विनीता मिश्रा
हर वो चीज़ जो हमें बर्बाद कर देगी उसमें हम अपनी मर्ज़ी से ही फंसते हैं। एक एक पन्ना पलटता रहा और पन्नी की कहानी हमारी आंखों के सामने एक दुनिया रचती रही। निश्चय ही उपन्यास में पाठक को पढ़ने के लिए मजबूर करने वाले सभी तत्व मौजूद हैं। पर न जाने क्यों मुझे लगता रहा कि यह उपन्यास स्त्रियों के मन को अधिक भाएगी। हो सकता है मैं गलत भी होऊं…. मन्नू भंडारी, शिवानी, अमृता प्रीतम, अमृतलाल नागर, प्रेमचन्द जैसे साहित्यकारों का जिक्र तो महुवा लोक कथा में महुवे से चमेली की महक का आना प्रेम के दर्द का अहसास करा जाता है।
ज्योत्सना सिंह के उपन्यास पन्नी के कहानी के किरदार अपने में पाठक को उलझाए रखते हैं। क्लाइमेक्स की कोई बात नहीं करूंगी वरना लेखिका और पाठक दोनों के साथ अन्याय होगा। लेखिका का छोटी छोटी बातों और चीज़ों का अवलोकन और सही जगह पर उनकी उपमा दे देना काबिल ए तारीफ़ है।
जो उपमाएं मुझे बहुत भाईं – “सूरज की किरणों की सेंध की तरह लेखिका ने अपनी कलम से लोगों के दिलों में सेंध लगाने का भरपूर प्रयास किया है।” “प्रेम एक मद है तो विवाह उस मद का हैंग ओवर।” “न्यायालय में बंधी गांठ घर की देहरी लांघ फिर न्यायालय जा पहुंची।”
भाषा वही जो आम जीवन में बोली जाती है। सरल हिन्दी, कुछ ऊर्दू यानि पूरी तरह हिन्दुस्तानी। हां साथ में अवधी का प्रयोग चरित्रों और स्थान को बहुत स्वाभाविक करता चलता है। गांव की किशोरी के द्वारा कपड़े धो देने को छांट देना कहना बचपन की याद दिला गया। जिसे आधुनिक शहरी लोग समझ ही नहीं पाएंगे कि कपड़े छांटने का मतलब क्या है? पर मुझे तो बहुत मजा आया।
ज्योत्सना सिंह के इस उपन्यास में दोस्ती, प्रेम और देहाकर्षण के साथ साथ अतीत के निर्णय किरदारों के अवसरवादिता और विवशता दोनों को साथ लिए चलते हैं। जो आधुनिक युग के संबंधों का सच है। अब न पूरे देवदास हैं और न पूरे खलनायक। शायद आम जीवन का आम आदमी ऐसा ही है। स्त्री चरित्र भी उतने ही अवसरवादी हैं जितने परंपरावादी। नायिका की खोज कर पाना उपन्यास का चरम है। जिसे लेखिका सीप में मोती की तरह छुपा ले गई है।
यूं तो इस माला के सभी मोती नायाब भी हैं और अति साधारण भी। यही लेखिका की सफलता है। देहाकर्षण का स्थान न लेखिका के प्रेम में है न जीवन में। देहाकर्षण को लिखते हुए लेखिका बड़ी कुशलता से न्यायिक, मर्यादित और संतुलित अंकुश लगाए रहती है। जहां कहानी की मांग के अनुरूप आजकल के लेखक ऐसे अवसरों का पूरा लाभ उठाते हैं। वहीं लेखिका बड़ी कुशलता से बच निकलती है। कभी कभी मुझे लेखिका की दुविधा ज़्यादा लगी।
आख़िरी पैराग्राफ, जहां नायिका सीढ़ी और आसमान के बीच दुविधा में है, वहां सही तरीके से वर्णन हुआ।सीढ़ी भी जाकर आसमान ही तो देखना चाहती है।आसमान के लिए सीढ़ी की ज़रूरत नहीं। बल्कि स्वयं और स्वयं के भीतर से ही मिल सकता है आसमान। ये अपनी क्षमता है इसे किसी सहारे की ज़रूरत नहीं। सहारा छत को चाहिए, दीवारों का, खंभों का, बीम का और सीढ़ी का। ये सब भी छत के भीतर की दुनिया है जिसे लेखिका तोड़ देना चाहती है न सिर्फ़ अपने लिए बल्कि सभी के लिए यही भाव रखती है। छत के बाहर तो खुला अनन्त आकाश ही है।
लेखिका एक विचारक स्वभाव रखती है इसलिए कहानी के साथ साथ कुछ विचार भी साझा करती है और अपना दृष्टिकोण पक्ष विपक्ष का सहारा लेते हुए कहती है। निश्चय ही लेखिका ने खूब पढ़ा है। हां एक बात यह कि मुझे लेखिका के कहन में शिवानी की शैली और उनकी नायिकाएं, रायबरेली और रायबरेली के गांव में शिवानी का अल्मोड़ा और पहाड़ी गांव की सुगन्ध मिल रही थी। अन्त में, समाज का पूरा स्वरूप ही अपने ऊपर पन्नी का आवरण ओढ़े बैठा है। गांव की मिट्टी भी पन्नी निगल जा रही है। अन्त में लेखिका को बधाई देते हुए इतना ही कहूंगी:-
जब भावों भावनाओं का सागर उमड़ा है। तब पन्नी का अक्स पन्नों पर उभरा है।