राजेन्द्र कुमार
बीजेपी सांसद डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी बीते दिनों कहा वे ब्राह्मण हैं चौकीदार नहीं बन सकते ! फिर उन्होंने दो टूक अंदाज में बताया कि ब्राह्मण आज भी ज्ञान से, साहस से, बेबाकी में जीता है। ब्राह्मण के दिमाग में गोबर भरा नहीं है। और वह किसी का पिछलग्गू नहीं बन सकता।
चुनाव के इस माहौल में सुब्रह्मण्यम स्वामी के कहे का अर्थ है। आज विभिन्न दलों में वोट बैंक के विस्तार की मची होड़ ने यूपी की सियासत का कई दशक पुराना मंडल-मुखी चरित्र इस बार बदल दिया है।
अब सूबे में गठबंधन राजनीति की दुश्र्वारियों से आजिज पार्टियां अपने बूते केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के लिए ऐसे विस्मयकारी सामाजिक प्रयोग कर रही हैं कि मंडल राजनीति के इस गढ़ में मुस्लिम वोटबैंक के बाद अब सवर्ण कार्ड मौजूदा सियासत का ट्रम्प कार्ड बन गया है।
यादव वोट बैंक : जागरूक, ताकतवर और दांव-पेच में माहिर!
बीते लोकसभा चुनावों में ऐसा माहौल नहीं था, पर अब तो सत्ता पर काबिज होने के लिए कांग्रेस के नेता भी मंच से राहुल गांधी को पंडित बताने लगे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का मंदिरों में जाना और पूजा-पाठ करने से लेकर उनका जनेऊ दिखाने तक को भी सवर्णों में पैठ बनाने की नजर से ही देखा जाता रहा है।
दूसरी तरफ मोदी सरकार अपने को ब्राह्मण हितैषी साबित करने के लिए गरीब सवर्णों के दस प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला करती है, और सुब्रह्मण्यम स्वामी खुलकर ब्राह्मण की खासियत बताता रहे हैं। जाहिर है कि ये सब ब्राह्मण समाज का स्नेह पाने की कवायद है।
आखिर अचानक ब्राह्मण सारे राजनीतिक दलों के लिए इतना खास क्यों हो गया? क्यों मोदी सरकार ने ब्राह्मण समाज को खुश करने के लिए गरीब सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देना मंजूर कर लिया। और अब सूबे की राजनीति में सवर्णों को महत्व दिया जा रहा है?
बाबा साहब भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर सुशील पाण्डेय इन सवालों पर कहते है कि बहुजन समाजवादी पार्टी (बसपा) तथा समाजवादी पार्टी (सपा) ने विपरीत-ध्रुवी जातियों को एकजुट करने का जो करिश्मा नब्बे के दशम में किया, उसी तर्ज पर अब सूबे के सवर्ण वोटबैंक को साथ लेने की कवायद सभी दल करने लगे हैं।
अपने तर्क को स्पष्ट करने के लिए प्रोफ़ेसर पाण्डेय 1993 व 1996 विधानसभा चुनावों का सन्दर्भ देते हैं, जिनमें सपा व बसपा की सीटों की संख्या आश्चर्यजनक ढंग से स्थिर रही थी।
उनके मुताबिक, यही वो समय था, जब इन पार्टियों ने अपने संतृप्त वोट बैंकों का विस्तार करने के लिए राजनीतिक गठबंधन के बजाय सामाजिक गठबंधन के विकल्प पर सोचना शुरू किया। तब दोनों पार्टियों के सामने लगभग 20 फीसदी सवर्ण जातियों (ब्राह्यण, ठाकुर, वैश्य और कायस्थ) को करीब लाने का विकल्प था। जिसे अपने पक्ष में करने की कोशिश बसपा और सपा ने शुरू की। इन दलों के प्रयास से परंपरागत जातीय कटुता खत्म होने में थोड़ा वक्त लगा और 2002 में इन दलों की रणनीति का थोड़ा असर दिखा।
वर्ष 2007, 2012 और 2017 के विधानसभा चुनावों में इसके चौंकाने वाले नतीजे दिखे। जब पहले बसपा प्रमुख मायावती और फिर सपा ने सूबे में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनायी। 2017 के विधान सभा चुनावों में भी भाजपा की बड़ी जीत के पीछे सवर्ण वोटरों की ही अहम भूमिका मानी जाती है। पार्टी के सर्वाधिक 44 फीसद यानी सवा सौ से अधिक सवर्ण विधायक जीते। भाजपा प्रत्याशियों की जीत या हार में 50 फीसद योगदान सवर्ण वोटरों का ही रहा है।
प्रो.पाण्डेय कहते है कि इन लोकसभा चुनावों में भी सपा और बसपा वास्तव में उसी वोट बैंक पैटर्न की ओर बढ़ रहे हैं, जिसके बूते कांग्रेस ने लम्बे समय तक सत्ता अपने कब्जे में रखी थी। जिसे देखते और समझते हुए भाजपा ने भी इस बार पिछड़ों को सवर्णो के साथ जोड़ने पर जोर दिया है।
इसकी क्या वजह है, इसे लेकर प्रो.पाण्डेय का कहना है कि बीते तीन दशक के दौरान यूपी में एक भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना। कल्याण सिंह, मुलायम सिंह और मायावती ही यूपी में सीएम पद के निर्विवाद दावेदार रहे। भाजपा ने राजनाथ सिंह और राम प्रकाश गुप्त को यह मौका भी तब दिया, जब कल्याण सिंह भाजपा छोड़कर चले गये थे।
कल्याण के पार्टी में वापस लौटते ही 2007 विधानसभा चुनाव में उन्हें दुबारा प्रमुख भाजपा नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया गया था। अब सूबे में राजनीति की यह प्रवृत्ति बदली है, वो भी मुख्य रूप से उस बसपा की पहल पर, जिसकी स्थापना दलित राजनीति की कल्पना पर आधारित थी।
दलित वोट बैंक आज भी बसपा का आधार है, लेकिन हमेशा मायावती के इर्द-गिर्द नजर आने वाले सतीश चन्द्र मिश्र का चेहरा अब बसपा की मौजूदा राजनीति और रणनीति का मुकम्मल फ्रेम भी प्रस्तुत करता है। सवर्णो मतों को साधने के लिए मायावती अब सतीश चंद्र मिश्र को पार्टी में मिले महत्वों को हर जगह बताती है।
मायावती की तर्ज पर ही अब काग्रेस सपा और भाजपा भी सवर्णो मतों को अपनी तरफ लाने के प्रयास में है। और यह सब इसलिए है क्योंकि अब हर राजनीतिक दल ने सवर्ण या ब्राह्मण मतदाता की ताकत को समझ लिया है।
अब हर राजनीतिक दल यह मानता है कि प्रदेश के सवर्ण मतदाता चुनाव में सिर्फ मतदान ही नहीं करते, बल्कि जनमत तैयार करने में भी इनकी बड़ी भूमिका है। तकरीबन 23 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलितों से लेकर पिछड़े और अल्पसंख्यकों की अहम भूमिका है। लेकिन, 20 फीसद सवर्णों की आबादी चुनावी हवा का रुख बनाती और बिगडती है। और यूपी की तकरीबन 40 लोकसभा सीटों पर सवर्णों की निर्णायक भूमिका है।
पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा राज्य की 80 में से रिकॉर्ड 73 (सहयोगी अपना दल की दो सीटें सहित) सीटों पर कब्जा जमाने में कामयाब रही तो इसमें इन मतों का बहुत योगदान रहा था। इनमें से 37 सीटें तो ऐसी मानी जाती हैं, जिन पर भाजपा की जीत अपर कास्ट के वोटरों ने ही तय की थी।
यही वजह है कि इस बार के चुनावों में दलित, पिछड़े और मुस्लिम के साथ ब्राह्मण समाज को भी महत्व हर पार्टी दे रही है। बीजेपी ने तो अब तक घोषित 61 प्रत्याशियों में से 29 सवर्ण प्रत्याशियों को टिकट देकर अपने सवर्ण प्रेम को दर्शा भी दिया है। बसपा, कांग्रेस और सपा द्वारा लोकसभा चुनावों में उतारे गए उम्मीदवारों की सूचियों में इन दलों के सवर्ण कार्ड की महत्ता दिए जाने का भी दर्शन होता है।
चुनाव लड़ रहे विभिन्न दलों ने जिस तरह से इस बार बिना हो हल्ले के सवर्ण कार्ड खेला है, उसे लेकर पत्रकार सुभाष मिश्र कहते हैं कि इस बार के चुनावों अब खुलकर विभिन्न दल सवर्णों को अपने पाले में लाने में जुट गए हैं। क्योंकि सभी राजनीतिक दलों ने यह मान लिया है कि यूपी में कोई दल सवर्ण जातियों, खासकर ब्राह्मणों के समर्थन बगैर केंद्र की सत्ता पर काबिज होने की कल्पना ही नहीं कर सकता। इसलिए बसपा, सपा, कांग्रेस और भाजपा जहां ब्राह्यण नेताओं तथा कार्यकर्ताओं को महत्व दे रही है।
आंकड़ों में ब्राह्मण और अन्य
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक सूबे की आबादी 19.98 करोड़ (वर्तमान में अनुमानित आबादी 23.11 करोड़) है। सवर्णों की आबादी का कोई अधिकृत आंकड़ा तो नहीं है लेकिन, सूबे में तकरीबन 20 फीसद आबादी सवर्णों की मानी जाती है, जिसमें सर्वाधिक लगभग 12-13 फीसद ब्राह्मण, तीन-चार फीसद क्षत्रिय, दो-तीन फीसद वैश्य, एक-दो फीसद त्यागी-भूमिहार है। राज्य में अनुसूचित जाति की आबादी 4.14 करोड़ यानी लगभग 21 फीसद है। अनुसूचित जनजाति की आबादी 11.34 लाख यानी 0.6 फीसद है। ओबीसी आबादी के भी अधिकृत आंकड़े तो नहीं है लेकिन, जानकार 44 फीसद जनसंख्या ओबीसी की मानते हैं। 19 फीसद मुस्लिम आबादी में दलित व पिछड़े मुस्लिम भी है।