शबाहत हुसैन विजेता
अयोध्या का मसला एक बार फिर देश की सुप्रीम अदालत के गलियारों में चक्कर लगाने वाला है। बाबरी मस्जिद और राम मंदिर के नाम पर चली मैराथन जंग के बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने रिव्यू पिटीशन दाखिल करने का जो फैसला लिया है उसे लेकर एक बार फिर बहस-मुबाहिसे का दौर शुरू होने वाला है।
बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्म भूमि विवाद का अदालती फैसले के बावजूद अंत न हो पाने की वजहों पर विमर्श अगर अब भी न किया गया तो आने वाली पूरी सदी में इस मसले का हल नहीं हो पायेगा।
सुप्रीम अदालत के फैसले पर रिव्यू पिटीशन पर खुले दिल और दिमाग से बात हो तो छलनी के 72 छेद नज़र आने लगते हैं। इस रिव्यू पिटीशन के लिए अदालत और सरकार दोनों बराबर के ज़िम्मेदार हैं।
हिन्दुस्तान की सुप्रीम अदालत ने अपना फैसला सुनाने के पहले ही तमाम बन्दिशें लगाई थीं ताकि मुल्क के अमन पर आंच न आने पाए लेकिन हकीकत यही है कि उन बंदिशों को सरकार लागू नहीं कर पाई। अगर सरकार मुस्तैद रही होती और अदालत ने अपने फैसले में कुछ और लाइनें जोड़ दी होतीं तो 9 नवम्बर 2019 देश और दुनिया के लिए इतिहास की तारीख बन गई होती लेकिन छोटी-छोटी लापरवाहियों की वजह से इतिहास रचते-रचते राह गया।
रिव्यू पिटीशन पर बात करने से पहले अदालती फैसले पर बात कर लें। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने के सबूत नहीं मिले। अदालत ने 1949 में मस्जिद में मूर्तियां रखने और 6 दिसम्बर 1992 को मस्जिद ढहाने पर नाराजगी जताई लेकिन विवादित ज़मीन रामलला के हवाले कर दी।
सुप्रीम कोर्ट अगर यहीं पर यह लाइन भी जोड़ देती कि मस्जिद गिराने वालों पर चलने वाला आपराधिक मुकदमा चलता रहेगा और उसकी माकूल सज़ा मिलेगी । विवादित ज़मीन को राम मंदिर के लिए इसलिए दिया जा रहा है कि लम्बे वक़्त से चल रहा विवाद खत्म हो जाये और मुल्क में अमन व भाईचारा कायम रह सके।
अदालती फैसले के बाद केन्द्र और राज्य सरकारों को सोशल मीडिया पर पैनी निगाह रखनी चाहिए थी। अदालती फैसले के बाद से लगातार सोशल मीडिया पर जिस तरह से मुसलमानों को उनकी हार का अहसास दिलाते हुए काशी और मथुरा की बातें की जारही हैं उसकी वजह से मुल्क में सुकून की हवा अब तक नहीं बह पाई है।
सुप्रीम अदालत ने बाबरी मस्जिद के मुआवजे के तौर पर 5 एकड़ ज़मीन देने की बात कही तो सोशल मीडिया पर उसे लेकर भी मुसलमानों को तरह-तरह के उलाहने दिए जा रहे हैं कि चलो वहां अस्पताल बनाते हैं, चलो वहां अनाथ आश्रम बनाते हैं। गोया सोशल मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले लिखे जा रहे हों और सरकारें इस मुद्दे पर या तो आंखें बंद किये हैं या फिर इस बात की खुली छूट दिए हुए है।
अयोध्या मामले के पूरे मुकदमे में मुसलमानों ने किसी मुआवजे की मांग नहीं की थी। यह पांच एकड़ ज़मीन भी मुसलमानों ने नहीं मांगी थी। सुप्रीम अदालत ने 9 नवम्बर को वास्तव में फैसला दिया था, इंसाफ नहीं किया था। इंसाफ तो यह होता कि जिस तरह मंदिर के लिए सरकार को ट्रस्ट बनाने के लिए कहा उसी तरह मस्जिद के लिए भी ट्रस्ट बनाने की बात कहती। राम मंदिर ट्रस्ट में मंदिर से सम्बंधित लोग और अधिकारी होते तो मस्जिद के ट्रस्ट में वक्फ बोर्ड और अल्पसंख्यक विभाग से सम्बंधित अधिकारी होते। यह ट्रस्ट मुसलमानों को मस्जिद बनाकर देता। सिर्फ मस्जिद के लिए ज़मीन देकर मसला खत्म कैसे हो जाएगा जबकि अयोध्या में मस्जिद होने और उसके तोड़े जाने के पुख्ता सबूत मौजूद हैं।
हालांकि मुसलमानों को न तो सरकारी मस्जिद की दरकार है और न ही किसी मुआवज़े की लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह दिल बड़ा कर यह मान लिया कि मंदिर तोड़े जाने के सबूत नहीं मिले और मस्जिद तोड़ा जाना गलत था तो वहीं पर यह भी लिख दिया जाता कि हिन्दू और मुसलमान इस मुल्क में भाई-भाई की तरह से रहते आये हैं। राम मंदिर हिन्दुओं की आस्था का मुद्दा है। मुसलमान वहां पर मंदिर बन जाने दें और मस्जिद वह किसी दूसरी जगह बना लें।
अदालती फैसले में अगर इस तरह की बात होती तो अमन पसंद मुसलमान ने उसी दिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मान लिया होता। तमाम अदालती चूकों के बावजूद मुसलमान फैसले पर खामोश रह सकता था बशर्ते सोशल मीडिया पर उससे छेड़खानी नहीं हुई होती।
यह मामला अब भी हल हो सकता है बशर्ते सरकार सोशल मीडिया पर लगातार चल रही नफरत फैलाने वाली मुहिम पर रोक लगा ले। देश की सुप्रीम अदालत भी उन चेहरों की तरफ एक बार नज़र दौड़ा ले जो मुल्क का माहौल खराब करने में लगे हैं।
अदालत बहुत बड़ी है। उसकी बहुत इज़्ज़त है। उसकी हर बात कुबूल है लेकिन यह देश अदालत से भी बड़ा है। इस देश का संविधान अदालत से बड़ा है जो मुल्क में सभी मज़हबों को एक जैसा अधिकार देते हुए अपने मज़हब के बताए रास्ते पर चलने का हक़ देता है। संविधान से बड़ी न सरकार है न अदालत। राम इस देश के आराध्य हैं, उनके नाम पर नफरत फैलाने को संज्ञेय अपराध माना जाना चाहिए।