Friday - 25 October 2024 - 4:17 PM

बड़ा मलहरा जैसे उप-चुनावों के मायने

डा. रवीन्द्र अरजरिया

बड़ा  मलहरा (छतरपुर)। देश की राजनैतिक नैतिकता एक बार फिर कटघरे में खडी हो गई है। उसी नैतिकता का महाकुम्भ अंतिम पड़ाव पर है।

संविधान के अनुशासन में बंधा आम आदमी मतदान करके अपने प्रतिनिधि का चयन करेगा। प्रतिनिधि का क्षेत्र के प्रति दायित्वबोध कब कहां करवट ले जाये, कहा नहीं जा सकता।

निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु मानवीय भावनाओं से लेकर सामाजिक सरोकारों तक को हाशिये पर भेजने वालों की कमी नहीं है।

राजनैतिक दल देश की जनता को आज भी मानसिक गुलामी की बेडियों से आजाद नहीं होने देना चाहते। राजनैतिक दलों का एकछत्र राज्य देश की दिशा और दशा के निर्धारण का ठेकेदार बन गया है। स्वतंत्र रूप से व्यक्तिगत छवि के आधार पर प्रतिनिधित्व पाने वालों को भी अकेल कुछ पाना बेहद मुस्किल होता है।

बड़ा मलहरा जैसे उप चुनावों की आधार शिला ही जब व्यक्तिगत कारणों पर टिकी होती है तो फिर संवैधानिक संरचना का लचीला होना तो प्रमाणित हो ही जाता है।

ऐसी स्थितियों से निपटने के लिये सदनों में आवाज उठाने वाला एक भी गला अपने अन्त: से स्वर नहीं निकाल पाता। ऐसे उप चुनावों की स्थिति कुछ लोगों की मानसिकता का परिणाम होती है।

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बड़ा मलहरा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने की आकांक्षा से ग्रसित दलगत उम्मीदवारों का परचम धनबल और बाहुबल की दम पर फहराने की कगार पर है। आयातित उम्मीदवारों में से अधिकांश को तो क्षेत्र का भूगोल, इतिहास और नागरिक शास्त्र ही पता नहीं है।

वे स्थानीय ठेकेदारों को धनबल से खरीदते हैं और फिर बाहुबल के सहारे से अपने को सक्षम प्रस्तति करते हैं। दूसरी ओर राजनैतिक दलों के स्थानीय कार्यकर्ता भी इन थोपे गये प्रत्याशियों को ढोने के लिए विवस हो जाते हैं।

बड़ा   मलहरा जैसे उप चुनाव पूरे देश में होते हैं। इन उप चुनावों की स्थितियां क्यों निर्मित होतीं है, इस तरह के प्रश्नों पर सभी राजनैतिक दल मौन धारण कर लेते हैं।

आश्चर्य तो तब होता है जब एक झंडे में अपना डंडा लगाने वाले आयातित लोग नये झंडे के साथ पुन: उसी क्षेत्र में शंखनाद करने पहुंच जाते हैं। उनके धनबल और बाहुबल के आगे निरीह मतदाता मुंह भी सिले रहता है और खास कारणों से कृतिम मुस्कान के साथ उनका स्वागत भी करने के लिए बाध्य होता है।

पूर्व कार्यकाल में क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वालों से भी समाज के आखिरी छोर पर बैठा मतदाता मन में उमडने वाले प्रश्नों को भी जुबान पर नहीं ला पाता है। प्रतिनिधित्व के लिए तो स्थानीय होना एक अनिवार्य शर्त होना ही चाहिये।

योग्यता का मापदण्ड निर्धारित होना भी आवश्यक हो तो बेहतर होगा। ऐसी ही अनेक पात्रता के मापदण्ड स्थापित किये बिना क्षेत्र को वास्तविक प्रतिनिधि मिल पाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।  (लेखक स्वतंत्र पत्रकार है।)

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