जुबिली न्यूज़ डेस्क
आज 23 जुलाई है। आज ही के दिन भाबरा गाँव में महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्म हुआ था । आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से डटकर मुकाबला करते हुए क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद 89 साल पहले शहीद हो गये थे। देश को आजादी दिलाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। चंद्रशेखर महज 15 साल की उम्र में ही असहयोग आंदोलन में शामिल हुए थे। इसके चलते वो जीवन में पहली बार जेल गए थे।
जेल में ही जब चंद्रशेखर से अंग्रेजों ने पूछताछ की, तो उन्होंने अपना नाम आजाद, पिता का नाम स्वतंत्रता और पता जेल बताया था। इसके बाद वे 17 साल की उम्र में आजाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े थे। 1925 में हुए काकोरी कांड में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई थी। क्रांतिकारियों के इस प्रयास ने अंग्रेजों को हिलाकर रख दिया था।
आजादी की लड़ाई में जब क्रांतिकारी एक के बाद एक घटनाओं को अंजाम देने लगे तो ब्रिटिश पुलिस के गुप्तचर विभाग ने उनका प्रोफाइल बनाकर एक फाइल में जानकारी रखना शुरू किया। इसमें क्रांतिकारियों से जुड़ी अखबार की कतरनें, उनको फोटो, उनकी सारी व्यक्तिगत जानकारियां, उनसे जुड़ी घटनाओं की जानकारियां, हुलिया, क्रांतिकारियों के परचे आदि रखे जाते थे।
ऐसी ही एक फाइल में एक क्रांतिकारी की डिटेल्स लिखी थी, उपनाम लिखे ‘क्विक सिल्वर‘ (पारा) और ‘बलराज‘। इन नामों से शायद आप उन्हें नहीं पहचान पाएंगे। क्रांतिकारी की फाइल में बस एक ही फोटो था, बाकी कोई मिला भी नहीं होगा। तो आइये हम बताते हैं की आखिर ये नाम किसको और क्यों दिए गये।
दरअसल आजाद थोड़े गरम मिजाज थे, जल्दी गुस्सा आता था, और उनका दीमाग बहुत ही तेज था जिसकी वजह से वो जल्द फैसला लेते थे। इसलिए उनके मिलने वाले उन्हें क्विक सिल्वर के नाम से बुलाते थे। जबकि जो बलराज नाम था वो उनके दुश्मनों के लिए था। क्योंकि वो जो भी नोटिस या सार्वजनिक पर्चा जारी करते थे उसको बलराज के नाम से ही जारी किया जाता था।
हालांकि अंग्रेजी सरकार के रिकॉर्ड्स में भले ही उनको अशिक्षित लिखा जाता हो, लेकिन भगत सिंह जैसा लिखने पढ़ने वाला व्यक्ति अगर किसी को अपना नेता मानता था, तो वो व्यक्ति कोई आम तो नहीं रहा होगा। बताया तो ये भी जाता है कि आजाद बलराज के उपनाम से अखबारों में भी लिखा करते थे।
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आजाद का दीमाग कितना तेज था इस बात का अंदाज एक बात से भी लगा सकते हैं। दरअसल जब असेम्बली में बम फेकने की योजना बटुकेश्वर दत्त ने बनाई थी तो भगत सिंह को रूस के क्रांतिकारियों से मदद लेने का फैसला किया गया था। लेकिन भगत सिंह ने अपने इरादे बदल दिए और आजाद से जिद की कि असेंबली में बम फेंकने का मौका दिया जाए।
आजाद इस बात को अच्छे से जानते थे कि इस कांड में गिरफ्तारी तय थी और जो गिरफ्तार होगा, वो उससे पहले अपनी बात परचों और बम के जरिए असेम्बली के सदस्यों, अंग्रेजी सरकार और फिर मीडिया के जरिए जनता तक पहुंचा ही देगा। बाद में कुछ साल की सजा के बाद उसका छूटना तय था, या शायद भागने का मौका मिल जाए।
लेकिन भगत सिंह की गिरफ्तारी का सीधा मतलब था कि फिर वापस आने का सवाल ही नहीं, क्योंकि भगत सिंह को सांडर्स हत्याकांड में पहचाना जा चुका था। ऐसे में उनका जिंदा बच पाना मुश्किल था, लेकिन भगत सिंह नहीं माने लेकिन हुआ वही जिसकी आंशका आजाद ने जताई थी। भगत सिंह पर इस केस के अलावा सांडर्स की हत्या का केस भी चला और फांसी की सजा हो गई।