चंचल दादा की जवानी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में बीती, उसके बाद दिल्ली में। समाजवाद का ककहरा और पेंटिंग साथ साथ चलते रहे। राजनीति और कला के बीच उन्होंने अपनी किस्सागोई की अलग पहचान बनाई है। फिलहाल जौनपुर के अपने गावं में बने समताघर में रह रहे हैं । हम अपने पाठकों के लिए उनके संस्मरणों की कड़ी शुरू कर रहे हैं ।
चंचल
तू जहां जहां चलेगा
और 25 मई 05 को दत्त साहब ( सुनील दत्त). ने दुनिया को अलविदा किया और कूच कर गए ।
सन और तारीख नही याद है । पर वो गर्मियों के दिन थे इतना याद है । राज ( बब्बर ) ने फोन किया – कुछ दिन के लिए बंम्बई आ जाओ , दिल्ली में पड़े पड़े ‘क्या कर रहे हो ‘ (क्या कर रहे हो कि जगह कुछ और कहा था जो दोस्ती की भाषा मे बोलने का चलन है, उसे यहां जस का तस नही लिखा जा सकता ) आने जाने का हवाई किराया मिले तो समाजवादी यमलोक तक जाकर समाजवाद पढ़ा आएगा । ये तो बम्मई तक कि बात थी । हम बंम्बई पहुचे ।
राज घर पर नही थे , कहीं किसी शूटिंग में थे । उनका ड्राइवर तिवारी हमे ले आकर ‘नेपथ्य ‘ (राज के घर का नाम ) में आमद कर दया । नीचे बड़े वाले हाल में घर की मालकिन मिल गयी । नादिरा जी ( नादिरा जहीर बब्बर , रंगमंच का बड़ा नाम , निदेशक , ऐक्ट्रेस , लेखक और एक बेहतर इंसान , जिसके पास ठहाके उठाने के सारे गुण मैजूद हैं , हमारी खूब जमती है )
– आ गए ?
– जी
– यह नम्बर है फोन कर लो ( तब मोबाइल का जमाना नही था )
– जी सरकार ! हम आ गए हैं , नेपथ्य में हूँ ।
– नादिरा जी क्या कर रही हैं ?
– आलू छील रही हैं ।
ठहाका लगा पहले नादिरा जी बाद में हम भी ।
– देखो तुम एक काम करो , सामने फ्रिज में बीयर है एक निकाल लो और तिवारी के साथ स्टूडियो चले जाओ , अपने दोस्त को उठा लाओ ।
@ @ @ … …
– कल आजाद मैदान से एक जुलूस निकालना है । संजू टाडा में बंद है उसके लिए । गवर्नर को पत्रक देना है कि उसे फंसाया गया है ।
– दत्त साहब भी चलेंगे ?
– नही ! चलने के लिए नही तैयार हो रहे हैं , हमने बहुत कोशिश की है ।
– चलिए हम भी चलते हैं एक बार हम भी कोशिश करते हैं
– कुछ सुंघावो गे ? कि कोई टोटका करोगे ?
– दोनो नही हो सकता ?
हम पहली बार वेस्ट बांद्रा उनके किला नुमा मकान पर गए थे । काफी जद्दो जेहद के बाद दत्त साहब जुलूस में चलने को राजी हो गए । (राज ने हमारे प्रवचन की तासीर को तो मान लिया , लेकिन कंजूस अव्वल दर्जे का । )
बहरहाल दूसरे दिन जुलूस चला । जैसे चलता है । जुलूस में शामिल लोंगो से ज्यादा पुलिस साथ मे चलती है । गर्मी की धूप । समंदर का किनारा । सड़क जहां समंदर के करीब मुड़ती है , वहां पहुंचते ही पुलिस का बड़ा अधिकारी आ गया और बोला – अब आप लोग सड़क छोड़ कर समंदर के किनारे किनारे रेत पर चलिए ।
आवाज कड़क थी । दत्त साहब चुप , राज की तरफ़ देखने लगे , राज ने हमे देखा ( हमे लगा कि राज याद दिला रहे कि बेटे यूं ही नही बुलाया है ) हमारा बनारस का विश्वविद्यालय जाग गया , आवाज कड़ी हो गई – रेत से क्यों जाँय ? हम इधर सड़क से ही जांयगे
– यह गैर कानूनी है हमे गिरफ्तार करना पड़ेगा ।
– धमकी मत दो , यानी रेत पर चलनेवाला जुलूस गैर कानूनी नही है ? हम चलेंगे इधर से ही गिरफ्तार करना हो कर लो ।
दत्त साहब थोड़ा घबड़ाये , लेकिन तब तक पुलिस अधिकारी का रुख बदल चुका था – ठीक है जब आप लोंगो की यही जिद है तो चलिए लेकिन ट्राफिक को मत रोकियेगा ।
जुलूस चला । तीन छोटी छोटी बच्चियां साथ चल रहीं थी , जूही ( राज की बेटी ) प्रिया दत्त ( संजू की बहन , बाद में सांसद भी बनी ) और तीसरी थी संजू की दोस्त ।
इन बच्चियों ने पानी पिलाने से लेकर बिस्किट तक इंतजाम कर हर परेशान बच्चों को खिलाया । यहां से हम दत्त साहब एक अच्छे दोस्त बन गए ।
दत्त साहब के साथ अनेक वाकयात जुड़े हैं । गाहे ब गाहे याद आते रहते हैं ।
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