नाज़नीन
नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आने के लिए देश की जनता से वादा किया था मजबूत शासन का, महंगाई, बेरोजगारी से छुटकारे का, सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास का लेकिन जिस तरह इस वक्त देश का महौल बना हुआ उससे तो यही ही लगता है कि सबका साथ सबका विकास कहीं पीछे छूट गया है।
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जब से नरेन्द्र मोदी दोबारा सत्ता में आए हैं तबसे- महंगे दूध-सब्जी-दाल, अनाज, महंगी दवाइयां, किसानों की दिक्कत, 45 सालों में सबसे अधिक बेरोजगाारी, गिरती जीडीपी, नौकरियों में छंटनी, जबरन सेवानिवृत्ति, महिलाओं के लिए असुरक्षित माहौल बना हुआ है। एशिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति भारत की मौजूदा विकास दर 4.5 फीसदी है जो छह साल में सबसे निचले स्तर पर है।
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सबके विकास की बात करें तो, अर्थव्यवस्था के विकास की दर लगातार नीचे गिर रही है। आर्थिक सुस्ती के इस माहौल में खाने-पीने की चीजें तो महंगी हो रही हैं और पेट्रोल-डीजल की कीमतें भी बढ़ी हैं। प्याज की कीमतें 100 फीसदी तक बढ़ गई हैं और दूसरी सब्जियों के दाम भी तेजी से बढ़े हैं।
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सबके साथ की बात करें तो, नागरिकता कानून को लेकर देश में बवाल मचा हुआ है, हर तबके के लोग सड़कों पर धरना दिए बैठे हैं। इससे हो यह रहा है कि जनता की रोजी-रोटी से जुड़े सवाल नेपथ्य में चले गए हैं। देश हत्याओं और बलात्कारों से सहमा हुआ है।
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अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे महिलाओं का सरेआम रेप कर उन्हें आग के हवाले कर रहे हैं। देश की इस स्थिति के बीच मोदी सरकार कुठ दिनों बाद अपने दूसरे कार्यकाल का दूसरा बजट पेश करेगी। पिछले बजट में देश को 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने का वादा किया था।
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देश को 8 फीसदी विकास दर और 5 ट्रिलियन (500 लाख करोड़ रुपए) की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना मोदी सरकार ने कई बार दिखाया है, लेकिन चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में विकास दर पिछली 26 तिमाहियों की न्यूनतम 4.5 फीसदी पर पहुंच गई और विकास दर के जो तमाम आकलन आए हैं, वे डरावने हैं। इस समय अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती कमजोर मांग की है जिसने मोदी सरकार की साख को तार-तार कर दिया है।
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पिछले बजट से लेकर अब तक देश में उद्योग जगत बुरे हाल में रहा, किसान-मजदूरों की हालत बद से बदतर हो गई, तेल की कीमतें बढ़ती रहीं, रुपया नीचे गिरता रहा और आम आदमी डेढ़ सौ रुपए किलो प्याज के बोझ के नीचे कराहता रहा। मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का प्रदर्शन 15 साल में सबसे खराब है, निवेश की हालत भी खस्ता है और जीडीपी का अनुमान केवल 5 प्रतिशत रहने का बतलाया जा रहा है।
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इतनी खराब हालत में भी कुछ उद्योगपतियों की सालाना आय और संपत्ति बढ़ रही है। महंगाई, बेरोजगारी, कामबंदी और आर्थिक मंदी के चैराहे पर खड़ा देश समझ ही नहीं पा रहा कि किधर जाए।
जहां मुड़े वहां या तो कुआं है या खाई। अगले बजट के पहले प्रधानमंत्री ने चुनिंदा उद्योगपतियों से मुलाकात की और अब आम जनता से सुझाव मांगने वाला ट्वीट किया है।
उन्होंने लिखा कि बजट देश की 130 करोड़ आबादी की आकांक्षा होती है और यह देश को विकास की ओर ले जाना वाला होता है। मैं देश की जनता को आमंत्रित करता हूं कि वे बजट के लिए अपने सुझाव दें।
अपर्याप्त बचत और निवेश ने अर्थव्यवस्था में सेंध लगा दी है। निर्यात निर्धारित लक्ष्य से काफी पीछे है। कृषि आय और ग्रामीण मजदूरी में कोई कारगर इजाफा नहीं हो रहा है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोग और खपत का अकाल पड़ गया है।
चालू वित्त वर्ष में केंद्र सरकार का राजस्व संग्रह लक्ष्य से कम है और राजकोषीय घाटा बढ़ने का भूत मोदी सरकार को सता रहा है। केंद्र सरकार की खराब माली हालत और निर्णयों से राज्यों की अर्थव्यवस्था भी चरमराने के कगार पर है।
बेरोजगारी से किसी भी देश की आर्थिक हालत का तुरंत पता चल जाता है।
मोदी सरकार ने दो करोड़ नौकरियां हर साल देने का वादा देश से किया था, लेकिन मोदी राज के छह सालों में रोजगार वृद्धि का रिकॉर्ड बेहद खराब रहा है और इस मोर्चे पर उसका प्रदर्शन मनमोहन सिंह सरकार के मुकाबले बौना ही साबित हुआ है।
मोदी राज में नोटबंदी और जीएसटी (वस्तु और सेवाकर) से रोजगार को भारी आघात लगा है, पर वे यह मानने को तैयार नहीं हैं। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग द इंडियन इकॉनोमी के आकलन के अनुसार नोटबंदी के कारण सूक्ष्म, छोटे और मध्यम उद्योगों में तकरीबन 15 लाख रोजगार खत्म हो गए हैं।
जीएसटी लागू होने के बाद इस क्षेत्र की हालत और भी खराब हुई है, जो रोजगार देने में सदैव संगठित क्षेत्र से आगे रहता है। साल 2017-18 के सावधिक श्रम बल सर्वेक्षण के अनुसार कृषि रोजगार में भारी गिरावट आई है और उसके मुकाबले गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार अवसरों में मामूली वृद्धि हुई है।
नतीजन बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी पर पहुंच गई है, जो पिछले 45 सालों में सर्वाधिक है। शहरी युवाओं में बेरोजगारी दर 19 फीसदी है और शहरी युवा महिलाओं में 27 फीसदी। भयावह बात यह है कि आजादी के बाद कुल रोजगार में पहली बार गिरावट आई है। साल 2012 में कुल रोजगार 47.20 करोड़ थे, जो 2017-18 में घटकर 41.50 करोड़ रह गए।
किसी भी देश की बचत और निवेश से पता चलता है कि देश आर्थिक रूप से आगे बढ़ने के लिए कितना तैयार है। जितनी अधिक बचत होगी, उतना अधिक निवेश होगा, पर देश की कुल बचत में सुराख पैदा हो गए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 2011-12 में देश की कुल बचत जीडीपी की 34.6 फीसदी थी, जो 2017-18 में गिरकर 30.5 फीसदी रह गई। कुल राष्ट्रीय बचत में घरेलू बचत का योगदान पिछले पांच सालों में औसत 61 फीसदी रहा है।
एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार कारोबारियों की उम्मीद भी क्षीण हुई है और वह इस साल दिसंबर तिमाही में 18 साल के न्यूनतम पर पहुंच गई है। ऐसे में उपभोक्ता और कारोबारी हाथ खोलकर खर्च करेंगे, इसकी उम्मीद बेमानी है। अब सरकारी खर्च बढ़ा कर ही तमाम विकराल आर्थिक समस्याओं पर धीरे-धीरे काबू पाया जा सकता है।
आगामी बजट में वित्तमंत्री क्या रास्ता अख्तियार करती हैं, इस पर सब निर्भर करेगा। क्या वे मांग बढ़ाने के लिए अधिसंख्य आबादी को टैक्स में राहत और गरीबों को नकद सहायता बढ़ाती हैं या बुनियादी परियोजनाओं पर खर्च बढ़ाकर मांग और रोजगार बढ़ाने की कोशिश करती हैं। राजकोषीय घाटे के प्रति वित्त मंत्री के रुख पर यह सब उपाय ज्यादा निर्भर करेंगे।