंदाज में हिला अभी नहीं तो तब होगा। फिर बात यहाँ तक भी कई बार पहुँच जाती है कि यार कब तक होगा। खाली वक्त गुजारने या बातचीत शुरू करने के लिए हर पार्टी की सरकार में सबसे बेहतर और दिलचस्प विषय यही रहा है।
उत्तराखंड को अस्तित्व में आए दो दशक पूरे हो चुके हैं। जब-जब मुख्यमंत्री किसी भी पार्टी की सरकार में बदले गए, चुनाव के नतीजे वही रहे, जिसकी आशंका में इतने बड़े कदम उठाए गए। ये ठप्पा पार्टी पर अलग लगा कि मुखिया बदल के उसने मान लिया कि सरकार निठल्ले ढंग से चली। एनडी तिवारी की अगुवाई वाली काँग्रेस सरकार को छोड़ दें। तिवारी के पास सरकार चलाने की बेशुमार काबिलियत-अनुभव का लबालब सागर था। उनको उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाए रखना उस वक्त के दिल्ली में बैठे काँग्रेस सूरमाओं की मजबूरी थी।
वे तिवारी सरीखे बड़े कद और वजन के नेता को दिल्ली के करीब देखना नापसंद करते थे। उनको खुद के सियासी भविष्य के तौर पर घातक मानते थे। उनके लिए उत्तराखंड का सीएम बना के तिवारी को दिल्ली से दूर रखना ही बहुत बड़ी रणनीतिक फतह और सूझ-बूझ थी। ये कुछ वैसा ही था कि बच्चा स्पेनिश गिटार मांगे और बाप उसके हाथ में गाँव के मेले से लाया झुनझुना थमा दे। तिवारी अकेले ऐसे मुख्यमंत्री रहे,जिन्होंने कार्यकाल पूरा किया। उनकी जगह दूसरा होता तो कभी का बीच में कुर्सी छोड़ के खुद ही निकल लेते या फिर सत्ताच्युत हो जाते।
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इसमें शक नहीं कि उन्होंने काँटों का ताज पहन के नुकीले सिंहासन पर बैठ के पाँच साल पूरे किए। एकदम विपरीत हालात में। मिली-जुली सरकार चलाने का लाजवाब गुर उनके अलावा शायद ही कोई और जान सकता था। उनसे पहले बीजेपी की अन्तरिम सरकार का हाल सभी के सामने था। अन्तरिम मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी को चुनाव से कुछ अरसा पहले हटा दिया गया था। बेहद शक्तिशाली और लोकप्रिय भगत सिंह कोश्यारी (इन दिनों महाराष्ट्र-गोवा के राज्यपाल) को उनकी जगह लाया गया था। अंदरूनी सियासत और एक-दूसरे को निबटाने की साज़िशों ने पहले ही विधानसभा चुनाव में उस बीजेपी को निबटा दिया, जिसने उत्तरांचल (तब यही नाम था) राज्य की सौगात दी थी।
पार्टी आला कमान को उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री बदलने से जीत का रास्ता सुनिश्चित होगा। फिर आया 2007 का विधानसभा चुनाव। चुनाव जीतने के बाद बीजेपी ने बीसी खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बनाया था। बेशक उस दौर में उनको अनुभव और छवि के मद्देनजर पार्टी का सबसे बेहतरीन प्रशासक माना जा रहा था। खंडूड़ी के खिलाफ गृह युद्ध हो गया। उनको हटा के डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक (इन दिनों केंद्रीय शिक्षा मंत्री) को सीएम बनाया गया। उम्मीद-आसार तो ये थे कि कोश्यारी आएंगे। शायद निशंक की सियासी चालों को वह भाँप नहीं पाए।
गज़ब तो तब हुआ जब निशंक को अंत्योदय यात्रा के दिन अचानक खबर मिली कि उनकी छुट्टी कर दी गई है। जिस खंडूड़ी को हटा के उनको लाया गया था, वही फिर वापिस सरकार के मुखिया बन गए। स्वच्छ और सफल सरकार देने के वादे के साथ। विधानसभा चुनाव को तब सिर्फ 6 महीने रह गए थे। इससे सिर्फ ये हुआ कि अंदरूनी सियासी जंग बहुत तेज हो गई। खुद खंडूड़ी चुनाव में बुरी तरह निपट लिए। सच तो ये है कि साथ वालों ने ही निपटा दिया। उत्तराखंड सियासत की नई पटकथा सिर्फ इसलिए नहीं लिख पाई कि खुद वह शख्स ही चुनाव में शिकस्त खा गया, जिसके नाम पर चुनावी समर लड़ा गया।
अधिकांश को याद होगा। बीजेपी सिर्फ एक सीट से सरकार बना नहीं पाई थी। उस दौर में मोदी-शाह की जोड़ी बीजेपी में शीर्ष पर होती तो उत्तराखंड में सरकार काँग्रेस की शायद ही बनती। सरकार पलटने और दूर-दूर तक बहुमत न होने के बावजूद सरकार बनाने की सिद्धहस्त इस जोड़ी के लिए उत्तराखंड में सरकार बनाना उस सूरत में बाएँ हाथ का खेल होता। अब आइये काँग्रेस पर। 2012 का विधानसभा चुनाव जैसे-तैसे फतह कर उसने सरकार बना ही ली। अचानक मुख्यमंत्री बन के विजय बहुगुणा ने सभी को चौंका डाला। साथ ही हरीश रावत के उस अरमान पर भी घड़ों पानी फेर डाला, जो उन्होंने साल 2002 से देखे थे।
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तब तिवारी उनके सपनों को तोड़ गए थे। बहुगुणा को ले के काँग्रेस और जनमानस में विरोधी माहौल बनाने में बीजेपी के साथ ही खुद काँग्रेस के कई सिपहसालार शामिल थे। कोढ़ पर खाज साबित हुआ केदारनाथ आपदा के दौरान हुए निर्माण कार्यों में भ्रष्टाचार के तमाम आरोप। उनकी छुट्टी हुई। आखिर हरीश मुख्यमंत्री बने। जो लोकप्रिय और जमीन से जुड़े माने जाते थे। काँग्रेस आला कमान को यकीन था कि हरीश की अगुवाई में विधानसभा चुनाव की बाजी वही मारेगी। घपले-घोटालों और स्टिंग ऑपरेशन के विवादों के बाद उत्तराखंड की जंग काँग्रेस बुरी तरह हार गई।
एक बार फिर साबित हो गया कि नेतृत्व परिवर्तन समस्या का समाधान नहीं है। समस्या-संकट के लिए खाद-पानी भर है। 20 साल में इतनी सारी मिसालें सामने आ चुकी हैं। बीजेपी और मीडिया में त्रिवेन्द्र सिंह रावत को ले के भी ये आतिशबाज़ी लगातार होती रहती है कि उनकी चला-चली की बेला आ गई है। बारी-बारी से नाम भी उनके विकल्प के तौर पर चलाए जाते रहे। प्रकाश पंत (अब मरहूम) से ले के अजय भट्ट, अनिल बालूनी (राज्यसभा सांसद), सतपाल महाराज तथा सुरेश भट्ट (हाल ही में बीजेपी के प्रदेश महामंत्री बने) तक के नाम उछले। दावे कई बार ऐसे भी हुए कि बस अब 10 दिन और है। फिर फलाना मुख्यमंत्री।
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सियासत के खेल में कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता। फिर भी दो पहलुओं पर गौर करें। क्या बीजेपी आला कमान (मतलब मोदी-शाह) खुद के बिठाए मुख्यमंत्री को कार्यकाल पूरा होने से पहले हटा के खुद के चयन को खुद ही इतने साल बाद गलत मानने का जोखिम लेंगे? दूसरा ये कि क्या वे उत्तराखंड में मुख्यमंत्री को हटाने के बाद सामने आए चुनावी नतीजों के इतिहास को भी ध्यान में नहीं रखेंगे? सियासी चर्चा और विश्लेषण करने में हर्ज नहीं है, लेकिन कई बार तथ्यों और अनेक पहलुओं की भूमिका ऐसे मामलों में अहम हो जाती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)