न्यूज डेस्क
कोरोना महामारी से जंग लड़ने में अमीर देशों की हालत खराब है तो गरीब देश इससे कैसे निपट रहे होंगे इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। दुनिया के ज्यादातर देशों ने कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए लॉकडाउन का सहारा लिया हुआ और इस लॉकडाउन ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्था को तगड़ी चोट पहुंचायी है। ऐसे में गरीब देशों के सामने घोर संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है।
कोरोना का संकट झेल रहे दक्षिण एशियाई देशों के गरीब कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह मास्क खरीदें या भोजन।
ज्यादातर दक्षिणी एशियाई देशों में लॉकडाउन है और इस दौरान अमूमन कामधाम बंद है। जिसकी वजह से गरीबों की कमाई पर रोक लग गई है। ऐसे हालात में उनके लिए भोजन सबसे बड़ी चुनौती बन गई है, लेकिन साथ में वह मास्क के लिए भी परेशान हैं।
भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका में सार्वजनिक जगहों पर मास्क पहनना अनिवार्य है। अफगानिस्तान और बांग्लादेश में भी यही सलाह दी गई है। इस कारण मास्क की मांग बढ़ गई है और इसकी कीमतों में भारी उछाल आई है।
इस्तेमाल कर फेंक दिए जाने वाले बेसिक मास्क की कीमत कई जगहों पर 7 डॉलर के करीब पहुंच गई है और इसने शहरों में असमानता का एक नया रूप पैदा कर दिया है जहां करोड़ों लोग महामारी के बावजूद तंग और अस्वच्छ हालात में जीने को मजबूर हैं।
अफगान मजदूर रहमत खान के पास सिर्फ एक ही विकल्प है। यदि वह मास्क खरीदते हैं तो उनका परिवार भूखा रहेगा और यदि भोजन खरीदते हैं तो बिना मास्क के उन्हें बाहर जाना पड़ेगा।
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कोरोना महामारी में रहमत खान की मजदूरी घटकर डेढ़ डॉलर के नीचे हो गई है। दक्षिण एशिया के कई गरीबों की तरह खान के पास घर छोड़कर बाहर काम पर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, लेकिन महामारी के कारण कमाई में आई कमी के बावजूद उन्हें मास्क खरीदने में संघर्ष करना पड़ रहा है।
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली का कहना है कि कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए हुए लॉकडाउन ने हाशिए पर खड़े समुदायों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है।
वह कहती हैं, ” कोरोनो वायरस अमीर या गरीब, धर्म या नस्ल के बीच भेद नहीं करता है, लेकिन यह लोगों को कैसे प्रभावित करता है यह उनके भोजन, रहने की जगह, स्वास्थ्य और बुनियादी जरूरतों तक पहुंच पर निर्भर करता है।”
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दुनिया भर में मास्क की डिमांड बढ़ी है। इसलिए मास्क की कालाबाजारी भी खूब हो रही है। मास्क ऊंचे दामों पर बेंचे जा रहे हैं। ऐसी शिकायतें दुनिया भर से आ रही हैं।
श्रीलंका में प्रशासन ने सर्जिकल मास्क की कीमत 15 रुपये तय कर दी है। यह मास्क इस्तेमाल के बाद फेंक दिए जाते हैं., जबकि पूरी तरह से बंद मास्क जिसे रेस्पिरेटर भी कहा जाता है उसकी कीमत प्रशासन ने 150 रुपये तय किया है। इस कीमत पर भी श्रीलंका के गरीब मास्क खरीदने में असमर्थता जाहिर करते हैं। उनका कहना है कि इन दामों पर भी मास्क खरीद पाना मुश्किल है और दवा की दुकानें इन्हें दाम बढ़ा कर बेच रही हैं।
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कोलंबो की एक झुग्गी बस्ती में रहने वाले लइक कहते हैं, “पहले हम 15 रुपये में सर्जिकल मास्क खरीद लेते थे लेकिन अब वह इस कीमत में नहीं मिल रहा है। कुछ दुकानदार इसे 75 रुपये में बेच रहे हैं। इसलिए हमारे इलाके में अधिकतर लोग घर पर बने मास्क ही पहन रहे हैं।”
भारत में भी ऐसा ही कुछ है। यहां भी मास्क की कालाबाजारी की खूब शिकायतें मिल रही है। हालांकि भारत में सरकार ने खुद से मास्क बनाने पर दिशा-निर्देश जारी किए हैं। गरीब ऐसा कर भी रहे हैं।
मास्क पहनने को लेकर भी कई तरह की सलाह दी जाती है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि मास्क उन्हीं लोगों को पहनना चाहिए जो बीमार हैं और जिनमें कोरोना के लक्षण दिखाई दे रहे हैं या फिर ऐसे लोगों को जो संदिग्धों की देखभाल में जुटे हुए हैं। वहीं घर से बाहर निकलने पर मास्क सभी के लिए अनिवार्य है।
भारत में कई लोग संक्रमण से बचने के लिए रुमाल या फिर गमछे का भी इस्तेमाल कर रहे हैं। इस बीच कई संस्थाएं, महिला समूह और पुलिस टीम मास्क बनाने के काम में जुटी हुई हैं। यह मास्क गरीबों और ग्रामीण क्षेत्रों में मुफ्त में बांटे जाते हैं।