डा. रवीन्द्र अरजरिया
समय के साथ सब कुछ बदल जाता है। बदलाव का यह क्रम देश के भविष्य के साथ भी दिखना चाहिये। वर्तमान के शब्दों से भविष्य की तस्वीर बनती हुई दिखना चाहिये। बजट की घोषणाओं में लुभावने दृश्य देखने को मिले।
स्वर्णिम आभा की आशायें जागी। इन सब के बाद भी अतीत के कृत्यों से शंकाओं के बादल कुछ ज्यादा ही गहराने लगे। गांवों की ओर विकास की गति देने, किसानों को संपन्न बनाने, गरीबों का उद्धार करने, महिलाओं को सशक्त बनाने, शिक्षा के माध्यम से नवनिहालों की प्रतिभाओं को निखारने जैसे कितने ही वाक्यों ने सदन में तालियां बटोरीं।
भविष्य तो जब वर्तमान बनेगा, तभी उसका मूल्यांकन होगा परन्तु अतीत की समीक्षा तो की ही जा सकती है। मन में विचारों का प्रवाह तेज होने लगा। सरकार ने चिकित्सा के क्षेत्र में मेडिकल कालेजों की स्थापना का क्रम तेज करके स्वास्थ भारत के नारे को सार्थक करने का प्रयास किया। मेडिकल कालेजों की स्थापना जिला मुख्यालयों पर ही की जाने लगी।
गांवों के विकास को यदि वास्तविक दिशा देना ही थी, तो इन मेडिकल कालेजों को दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में खोला जाता। ऐसा करने पर गांवों की तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी। स्वस्थ सेवाओं का वास्तविक उपयोग होने के साथ-साथ गांवों में रोजगार के अवसर स्वमेव ही उपलब्ध हो जाते।
आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के बडे संस्थानों को भी मैट्रो सिटीज में स्थापित किया जा रहा है। जबकि इसके लिए परम्परागत उपायों का उपयोग लम्बे समय से आदिवासी क्षेत्रों में खासकर छत्तीसगढ के दुर्गम इलाकों में निरंतर हो रहा है। यदि वहां संस्थानों की स्थापना होती तो व्यापक शोध का धरातली परिणाम सामने आता। गांवों के जानकार लोगों के ज्ञान को विज्ञान की कसौटी पर कसकर प्रमाणित भी किया जा सकता।
अनेक योजनाओं को इस तरह के मंथन के बाद यदि लागू किया जाता तो आम आवाम को शब्दों के अलावा भी बहुत कुछ होते दिखता। गांवों से पलायन भी रुकता और विकास के सोपान भी तय होने लगते। विचार चल ही रहे थे कि कालबेल की मधुर धुन ने व्यवधान उत्पन्न किया। कुछ पलों बाद ही नौकर ने बताया कि लखनऊ से शोभित शर्मा जी आये हैं। शोभित जी देश के जाने माने विचारक हैं और हमारे पुराने मित्रों भी। उनके अचानक आने पर हमें आश्चर्य मिश्रित सुखद अनुभूति हुई।
तत्काल हमने आगे बढकर उनका आत्मिक स्वागत किया और सम्मान सहित ड्राइंग रूम में लेकर आये। कुशलक्षेम पूछने-बताने के बाद हमने उन्हें अपने चल रहे विचारों से उन्हें अवगत कराया। देश की विभिन्न सरकारों के कार्यकाल का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा कि गांवों, किसानों, मजदूरों, गरीबों के विकास की बडी-बडी बातें करके हमेशा ही इस वर्ग को छला जाता रहा है। वोट बैंक की राजनीति करने वालों ने कभी भी इस दिशा में सकारात्मक प्रयास किया ही नहीं है।
उनकी सोच वातानुकूलित कमरों से बाहर आकर सत्य के निकट कभी भी नहीं पहुंची। गांवों की वीरानगी बढती जा रही है। सरकारी दावों में उपलब्धियां दिनों दिन शीर्ष पर पहुंच रहीं हैं। गरीबी हटाओं आंदोलन अपनी प्रगति दिखा रहा है और दूसरी ओर गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या में भी निरंतर इजाफा हो रहा है। कौन से आंकडे सही हैं, यह तो शायद ही कभी सामने आ सके।
हमने उनकी व्याख्यात्मक समीक्षा को बीच में ही रोकते हुए वर्तमान बजट में ग्रामीण विकास की वास्तविक संभावनाओं की विवेचना करने का निवेदन किया। कर्ज में डूबे किसानों की सम्पत्ति को नीलाम करने के सरकारी प्रयास और कर्जा मुक्ति की आंकडेबाजी एक साथ चल रही है।
दोधारी नीतियां व्यवहार में अपनाई जा रहीं हैं। माल्या, नीरव जैसों को बैंकों ने भारी कर्जा दिया और दूसरी ओर बेरोजगारों की लम्बी फेरिश्त छोटे से कर्ज के लिए भी परेशान हो रही है। बजट के प्राविधानों की धरातली सफलता ही करायेगी वास्तविकता के दिग्दर्शन।
चर्चा चल ही रही थी कि तभी नौकर ने चाय के साथ स्वल्पाहार की सामग्री सेंटर टेबिल पर सजाना शुरू कर दिया। विचार मंथन में व्यवधान उत्पन्न हुआ किन्तु तब तक हमें अपने चिन्तन को दिशा देने की पर्याप्त सामग्री प्राप्त हो चुकी थी। सो भोज्य सामग्री को सम्मान देने की गरज से हमने सेन्टर टेबिल की ओर रुख किया। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। जय हिंद।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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