डॉ. सीमा जावेद
विशेषज्ञों का मानना है कि कोविड-19 से निजात पाने के लिये दुनिया के सभी लोगों का टीकाकरण होना जरूरी है। अगर दुनिया का एक भी हिस्सा टीकाकरण से महरूम रहा तो पूरी दुनिया में नये तरीके के वायरस का खतरा मंडराने लगेगा। गरीब तथा विकासशील देशों में सभी को समान रूप से टीका मुहैया कराने के मुश्किल काम को करने के लिये एक ‘बर्डन शेयरिंग फार्मूला’ बनाया जाना चाहिये। इस बारे में ठोस कदम उठाने के लिये आगामी 11 जून को ब्रिटेन में आयोजित होने जा रही जी-7 शिखर बैठक एक महत्वपूर्ण मौका है।
इस सिलसिले में विस्तृत विचार-विमर्श के लिये एक्सपर्ट्स के एक वेबिनार में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन, क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल की अधिशासी निदेशक तसनीम एसप, डब्ल्यूआरआई इंडिया में जलवायु कार्यक्रम की निदेशक उल्का केलकर और विश्व स्वास्थ्य संगठन में पब्लिक हेल्थ, एनवायरमेंट एण्ड सोशल डेटरिमेंट्स ऑफ हेल्थ डिपार्टमेंट की निदेशक डॉक्टर मारिया नीरा ने हिस्सा लिया।
विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि मौजूदा वक्त दुनिया के अमीर देशों के नैतिक मूल्यों की परीक्षा है। अमीर देशों ने जिस तरह से महामारी से निपटा है उससे यह भी पता लगता है कि वे किस तरह से जलवायु संकट से भी निपटेंगे। जी-7 देश महामारी को लेकर जो विचार व्यक्त करेंगे उसे अन्य प्रकार के संकटों, खासतौर पर जलवायु से संबंधित संकट से अलग करके नहीं देखा जा सकता। महामारी के इस दौर में जलवायु संकट पर और भी ज्यादा बल दिए जाने की जरूरत है क्योंकि अगर आप जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करते हैं तो इससे बहुत बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य संबंधी लाभ पैदा होंगे।
आगामी 11 जून को ब्रिटेन, अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान और कनाडा के नेता तथा दक्षिण कोरिया, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्राध्यक्ष ब्रिटेन के कॉर्नवाल में आयोजित होने वाली जी-7 की बैठक में शामिल होंगे। इस बैठक के दौरान जी-7 देशों पर विकासशील देशों में कोविड टीकाकरण कार्य में तेजी लाने और जलवायु सम्बबन्धी नयी वित्तीय संकल्पंबद्धताओं पर राजी होने का दबाव होगा। अगर विकासशील देशों तक कोविड का टीका पहुंचाने और नये वित्तपोषण के काम में तेजी नहीं लायी गयी तो ब्रिटेन में आयोजित होने वाली सीओपी 26 शिखर बैठक के सामने नयी चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं। उस स्थिति में विकासशील देशों के प्रतिनिधि इस बैठक में शामिल नहीं हो सकेंगे और देश जलवायु से सम्बान्धित अधिक मुश्किल योजनाएं पेश नहीं कर पायेंगे।
ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने इस मौके पर गरीब और विकासशील देशों में टीकाकरण सुनिश्चित करने के लिये एक सुगठित ‘बर्डन शेयरिंग फार्मूला’ तैयार करने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा ‘‘वर्ष 2021 बढ़े हुए अंतरराष्ट्रीय सहयोग का वर्ष है। हम गरीबी, अन्याय, खराब स्वास्थ्य, प्रदूषण और पर्यावरण अपघटन जैसी समस्याओं से मिलजुल कर लड़ रहे हैं और हम सभी लोग मिलकर सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में भी काम कर रहे हैं। कोविड-19 की वजह से हर व्यक्ति डरा हुआ है शुरुआती बिंदु यह है कि इस बीमारी का उन्मूलन कैसे किया जाए इसके लिए वैक्सीन सबसे बड़ा माध्यम है। मेरा मानना है कि सिर्फ ‘बर्डन शेयरिंग फार्मूला’ ही एक ही रास्ता है जो वैक्सीनेशन के लिए सतत निवेश ला सकता है। इस फार्मूला से जमा होने वाली रकम को गरीब देशों में स्वास्थ्य प्रणाली के निर्माण में खर्च किया जाना चाहिए ताकि इन मुल्कों के लोगों का टीकाकरण किया जा सके। हमें महामारी की तैयारी के लिए जरूरी ढांचे के निर्माण के लिए हर साल 10 बिलियन डॉलर खर्च करने की जरूरत है।’’
उन्होंने पूरी दुनिया के लोगों तक वैक्सीन पहुंचाने के लिये टीके से जुड़े पेटेंट को अस्थायी तौर पर खत्म करने की पैरोकारी करते हुए कहा ‘‘मैं उन सभी लोगों का समर्थन करता हूं जो वैक्सीन को उससे जुड़े पेटेंट से अस्थाई तौर पर मुक्त करने का आग्रह कर रहे हैं। इससे अन्य पक्षों को भी वैक्सीन का उत्पादन करने के लाइसेंस मिल सकेंगे। ऐसा होने से जो वैक्सीन आज दुनिया के किसी एक ही हिस्से में बनती है वह कल दुनिया के सभी हिस्सों में बनाई जा सकेगी। इसके साथ ही में वैक्सीन के उत्पादन और उसके वितरण में व्याप्त खामियों को दूर करने की भी वकालत करता हूं। हम जानते हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन की 50-50 प्रतिशत आबादी को वैक्सीन लगाई जा चुकी है लेकिन अफ्रीका में यह आंकड़ा सिर्फ एक फीसदी है। मैं महसूस करता हूं कि दुनिया वैक्सीनेटेड अमीर और अनवैक्सीनेटेड गरीब में बंटने को तैयार है।’’
ब्राउन ने कहा कि अफ्रीका और एशिया में सबसे ज्यादा लोग जोखिम के दायरे में हैं। इन महाद्वीपों में स्वास्थ्यकर्मी तक वैक्सीन से महरूम हैं। इसे रोकने के लिए जरूरी है कि अमीर देश अपनी स्वार्थपरता छोड़ें और गरीब देशों की मदद करें। इसके लिए समानतापूर्ण भार वितरण का फार्मूला तैयार किया जाए जहां वे अपनी सर्वाधिक क्षमता के मुताबिक कीमत चुकाएं। क्योंकि कोविड-19 लगातार फैल रहा है और लगातार अपना रूप बदल रहा है इसकी वजह से वे लोग भी खतरे के दायरे में हैं जिन्हें वैक्सीन लगाई जा चुकी है। इससे जाहिर है कि अगर किसी एक को चोट लगती है तो उसका दर्द सभी को होगा। अगर किसी एक स्थान पर अन्याय होता है तो इससे सभी स्थानों पर नाइंसाफी होने का खतरा पैदा होता है। मेरा मानना है कि दान का कार्य घर से ही शुरू होता है। जॉन एफ कैनेडी के शब्दों में अगर एक मुक्त समाज किसी गरीब की मदद नहीं कर सकता तो वह किसी काम का नहीं है।
उन्होंने कहा कि बर्डन शेयरिंग फार्मूला में हर देश की आय संपदा और डिफरेंशियल बेनिफिट और विश्व अर्थव्यवस्था की री ओपनिंग से मिलने वाले प्रत्येक लाभ को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस फार्मूला के तहत अमेरिका और यूरोप 27% का योगदान करेंगे। ब्रिटेन 5%, जापान 6% और जी-20 के सदस्य अन्य देश बाकी का योगदान करेंगे। यह सिर्फ दान की ही एक प्रक्रिया नहीं होगी बल्कि यह अपने बचाव का भी एक रास्ता होगा क्योंकि गरीब देश जितने ज्यादा लंबे वक्त तक महामारी से घिरे रहेंगे, उतने ही समय तक यह महामारी अपने पैर पसारना जारी रखेगी और अमीर तथा गरीब सभी के लिए खतरा बना रहेगा। यह सही है की वैक्सीन बनाने में अरबों डॉलर खर्च होंगे लेकिन लेकिन उनसे जुड़े संपूर्ण फायदे को देखें तो यह कई ट्रिलियन का होगा।
क्लांइमेट एक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल की अधिशासी निदेशक तसनीम एसप ने कोविड-19 महामारी से निपटने के लिये एक समानतापूर्ण रवैया अपनाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि जी-7 में दुनिया के सात सबसे धनी देश इस सबसे मुश्किल वक्त में बैठक करेंगे। पूरी दुनिया ने वर्ष 2020 को महामारी के साथ गुजारा लेकिन वर्ष 2021 में पिछले साल की मुसीबतों को काफी बढ़ा दिया है। वर्ष 2021 में लोगों के मुसीबत से निपटने के जीवट की परीक्षा को और भी सख्त कर दिया है। यह स्पष्ट है और जैसा कि गार्डन ब्राउन ने भी अपने बयान में कहा है कि हमें इस महामारी से निपटने के लिए एक समानता पूर्ण रवैया अपनाना होगा।
उन्होंने जलवायु संकट को भी जेहन में रखने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा ‘‘मेरा मानना है कि अमीर देशों ने जिस तरह से महामारी से निपटा है उससे यह भी पता लगता है कि वे किस तरह से जलवायु संकट से भी निपटेंगे। जी-7 देश महामारी को लेकर जो विचार व्यक्त करेंगे उसे अन्य प्रकार के संकटों खासतौर पर जलवायु से संबंधित संकट से अलग नहीं किया जा सकता। हम सभी जानते हैं और पूरी दुनिया देख भी रही है कि भारत खासतौर पर कोविड-19 महामारी के दूसरे दौर में सबसे दुखद और अप्रत्याशित रूप से विध्वंसक रूप का सामना कर रहा है। इसके अलावा भारत को साइक्लोन ताऊते के रूप में एक और मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है। आप में से बहुत से लोगों ने इस चक्रवाती तूफान की वजह से मची तबाही की खबरें और तस्वीरें देखी होंगी। इसकी वजह से कोविड-19 महामारी से उत्पन्न मुसीबत में इजाफा हो गया है। कई तरफ से आ रही इस मुसीबत का असर भारत की स्वास्थ्य सेवाओं आपदा प्रबंधन सेवाओं पर पड़ रहा है जिसकी कीमत सरकार और देश के नागरिकों को चुकानी पड़ेगी। जी-7 देशों के सामने इन मुद्दों का हल निकालने की बहुत बड़ी चुनौती होगी।’’
तसनीम ने कहा ‘‘मेरी समझ से गॉर्डन ब्राउन ने एक तात्कालिक आवश्यकता की तरफ इशारा किया है कि अगर कोई एक भी व्यक्ति असुरक्षित है तो इसका मतलब है कि हर कोई असुरक्षित है। जी-7 देशों में इस तरह का नेतृत्व दिखाने की जरूरत है। हमें वैश्विक एकजुटता और वैश्विक सहयोग की भावना को सबसे मजबूत तरीके से जाहिर करना होगा।’’
तसनीम ने आईईए द्वारा जारी ताजा नेटजीरो रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा इस रिपोर्ट में इस बात पर खास जोर दिया गया है कि हमें अक्षय ऊर्जा पर निवेश पर विशेष जोर देना होगा। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत होगी। इसके लिए वैश्विक एकजुटता और सहयोग की भावना मुख्य केंद्र में होनी चाहिए।
उन्होंने कोविड टीकाकरण को लेकर उठाए गए बिंदु का जिक्र करते हुए कहा कि महामारी से लड़ने के लिए टीके की समानतापूर्ण उपलब्धता बेहद जरूरी है और इस चुनौती से निपटने के लिए विकसित देशों को अपने क्लाइमेट फाइनेंस में लगातार तेजी से इजाफा करना चाहिए। देशों को पुरानी संकल्पबद्धताओं पर अमल के साथ-साथ नए संकल्प प्रस्तुत करने चाहिए। अगर विकासशील देशों को वैक्सीन को लेकर फौरन मदद नहीं मिली और उसका समानता पूर्ण वितरण नहीं हुआ तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को ग्लासगो में किसी भी तरह के समझौते की संभावना को भूल जाना चाहिए। जॉनसन के पास साथ मिलकर कदम बढ़ाने के लिए तीन हफ्ते का समय है। घड़ी का कांटा तेजी से भाग रहा है। हम इस मुश्किल वक्त में एक साहसिक, संवेदनशील और नैतिकता पूर्ण नेतृत्व की तरफ देख रहे हैं।
इस सवाल पर कि क्या जी-7 बैठक में शामिल होने जा रहे प्रतिनिधियों को वैक्सीन लगवा कर जाना चाहिए, उन्होंने कहा कि यह नैतिक रूप से सही नहीं होगा क्योंकि वैक्सीन लगवाने की एक निर्धारित प्रक्रिया है और अगर इसमें अतिरिक्त लाभ लेने की कोशिश की जाएगी तो यह बिल्कुल अनुचित होगा।
डब्ल्यूआरआई इंडिया में जलवायु कार्यक्रम की निदेशक उल्का केलकर ने कहा कि इस वक्त दो चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं। पहली, क्लाइमेट फाइनेंस की तात्कालिकता और समानता पूर्ण टीकाकरण। दूसरी चीज यह है कि वर्तमान समय हमारे मूल्यों की परीक्षा की घड़ी है कि हम एक खुशहाल दुनिया के निर्माण के प्रति कितने गंभीर हैं। एक ताजा विश्लेषण में यह बात जाहिर हुई है कि पिछले साल भारत में 7.5 करोड़ और नागरिक गरीबी की गर्त में चले गए। यह भारत में आई कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर से पहले की बात है। कुछ मीडिया मंचों की रिपोर्ट यह भी बताती हैं कि भारत के गांवों में लोगों को किसी सब्जी या दाल के बगैर चावल में नमक मिलाकर खाने को मजबूर होना पड़ रहा है। इसी तरह हम वैक्सीन के मामले में भी बड़ी अनोखी विषमता का अनुभव कर रहे हैं।
जहां अनेक देशों खासकर अफ्रीकी मुल्कों में स्वास्थ्य कर्मी तथा फ्रंटलाइन वर्कर्स वैक्सीनेशन से महरूम हैं वहीं विकसित देशों में लोगों के पास वैक्सीन खरीदने की क्षमता है। इस वक्त हमें सारी जरूरत इस बात की है, जैसा कि यूनिसेफ के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर ने भी कहा है कि जून में जी-7 की होने वाली बैठक तक 19 बिलियन डोज की कमी होगी। इसलिए वे जी-7 देश, जिन्हें जून जुलाई-अगस्त में वैक्सीन की इतनी जरूरत नहीं होगी, अगर वैक्सीन दान कर दें तो समस्या को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। इसी तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बिंदु की तरफ इशारा किया है कि 11 मई तक कोवैक्स में 18.5 बिलियन डॉलर का अंतर है। हमें वित्तपोषण के इस अंतर को जल्द से जल्द पाटना होगा।
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उल्का ने क्लाइमेट फाइनेंस की तात्कािलिकता और कुछ देशों द्वारा अपना योगदान बढ़ाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा ‘‘यहां मैं यह भी कहना चाहूंगी कि हमें क्लाइमेट फाइनेंस की फौरी जरूरत पर भी जोर देने की जरूरत है। हम पिछले काफी समय से 100 अरब डॉलर के निवेश की प्रतिज्ञा दोहरा रहे हैं। हम निजी पक्षों से क्लाइमेट फाइनेंस हासिल करने की बात भी करते हैं। अगर हम यूएनएफसीसीसी के वर्ष 2018 के आकलन की बात करें तो जी-7 देश क्लाइमेट फाइनेंस प्रवाह में 80% का योगदान करते हैं, इसलिए यह देश ही क्लाइमेट फाइनेंस की प्रतिज्ञा को बना या बिगाड़ सकते हैं। कनाडा, जर्मनी और जापान को अपने पिछले योगदान में दोगुने का इजाफा करना होगा।’’
उन्होंने कहा ‘‘अगर साइक्लोन ताउते के बारे में बात करें तो विकासशील देशों में सतत स्वास्थ्य प्रणाली की जरूरत है जिसमें स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षित लोगों को भी तैयार किया जाना चाहिए। हमें स्वच्छ ऊर्जा की सतत प्रणाली अपनाने की जरूरत है क्योंकि चक्रवाती तूफान में हमारी स्थापित ऊर्जा प्रणाली को भी बहुत नुकसान पहुंचाया है। अस्पतालों के मामले में खास तौर पर यह बात बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वे कोविड-19 महामारी से जूझ रहे मरीजों के लिए वेंटिलेटर का संचालन कर रहे हैं। हमें स्थानीय स्तर पर फार्मास्यूटिकल और वैक्सीन उत्पादन क्षमता का निर्माण करना होगा।’’
अफ्रीका सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के उपनिदेशक डाक्टर अहमद आगवेल ऊमा ने टीकाकरण के मामले में अफ्रीका महाद्वीप की धीमी प्रगति की तरफ इशारा करते हुए कहा कि अफ्रीका में कोविड के कारण होने वाली मौतों की दर वैश्विक औसत दर से ज्यादा है। जाहिर है कि हमें इस महामारी से बचने के लिए अपने सभी संसाधनों का इस्तेमाल करना होगा। वैक्सीन की बात करें तो अफ्रीका महाद्वीप के पास 38 मिलियन डोज ही उपलब्ध है और इसमें से भी मात्र 60% डोज ही लोगों को लगाई गई है। अगर हम पूरे परिदृश्य को देखें पूरी दुनिया में एक अरब डोज वितरित की गई हैं। वहीं, अफ्रीका महाद्वीप इस मामले में बहुत पीछे है। ‘वैक्सीन नेशनलिज्म’ अफ्रीका में कोविड-19 महामारी को रोकने की राह में बाधा पैदा कर रहा है। वे सभी देश जो अपनी सीमाओं के अंदर वैक्सीन का निर्माण कर रहे हैं उन्हें वैक्सीन का निर्यात नहीं रोकने चाहिए क्योंकि ऐसा करके वे अफ्रीका महाद्वीप के 1.3 बिलियन नागरिकों की सुरक्षा को दांव पर लगा रहे हैं। प्रधानमंत्री अब्राहम के शब्दों को दोहराएं तो अगर हमने साथ मिलकर काम नहीं किया तो दुनिया का कोई भी हिस्सा सुरक्षित नहीं रह पाएगा।
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ऊमा ने वैक्सीन के पर्याप्त मात्रा में उत्पादन और उसके समानतापूर्ण वितरण की जरूरत पर जोर देते हुए कहा ‘‘जैसा कि अगले महीने जी-7 की बैठक आयोजित हो जा रही है, ऐसे में अफ्रीका उन सभी देशों का आह्वान करता है जिनके पास यह सुनिश्चित करने की क्षमता है कि वे पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन का उत्पादन और उसका समानतापूर्ण वितरण सुनिश्चित कर सकते हैं। ऐसा नहीं करने को राजनीतिक और नैतिक विफलता माना जाएगा। हम पूरी दुनिया में वैक्सीन के समानतापूर्ण वितरण की तरफ देख रहे हैं। मैं ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का आह्वान करता हूं कि उदारता का गुण इस मुश्किल वक्त में एक महत्वपूर्ण रणनीतिक मुद्दा है।
जी-7 की बैठक में प्रधानमंत्री के सामने नेतृत्व करने का अवसर है। हम उम्मीद करते हैं कि वर्ष 2022 के अंत तक दुनिया में दो बिलियन डोज वितरित की जाएंगी। हम यह भी आशा करते हैं कि इस साल पूरी दुनिया में कम से कम एक बिलियन डोज वितरित की जाएंगी ताकि सबसे ज्यादा जोखिम में रहने वाले लोगों को टीका मिलना सुनिश्चित हो सके।’’
उन्होंने कहा कि अफ्रीका के लिए हमने कम से कम 60% लोगों को टीका लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया है ताकि जिंदगी को पहले की तरह सामान्य बनाया जा सके। हालांकि यह पहले की जैसी नहीं रहेगी लेकिन कम से कम हम सामान्य आर्थिक गतिविधियों की तरफ लौटना चाहेंगे। मेरी प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन से गुजारिश है कि जी7 की बैठक में इस बिंदु को पूरी शिद्दत से रखा जाए। इस वक्त वैक्सीन की उपलब्धता सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह न सिर्फ नैतिक रूप से जरूरी है बल्कि यह लोगों को सुरक्षित रखने का सबसे अच्छा तरीका भी है। अगर हमने दुनिया के किसी भी एक हिस्से, खासतौर पर अफ्रीका को वैक्सीनेशन से महरूम रखा तो इसका मतलब होगा कि हम वायरस की किसी नयी किस्म को दावत देंगे जो हो सकता है कि वैक्सीन को भी बेअसर कर दे और पूरी दुनिया पर उसका खतरा मंडरा जाए। लिहाजा हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि दुनिया के हर एक व्यक्ति को वैक्सीन लग जाए। ऐसा करके ही हम अपने जीवन को दोबारा पटरी पर ला सकते हैं।
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विश्व स्वास्थ्य संगठन में पब्लिक हेल्थ, एनवायरमेंट एण्डी सोशल डेटरिमेंट्स ऑफ हेल्थ डिपार्टमेंट की निदेशक डॉक्टर मारिया नीरा ने जी-7 की बैठक में जलवायु के प्रति अधिक सतत नीतियां बनाने पर जोर देते हुए कहा कि इससे बहुत बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य सम्बन्धी फायदे भी होंगे।
उन्होंने कहा ‘‘जब हम वैक्सीन की बात करते हैं तो उसके समानता पूर्ण वितरण का बिंदु सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है। वैक्सीान से जुड़े कई अहम मसले हैं जिनमें वाणिज्यिक आदान-प्रदान, प्रौद्योगिकी के पहलू और उत्पादन लाइसेंसिंग इत्यादि प्रमुख हैं। इस मुश्किल समय में भी हमारे पास विचार विमर्श करने के लिए कई अच्छे और अहम बिंदु हैं।’’
मारिया ने कहा कि जी7 की बैठक में जलवायु के प्रति और अधिक सतत नीतियां बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए। महामारी के इस दौर में जलवायु संकट पर और भी ज्यादा बल दिए जाने की जरूरत है क्योंकि अगर आप जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करते हैं तो इससे बहुत बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य संबंधी लाभ पैदा होंगे। हमें क्लाइमेट फाइनेंसिंग पर और भी ज्यादा ध्यान देना होगा क्योंकि महामारियों में भी जलवायु की बहुत बड़ी भूमिका होती है।