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भाजपा की शिखर यात्रा का सबसे अहम पड़ाव सुषमा स्वराज के नाम रहेगा

 

केपी सिंह 

भारतीय जनता पार्टी आज जिस शिखर पर है वहां तक पहुंचने में सुषमा स्वराज का योगदान बेहद महत्वपूर्ण है। सोनिया गांधी की प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी के प्रगल्भ विरोध और बेल्लारी में उनके खिलाफ चुनाव लड़ने के फैसले के बतौर बीज रूप में उन्होंने जो कार्रवाइयां की उसी की बदौलत देश के उदार माहौल में एक बड़ा बदलाव आया और लोगों का मानस पलट गया।

सुषमा जी को भी नसीब नहीं हुआ मुकम्मल जहां

एक समय उनके साथ भाजपा की पहली महिला प्रधानमंत्री बनने की संभावना जोड़ी जाने लगी थी लेकिन आरंम्भ से ही कीर्तिमान और इतिहास बनाने वाली सुषमा स्वराज को भी आखिर में मुकम्मल जहां नहीं मिल पाया।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें अपनी पहली सरकार के मंत्रिमंडल में भी शामिल किया था और विदेश मंत्रालय का अहम दायित्व भी सौपा था जिससे पहली पूर्णकालिक महिला विदेश मंत्री बनने का रिकार्ड उनके नाम लिखा गया। लेकिन दूसरी ओर यह भी तथ्य है कि नरेन्द्र मोदी कहीं न कहीं उन्हें प्रतिद्वंदी मानकर उनसे सशंकित रहे थे। हालांकि अंत भला सो सब भला की तर्ज पर आखिरी समय में उनके मन का कलुष सुषमा जी को लेकर पूरे तौर पर धुल गया इसलिए उनके अंतिम दर्शन के समय प्रधानमंत्री की रूलाई दिल की गहराई से फूटी। इस दौरान जो उनके आंसू बहे उनका पानी एकदम निर्मल था।

ट्वीट जो पीएम को सबसे बड़े एहसान के तौर पर रहेगा याद

मृत्यु के कुछ घंटे पहले सुषमा स्वराज ने कश्मीर पर उठाये गये निर्णायक कदम को लेकर मोदी को ट्वीट किया ‘‘अभिनंदन प्रधानमंत्री। अपने जीवन में मै इसी को देखने की प्रतीक्षा कर रही थी। ‘‘ उनका यह ट्वीट प्रधानमंत्री को सबसे बड़े एहसान के रूप में याद रहेगा क्योंकि इसके कुछ ही घंटे बाद उनके नाटकीय निधन की पृष्ठभूमि में कश्मीर पर उनके फैसले को लेकर यह ट्वीट सबसे मजबूत तस्दीक बन गया।

सुषमा स्वराज केवल 67 वर्ष की आयु में दुनिया से चली गई जो कोई खास उम्र नहीं है। लेकिन बहुत लंबी उम्र जीने वाले लोगों में भी विरले ही होते हैं जिन्हें जीवन की पूर्णता प्राप्त हो पाती है। उनका ट्वीट बताता है कि वे इस पूर्णता पर पहुंच गयी थी जिसके बाद उनकी जीवन यात्रा पर विराम अनिवार्य परिणति की तरह था।

महत्वाकांक्षा का उन्माद सिर नहीं चढ़ा

2009 में जब अपने गुरू लालकृष्ण आडवाणी की जगह जब उन्हें नेता प्रतिपक्ष घोषित किया गया तो उनका नाम प्रधानमंत्री पद की दौड़ में काफी आगे आ गया था। हालांकि इसके बावजूद उन पर महत्वाकांक्षा का उन्माद सवार नहीं हुआ। वे पहले अपने गाड फादर लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का एक मौका दिलाने के लिए इसके बाद भी जूझती रहीं।

इसी बीच संघ के वीटो की वजह से नरेन्द्र मोदी का नाम ऊपर आ गया। जिसका उन्होंने विरोध भी किया पर जब गोवा में आयोजित पार्टी के संसदीय दल की बैठक में 2014 के चुनाव के लिए प्रधानमंत्री के तौर पर उनके गुरू और स्वयं उनको पीछे छोड़कर नरेन्द्र मोदी के नाम पर सहमति जाहिर कर दी गई तो उन्होंने बिना कोई कुंठा पाले पार्टी के निर्णय को सहर्ष स्वीकार कर लिया।

वैसे पहली बार प्रधानमंत्री की शपथ लेते समय नरेन्द्र मोदी के यह बस में भी नहीं था कि वे अपने मंत्रियों की सूची में सुषमा स्वराज का नाम शामिल नहीं करते। तब संघ के आशीर्वाद की उन्हें बहुत जरूरत थी और संघ सुषमा स्वराज की भी उपेक्षा किसी कीमत पर नहीं होने देने के लिए कटिबद्ध होगा इसलिए सुषमा स्वराज को अहम मंत्रालय भी मिला।

मोदी क्यों रहते थे सशंकित

हालांकि सुषमा स्वराज ने मोदी मंत्रिमंडल में अपने को समानान्तर शक्ति केन्द्र के रूप में देखे जाने की हर कोशिश से परहेज रखा फिर भी यह यथार्थ है कि मोदी उन्हें लेकर आश्वस्त नहीं रह पाये थे। इस कारण मोदी सरकार पार्ट-01 में यह चर्चायें बार-बार छिड़ी रहती थी कि प्रधानमंत्री सुषमा स्वराज के महत्व को सीमित करने के लिए विदेश मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर परराष्ट्र मामलों में सीधी दखलंदाजी कर रहे हैं।

विदेश मंत्री रहते हुए ही सुषमा स्वराज गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गई थी हालांकि उनको बीस बरस से मधुमेह की शिकायत थी लेकिन 2016 में उनका गुर्दा ही फेल हो गया जिसे बदलवाने के लिए उन्हें मेजर आपरेशन कराना पड़ा। फिर भी वे काम करती रही। अचानक 2019 में जब उन्होंने लोकसभा का चुनाव न लड़ने का एलान स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए किया तो कहीं न कहीं मोदी को निश्चिंत करने के लिए उनके रास्ते से खुद हट जाने का तकाजा वे महसूस कर रही थी।

मानवीय पहल के फैसलों से बटोरी सुर्खियां

विदेश मंत्री के रूप में उन्होंने मानवीय पहल के अपने फैसलों बहुत ज्यादा सुर्खियां अर्जित की। हालांकि सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने के कारण उनके प्रधानमंत्री बनने पर सिर मुडवाकर भिक्षुणी बन जाने की घोषणा करके उन्होंने जिस कट्टर राजनीति का सूत्रपात किया था आगे चलकर उसकी खरपतवार के कारण ही उन जैसी निष्कलंक नेता को एक बड़े वर्ग की निंदा का दंश भी झेलना पड़ा। अलग-अलग धर्म के एक जोड़े के पासपोर्ट के मामले में उनकी हस्तक्षेप से नाराज अतिवादियों ने सोशल मीडिया पर उन्हें जमकर ट्रोल किया।

दूसरी ओर कुल मिलाकर उन्होंने सौम्य और शालीन परंम्परा का निर्वाह राजनीति में किया जिससे मृत्यु पर उन्हें अजात शत्रु की तरह देखा गया। उनके लिए पक्ष के नेता भी हृदय से रोये और विपक्ष के भी। सभी खेंमों में लोगों में दुख छा गया। वैसे तो यह स्थिति लोकतंत्र का बुनियादी तत्व है और अभी तक भारतीय राजनीति में भी यही वातावरण देखा जाता था। लेकिन वर्तमान परिदृश्य जिस तरह जटिल हो गया है उसके संदर्भ में सुषमा स्वराज को लेकर इस विशिष्टता के उल्लेख का अपना अर्थ है।

वानप्रस्थ का रूपक याद दिला गयी

मंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद एक माह की निर्धारित अवधि के पहले ही वे सरकारी बंगला छोड़कर जन्तर मंतर मार्ग स्थित अपने निजी आवास में शिफ्ट हो गई थी।

यह पौराणिक वानप्रस्थ जैसे रूपक की याद दिलाता है जिसमें चक्रवर्ती महाराज भरत का उम्र होते ही राज और सारी अन्य सांसारिक जिम्मेदारियों व चिंताओं को झटककर सहजता के साथ मृत्यु के वरण के लिए उनके चले जाने का आख्यान शामिल है। सुषमा जी ने भी मान लिया था कि वे अपनी पूरी पारी खेल चुकी हैं इसलिए महायात्रा पर निश्चिंत होकर प्रस्थान की तैयारी उन्होंने कर रखी थी।

लेकिन शायद उनको इच्छा मृत्यु का भी वरदान था सो वे अंतिम साध पूरी होने के इंतजार में ठहरी थी। जैसे ही कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने का फैसला हुआ उन्होंने ट्विटर के माध्यम से जीवन का उद्देश्य पूर्ण होने की घोषणा के साथ तृप्ति की सांस ली जो आखिरी सांस होती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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