डॉ अभिनंदन सिंह भदौरिया
वैसे तो बुंदेलखंड का नाम आते ही चन्देल राजाओं के युद के दृश्य लोगों के मस्तिष्क में उभर आते हैं, लेकिन शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि इसी बुंदेलखंड में एक ऐसा गीतकार भी हुआ जिसने अपने गीतों से न सिर्फ फिल्मिस्तान को बल्कि देश दुनिया को झूमने पर मजबूर कर दिया। आप लोगों को कटी पतंग का वो गीत ”जिस गली में तेरा घर न हो बालमा” सत्यम शिवम सुंदरम फिल्म का गीत “यशोमती मैया से बोले नंदलाला” और क्रांति फिल्म का “चना जोर गरम बाबू मैं लाया मजेदार चना जोर गरम” सब याद हैं लेकिन इन गीतों के सच्चे रचनाकार को इन गीतों का श्रेय नही मिलता क्योकि ये गीत फिल्मिस्तान में किसी और के नाम दर्ज हैं।
वो गीतकार थे हमीरपुर के गणेश प्रसाद खरे उर्फ “मंजुल मयंक” जी हाँ नीरज और बच्चन जी जैसे कवियों से कहीं आगे लेकिन वह उस ऊँचाई या शोहरत को नही पा पाए जो और लोगों को मिला एक इंटरव्यू में उन्होंने इस प्रशन का उत्तर यू दिया ”मैं इस प्रसंग में कहना चाहूंगा कि किसी व्यक्ति की शोहरत में कई तत्वों का योगदान रहता है। मेरे समकालीन साथियों को सुअवसर, सुयोग एवं प्रचार प्रोत्साहन मिला, इस कारण वे आज प्रसिद्ध की पराकाष्ठा तक पहुंच गए हैं। कुछ व्यक्तियों की शोहरत का तरीका अवसर परस्ती एवं दरबारवाद भी होता है। मैं ना तो कभी अवसर परस्त रहा हूं और ना ही मैंने कभी अपने स्वाभिमान के विरुद्ध कोई समझौता किया है। और न ही मुझे मीडिया महत्व मिला है, इस कारण मैं आज जहाँ का तहाँ हूँ।” इसलिये आज उनके बारे में जानना जरूरी है कि हमीरपुर के इस सितारे को पीढियाँ याद रखे…
मंजुल मयंक जी का जन्म 30 सितम्बर सन1922 को हुआ था,उनके पिता का नाम महावीर प्रसाद खरे और माता का नाम श्री मती गोविन्द खरे था। यह मूलतः इलाहाबाद के रहने वाले थे,नौकरी के लिए महावीर प्रसाद हमीरपुर आये तो फिर वह हमीरपुरी होकर ही रह गए। मयंक जी विद्यार्थी जीवन में रामलीला के मन्चन में रुचि रखते थे,शायद उनकी इसी रुचि ने उन्हें भविष्य में एक महान गीतकार बनाया। मयंक जी का विवाह मौदहा में हुआ,उनकी पत्नी चंन्द्रमुखी खरे ने भी उनका खूब साथ दिया। मयंक जी के पांच पुत्र एवं पांच पुत्रियां हुईं लेकिन काल ने उनके सभी पुत्रों के साथ दो पुत्रियों को भी अपना ग्रास बना लिया।
1941 में मयंक जी सजर पत्थरों के शहर बाँदा कलेक्ट्रेट सेवा में पहुँचे और यहीं उन्हें बेढ़ब बनारसी, जगमोहन अवस्थी, डॉ आनन्द, श्याम नारायण पाण्डेय, निराला और बच्चन जैसे दिग्गज कवियों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मयंक जी के कवि का जन्म यहीं हुआ और उन्होंने अपनी पहली कविता “सिंदूर बिन्दु” यहीं पढ़ी।
इस तरह बाँदा उनकी कर्म भूमि बन गया। यहीं से मयंक जी का मंचीय काव्य पाठ ऐसा शुरू हुआ, कि अपने जीवन के अंत तक उन्होंने लगभग 250 से ज्यादा मंचों को सुशोभित किया। 1953 में मयंक जी मौदहा आ गए और रहमानिया एवं नेशनल इण्टर कॉलेज में 1956 तक सेवा की और मौदहा में उन्होंने अपना पहला काव्य संग्रह रूपरागिनी प्रकाशित कराया,मौदहा ससुराल थी और पत्नी चंन्द्रमुखी इसलिए रूपरागिनी का जन्म मौदहा में ही होना सम्भव था। 1956 में वह अपने घर हमीरपुर पहुँच चुके थे और विद्या मन्दिर इण्टर कॉलेज अब कवियों का नया केंद्र था। इसी बीच उनका एक और काव्य संग्रह ”जनता ही अजन्ता है” लिखकर छपने को तैयार था। पैसे की तंगी थी। लेकिन उनकी पत्नी ने अपने जेवर बेचकर इस काव्य संग्रह का प्रकाशन कराया।
1959 -60 में “तन मन की भाँवरें “ उपन्यास प्रकाशित हुआ, कुछ समय तक मयंक जी बुंदेलखंड के कश्मीर चरखारी में भी रहे उन्होंने यहीं पर अपनी सबसे प्रिय कविता का सृजन किया, चरखारी की पहाड़ियों एवं झीलों ने उन्हें अनुकूल माहौल दिया और उन्होंने लिखा
“रात ढलने लगी,चांद बुझने लगा तुम न आये सितारों को नींद आ गयी”
उनका व्यक्तिव बहुत सरल था वो कविता के बारे में कहते थे कि कविता में खण्डित अभिव्यक्ति नही होनी चाहिए, क्योंकि कविता अखण्ड अभिव्यक्ति है।
उनके जीवन की बहुत सारी घटनाएं उनके सरल एवं हठी स्वभाव को व्यक्त करती हैं। एक बार शहर में एक कार्यक्रम चल रहा था। गोपाल दास नीरज भी उस कार्यक्रम में आये और मयंक जी को 50 हजार रुपये का चेक देने लगे पर कविताओं के इस युग दधीचि ने लेने से मना करते हुए कहा कि मौलिक लिखो इस तरह कॉपी मत करो, ऐसे ही एक बार विद्या मंदिर में सब लोग उनसे कविता सुनाने के लिए कहने लगे लेकिन वो नहीं तैयार हुये,सब ने सोंचा की अगर विद्यार्थी जी कहें तो मयंक जी सुना सकते हैं।सबने विद्यार्थी जी से मयंक जी से कहने का आग्रह किया।
विद्यार्थी जी ने मयंक जी से कविता सुनाने को कहा तो गुस्से से उन्होंने आशु कविता सुनाना शुरू किया
“कवि हूँ कोई भांट नहीं हूँ,शोफा सेट हूँ खाट नहीं हूँ, मीठे का रसगुल्ला हूँ मैं,चौराहे की चाट नहीं हूँ”
उनकी बहुत सारी कविताओं का प्रसारण लखनऊ, इलाहाबाद तथा छतरपुर आकाशवाणी से भी हुआ। हमीरपुर महोत्सव में उनकी रचनाओं को नीरज जी, बच्चन जी के साथ नई पीढ़ी ने भी खूब सुना, मयंक जी शादियों के लिए अभिनन्दन ग्रंथ भी लिखते थे। और उन्होंने बहुत सारे स्वागत गीत भी लिखे। लेकिन कभी भी उनमें अपना नाम नहीं दिया। इसी बात को लेकर उनकी पत्नी उनसे कभी कभी नाराज होती थीं,इस गीतकार को 1979 में राज्य शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।उनका अभिनंदन ग्रंथ लिखा गया और विद्या मन्दिर में उत्सव मनाया गया। आज भी उनका एक नाटक गाँव का राजा अप्रकाशित है। हो सकता है कि कुछ और भी रचनाएँ हों जो अभी भी अप्रकाशित हों। अपने इतने सारे बेटे और बेटियों को खोने का गम उन्हें हमेशा दर्द देता रहा वो अक्सर उनकी याद में एक गीत गुनगुनाते थे।
“प्यारे लगते चाँद सितारे
लेकिन फिर भी सबसे प्यारे
वो तारे जो टूट गए है”
बुंदेलखंड के इस गीतकार की मौत भी उसी दिन हुई जिस दिन वो पैदा हुआ था।30 सितम्बर 2007 को मयंक धरती के अंक में सदा सदा के लिये सो गया।और रह गयी बस एक उसके द्वारा रचे अमर गीतों की एक खूबसूरत बगिया।
(लेखक एक पीजी कॉलेज में प्राचार्य है, लेख में उनके निजी विचार हैं)
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