क़रीब महीना भर पहले बसपा ने संकेत दिए थे कि भाजपा विरोधी संभावित गठबंधन बहन मायावती को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करे तब ही गठबंधन में सहभागिता निभाना संभव होगा।
फिलहाल बसपा की इस शर्त पर कोई विपक्षी दल विचार करने को भी तैयार नहीं है। ऐसे में बसपा यूपी विधानसभा में अपने से ढाई सौ गुना से भी अधिक सीटों वाली भाजपा से कैसे लड़ेगी ये बड़ा प्रश्न है। राजा से मुकाबले में आने के लिए पहले प्यादों को रास्ते से हटाना पड़ता है। इसलिए बसपा की हालिया चुनावी रणनीतियों में भाजपा के बजाय सपा को शिकस्त देने की ज्यादा कोशिश रहती है। सपा के मुस्लिम जनाधार में सेंध लगाकर बसपा भाजपा से लड़ने की स्थिति में आ सकती है, लेकिन इस कोशिश में बसपा इसलिए कामयाब नहीं हो पा रही क्योंकि सपा अपने वोट प्रतिशत और सीटों से ये प्रमाणित कर रही है कि यूपी में अकेले वो ही भाजपा से लड़ने कि स्थिति में है। इस संदेश के जरिए सपा आगामी लोकसभा में भी सत्ता विरोधी एकमुश्त वोट हासिल करना चाहती है। सपा के ऐसी संदेश की ताकत के हथियार को कुंद करने के लिए बसपा सुप्रीमो मायावती का राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा में शरीक होना काफी था। ऐसे में बिना शर्त संभावित गठबंधन की परिकल्पना की बुनियाद में शामिल होकर बसपा यूपी के भाजपा विरोधी मतदाताओं का विश्वास जीत सकतीं थीं।
ख़ासकर मुस्लिम मतदाता लोकसभा चुनाव में उस क्षेत्रीय दल को पहली पसंद मानेगा जो भाजपा के खिलाफ सबसे मुखर कांग्रेस के साथ आकर विपक्षी एकता में योगदान देगा, त्याग करेगा और गठबंधन के रास्ते की रुकावट नहीं बनेगा। बसपा राहुल गांधी की यात्रा में शामिल होकर उन आरोपों से भी बरी हो सकती थी जिसके तहत उसे भाजपा की बी टीम बताने की तोहमते लगती रही हैं। इस धारणा ने ही पिछले लोकसभा चुनाव में अकलियत को बसपा से दूर कर दिया था। राहुल के आमंत्रण के जवाब में सिर्फ शुभकामनाएं देकर किनारा करने के बजाय कांग्रेस के नजदीक आकर बसपा सपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती थीं।
मायावती राहुल की भारत जोड़ों यात्रा को किसी राजनीतिक दल का ना मान कर भाजपा सरकारों के खिलाफ आंदोलन बताकर यदि राहुल के कंधे से कंधा मिलाकर यात्रा में शामिल होतीं तो अखिलेश यादव को राजनीतिक शिकस्त मिल सकती थी। सत्ता से नाखुश जनता को ये संदेश मिलता कि वो सरकार या किसी एजेंसी से नहीं डरती हैं। इस तरह दलित-मुस्लिम समीकरण फार्मूले का अप्रत्यक्ष इशारा कर सत्ता विरोधी मतदाताओं को आकर्षित किया जा सकता था।
लेकिन अब लोकसभा चुनाव से पहले महागठबंधन ने सूरत इख्तियार की और सपा और कांग्रेस के बीच सियासी तालमेल बन गया तो बसपा अलग-थलग पड़ जाएगी। ये आरोप और भी गहरे हो जाएंगे कि वो भाजपा की बी टीम है। सरकार और सरकारी एजेंसियां से डरकर भाजपा के खिलाफ हो रही महागठबंधन की ताक़त को बसपा कमजोर करना चाहती है!
हांलांकि विपक्षियों का अभी कुछ ऐसा रुख नहीं लग रहा है कि आने वाले समय में भाजपा विरोधी सभी दल एक हो सकेंगे।
जिस तरह इंदिरा गांधी सरकार के ख़िलाफ़ देशभर के विपक्षी एकजुट हो गए थे ऐसा होने के कोई आसार नहीं हैं। सारे विपक्षी एकजुट हो जाएं ऐसा संभव नहीं लगता। क्योंकि ना ऐसे हालात हैं, ना ऐसी स्थितियां और ना ही विपक्ष में एकजुटता का माहौल है। जब जनता का आक्रोश सिर चढ़कर बोलता है तो ऐसे में भी जनता के दबाव में विपक्षियों को अपनी-अपनी अकड़ और आपसी प्रतिद्वंदता त्याग कर लचीला और एकजुट होना पड़ता है।फिलहाल लोकसभा चुनाव से पहले की लड़ाई विपक्षी ख़ेमे के बीच इस बात की होगी कि भाजपा में कौन सक्षम है और कौन अक्षम।
उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकजुटता के रास्ते में कुछ ज्यादा ही कांटे हैं। भाजपा से लड़ने वालों में सपा, बसपा और कांग्रेस कोई किसी के साथ चलने के लिए तैयार नहीं। सपा का तर्क है हम किसी के साथ क्यों आएंगे जिसको हमारे साथ आना है आ जाए। सपा ये इसलिए कह रही है कि बसपा की एक और कांग्रेस की दो विधानसभा सीटों के नजरिए से देखिए तो सपा के नाखून के बराबर भी नहीं हैं इन दलों की सियासी हैसियत।
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हांलांकि कांग्रेस का ये तर्क भी वाजिब हो सकता है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मतदाताओं का पैटर्न बदलता है। मतदाता राष्ट्रीय दल को अधिक महत्व देता है। कांग्रेस राष्ट्रीय दल है, सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। वो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को चुनौती दे रही है। इधर बसपा भी फिलहाल झुकने को तैयार नहीं। विधानसभा चुनाव में भले ही एक सीट पर सिमट गई हो पर बसपा का लगता है कि उसका कोर वोट आज भी पंद्रह फीसद के आसपास है। मुस्लिम वोट और सरकार से नाखुश वोटर एकजुट होकर उसका समर्थन कर दें तो वो यूपी में भाजपा को टक्कर दे सकती है। इस उधेड़बुन के बीच बसपा भारत जोड़ों यात्रा में शामिल होकर मुसलमानों का दिल जीतने का मौका फिलहाल चूक चुकी है।
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