कृष्णमोहन झा
वर्तमान लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को दो मोर्चों पर विपक्ष की चुनौती मिल रही है। एक और उसे समजवादी पार्टी ,बहुजन समाज पार्टी एवं राष्ट्रीय लोकदल के महागठबंधन का मुकाबला करना है तो दूसरी और कांग्रेस उसे कड़ी टक्कर देने की कोशिश में लगी हुई है। सपा ,बसपा, रालोद के महागठबंधन का नेतृत्व उत्तरप्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और अखिलेश यादव कर रहे है कर रहे है तो कांग्रेस की बागडौर अध्यक्ष राहुल गांधी व उनकी बहन कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के हाथों में है।
प्रियंका ने पहले वाराणसी लोकसभा क्षेत्र से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देने का मन बनाया था। शायद इसीलिए उन्होंने प्रयागराज से लेकर वाराणसी तक गंगा नदी की नाव से यात्रा की थी ,ताकि प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाया जा सके ,परन्तु बाद में यह कहते हुए उन्होंने अपना इरादा बदल दिया कि वाराणसी से चुनाव लड़ने के बाद वह उन 41 सीटों पर समय नहीं दे पाएगी ,जिसकी जिम्मेदारी उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष ने दी है।
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प्रियंका के इस फैसले की वास्तविकता चाहे जो हो, लेकिन इससे कांग्रेस जनों में निराशा जरूर हुई है। हालांकि इस फैसले को प्रधानमंत्री मोदी के हाथों संभावित हार के रूप भी देखा जा रहा है। बहरहाल प्रियंका ने अब उत्तरप्रदेश में अपनी एक पहचान बनाने के बजाय अपने लिए राहुल के एक मुख्य सहयोगी एवं सलाहकार की भूमिका तय कर ली है, परन्तु यदि मौजूदा चुनाव में कांग्रेस उत्तरप्रदेश में अपनी स्थिति में सुधार लाने में असफल रहती है तो इसका यही अर्थ निकाला जाएगा कि प्रियंका में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की छवि देखने वालों ने उनसे कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगा रखी थी। निश्चित रूप से वर्तमान लोकसभा चुनाव केवल राहुल गांधी ही नहीं ,बल्कि प्रियंका के लिए भी किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है।
अखिलेश यादव व मायावती ने अपने महागठबंधन में कांग्रेस को शामिल न करके पहले ही उन्हें स्तब्ध कर दिया था। इसके बाद मजबूरी में उन्हें अपने दम पर ही उत्तरप्रदेश में लोकसभा चुनाव लड़ना पड़ रहा है।
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प्रदेश में चुनाव अभियान के शुरू होने के बाद से ही ऐसा लग रहा है की महागठबंधन का असली मुकाबला भाजपा से नहीं बल्कि कांग्रेस से है। यही हाल कांग्रेस का भी है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी एवं प्रियंका गांधी वाड्रा ने पिछले दिनों जिस तरह से मायावती एवं अखिलेश यादव पर हमले किए है, उससे तो यही लग रहा है कि उन्हें भाजपा से ज्यादा महागठबंधन की हार में ज्यादा दिलचस्पी है। दोनों पक्ष एक दूसरे पर यह आरोप लगाने में जरा भी परहेज नहीं कर रहे है कि वे भाजपा से मिले हुए है। निश्चित रूप से महागठबंधन एवं कांग्रेस के बीच चल रहे इस आरोप प्रत्यारोप पर भाजपा प्रफुल्लित है। इस लड़ाई से वह जीत की संभावना को बलवती मान भी रही है। दरअसल दोनों पक्षों की असली मंशा यह साबित करने की है कि भाजपा का असली मुकाबला उनसे ही है, इसलिए दोनों पक्ष एक दूसरे को नीचा दिखाने का कोई भी मौका छोड़ नहीं रहे है।
सपा ,बसपा ,रालोद के महागठबंधन से नाराज होकर कांग्रेस ने उन सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए है ,जहां उसकी जीत की संभावनाएं नगण्य है। इससे मायावती एवं अखिलेश यह मान कर चल रहे है कि कांग्रेस ने महागठबंधन के वोट काटकर भाजपा को फायदा पहुंचाने की मंशा से ऐसा किया है।
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इस पर मायावती ने कांग्रेस पर आरोप लगाने में देर नहीं कि वे भाजपा से मिले हुए है। मायावती ने यह भी आरोप लगाया कि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस नेता यह प्रचार कर रहे है कि भाजपा भले ही जीत जाए, लेकिन महागठंबधन को नहीं जीतना चाहिए। हालांकि प्रियंका गांधी वाड्रा ने यह सफाई जरूर दी है कि कांग्रेस ने भाजपा के वोट काटने के लिए ऐसा किया है और भाजपा को फायदा पहुंचाने से पहले वह मरना पसंद करेगी।
दोनों पक्षों की और से लगाए जा रहे आरोप -प्रत्यारोप में अब इतनी तल्खी आ गई है कि मतदाता भी उलझन में है कि इनका मुकाबला भाजपा से है कि आपस में। राहुल गांधी ने अपने एक भाषण में तो यह तक कह डाला कि मायावती और अखिलेश यादव मोदी से डरते है ,क्योंकि दोनों का रिमोट मोदी के हाथ में है। मेरी कोई हिस्ट्री नहीं ,लेकिन जबकि मायावती एवं अखिलेश की हिस्ट्री मोदी के पास है।
जाहिर सी बात है कि राहुल मायावती और अखिलेश के उन घोटाओ की और इशारा कर रहे जिन्हे भाजपा अब तक मुद्दा बनाती रही है। इससे अब लगता है कि दोनों पक्षों के बीच की यह लड़ाई चुनावी प्रक्रियां पूर्ण होने तक चलेगी। यहां यह भी दिलचस्पी का विषय है कि मायावती ने अमेठी और रायबरेली में अपने समर्थकों से यह अपील की है कि वे कांग्रेस के पक्ष में ही अपना मतदान करे।
उन्होंने यह भी कहा कि सारा देश जानता है कि भाजपा और कांग्रेस में कोई फर्क नहीं है लेकिन भाजपा और संघ को कमजोर करने के लिए हमने यह दोनों सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ी है। खैर अब चुनाव में परिणाम का ऊंट किस करवट बैठता है यह सभी की उत्सुकता का विषय है। और यह भी कम उत्सुकता का विषय नहीं है कि परिणामों के बाद महागठबंधन का कितना साथ रहता है, क्योंकि राजनीति में एक बात हमेशा देखी गई है कि यहां शत्रुता एवं मित्रता स्थायी नहीं है। हालांकि अभी तो यह अनुमान ही लगाने वाला विषय है। लेकिन यह भी सच है कि पांच वर्ष पहले तक क्या यह सोचा जा सकता था कि सपा व बसपा एक साथ आने को सहर्ष तैयार हो जाएंगे।
(लेखक डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है)