के.पी. सिंह
उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन उम्मीद से ज्यादा कामयाब दिख रहा है जिससे भाजपा का नेतृत्व सिहरन महसूस करने लगा है। शनिवार को प्रतापगढ़ की सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब यह शातिराना भाषण दिया कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी पर्दे के पीछे बहनजी यानी बसपा सुप्रीमों मायावती को धोखा दे रहे हैं तो भाजपा की अंदरूनी बेचैनी खुलकर सामने आ गई।
प्रधानमंत्री का यह दांव गठबंधन में कोई घात करता इसके पहले ही मायावती ने लखनऊ में फटाफट पत्रकार वार्ता बुलाकर उन पर अपनी भड़ास जमकर निकाली और अपने मतदाताओं से मोदी के इस भाषण के कारण गुमराह न होने की अपील कर डाली।
चुनावी शुरूआत में कांग्रेस भी दिख रही थी जलवेदार
चुनाव कार्यक्रम विधिवत जारी होने के पहले राजनीतिक चौसर पर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस भी कम वजनदार नजर नहीं आ रही थी। मुसलमानों की तो पहली पंसद कांग्रेस मानी जा रही थी। भाजपा का खेमा इससे आश्वस्त था। उसे लग रहा था कि सपा-बसपा गठबंधन और कांग्रेस के अलग-अलग लड़ने से मुस्लिम वोट विभाजित होगा और इस फूटन में उसकी पौ-बारह हो जायेगी। कांग्रेस ने टिकट वितरण में इस बार नये सामाजिक समीकरण बनाये। उन जातियों के उम्मीदवारों को वरीयता दी जो अतीत में गुमनाम रहीं थीं।
उन चेहरों को वरीयता दी जो बसपा और सपा के कारण अपना अस्तित्व पहचान सकी जातियों में से नेता बनकर सामने आ चुके थे। बृजलाल खाबरी, नसीमुददीन, बाबूसिंह कुशवाहा, राकेश सचान, राजाराम पाल, वीर सिंह पटेल से लेकर सावित्री बाई फुले और उम्मेद सिंह तक के नाम गिनाये जा सकते हैं जिनकी वजह से पतझर के लिए अभिशप्त कांग्रेस में राजनैतिक बसंत की नई कोपलें फूटने के आसार पैदा हो गये थे।
चुनावी समर छिड़ते ही पिछड़ने लगी कांग्रेस
लेकिन असल चुनावी युद्ध का शंखनांद जैसे-जैसे तेज हुआ वैसे-वैसे कांग्रेस निस्तेज होती गई और मुस्लिम वोट इसके चलते दुविधा छोड़कर गठबंधन के पाले में केंद्रित होते चले गये। अभी तक जो रिपोर्ट सामने आईं हैं उनके मुताबिक पांचों चरण में उत्तर प्रदेश में गठबंधन ने भाजपा को काफी पीछे छोड़ दिया है।
यह भाजपा के लिए जबर्दस्त धक्का है। उत्तर प्रदेश में 2014 में अगर भाजपा को सहयोगी दलों समेत 75 सीटे न मिली होती तो उसे केंद्र में जोड़तोड़ की मजबूर सरकार बनानी पड़ती और शायद नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना मुश्किल हो जाता। आज भी स्थितियां बदली नही हैं अगर पश्चिम बंगाल व केरल में भाजपा के प्लस करने के आसार बन रहे हैं तो हिन्दी पटटी के राज्यों में गंवाने के। सबसे चिंताजनक हालत उत्तर प्रदेश की है जहां पुलवामा और सर्जिकल स्ट्राइक का तीर जातिगत समीकरणों के आगे कमजोर पड़ गया है।
योगी सरकार के रवैये से गठबंधन को मिला वरदान
उस पर तुर्रा यह है कि योगी सरकार के दलित और पिछड़ा विरोधी रवैये ने गठबंधन की रणनीति को मजबूती प्रदान करने का काम किया है। हर वर्ग के उम्र दराज रैंकर आईएएस और आईपीएस योगी सरकार की नीति से बेहद कुंठित हैं। तमाम अफसर ऐसे हैं जो बसपा-सपा सरकार के समय से ही लूप-लाइन में थे उन्हें पदोन्नत संवर्ग में पहुंचने के बाद भी जिलों में डीएम, एसपी की पोस्टिंग नहीं दी गई ताकि वे इस सरकार में लूप-लाइन में ही बने रहते हुए रिटायर हो जायें। इन अफसरों ने चुनाव के दौरान अपने गृह क्षेत्र में जाकर विरादरी के सामने रोना रोया जो भाजपा को बहुत भारी पड़ गया।
मुसलमानों ने खारिज किया मोदी का दांव
इसीलिए नरेंद्र मोदी ने कोशिश की कि मुसलमानों के मन में फितूर पैदा करके गठबंधन के लिए उनकी एकजुटता में दरार डाली जाये। मायावती के प्रीवियस रिकार्ड के मददेनजर उन्हें उम्मीद रही होगी कि उनका प्रचार जरूर कोई गुल खिला सकेगा। मायावती ने उत्तर प्रदेश में भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री थीं उस समय गुजरात विधानसभा के चुनाव में नरेंद्र मोदी के प्रचार के लिए पहुंचकर उन्होंने मुसलमानों के भरोसे को चूर-चूर कर दिया था।
इसके बावजूद हर कीमत पर नरेंद्र मोदी को सत्ता से बेदखल करने के लिए आतुर मुसलमान गठबंधन के साथ से टस से मस होने को तैयार नही हैं। वजह यह है कि उनके सामने पहला लक्ष्य केंद्र में भाजपा की सरकार को अस्थिर करना है। अगर मायावती समर्थन देकर केंद्र में भाजपा की सरकार बनवा भी देती हैं तो उन्हें पता है कि अपने समर्थन की कीमत मायावती किस तरह वसूल करना जानती हैं। मायावती के समर्थन से मोदी ने अगर सरकार चलाई तो उन्हें सारी चौकड़ी भूल जानी पड़ेगी।
प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी ने मुसलमानों को और किया कटिबद्ध
मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद बंदोबस्त किया था कि आइंदा मुसलमानों में उनके और भाजपा के खिलाफ बहुत कशिश न रह जाये लेकिन मोदी की चली नहीं। योगी के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा को लेकर मुसलमानों की बेचैनी चरम सीमा को पार कर गई है। चुनाव में रही सही कसर प्रज्ञा ठाकुर की भोपाल से उम्मीदवारी ने पूरी कर दी।
यह तो भाजपा के लोग भी मानते हैं कि 2014 जैसी मोदी लहर अब कही नही है। ऐसे में मुसलमानों की भूमिका निर्णायक सी हो गई है जिन्होंने अभी तक के चरणों में सर्वाधिक मतदान करके भाजपा को हराने की कटिबद्धता दिखाई है।
संपूर्ण नेतृत्व के लिए बदलना होगा रवैया
उत्तर प्रदेश में गठबंधन की हालत पर थोड़ा सा प्रभाव पड़ा है तो मायावती द्वारा अपने को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने से। उत्पीड़न अधिनियम के पुराने स्वरूप की बहाली के विरोध में जो आंदोलन हुआ था उसमें सवर्ण और पिछड़े एक साथ हो गये थे। उत्पीड़न अधिनियम को लेकर पूर्वागृह की वजह से पिछड़ों में कुछ लोग मायावती के प्रधानमंत्री बनने की संभावना से बिदके हैं जिसका फायदा भाजपा को मिला है पर यह संख्या बहुत नही है। वैसे इसमें अजीब पाखंड है जहां दलितों के साथ वास्तविक उत्पीड़न होता है मायावती बोलती नहीं हैं।
उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में ठाकुरों के गांव में दलित दूल्हा तब घोड़े पर चढ़कर बारात ला सका जब दुनियां भर की फोर्स लगाई गई। मायावती पर इस पर कोई प्रतिक्रिया नही दी क्योंकि उन्हें ठाकुरों के वोट भी चाहिए। सही बात तो यह है कि उत्पीड़न अधिनियम को ढीला करने के लिए उन्होंने अपनी सरकार में जो शासनादेश जारी किया था उसके सामने सुप्रीम कोर्ट का संशोधन तो कुछ नही था।
शासक कौम में बड़प्पन की जरूरत
मायावती चार बार देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। इसके बाद उन्हें दलितों को उस बड़प्पन के लिए तैयार करना चाहिए जो शासक कौम के लिए अपरिहार्य है। कोई भी सरकार तब तक सफल नही हो सकती जब तक उसे समाज के सभी वर्गों का विश्वास प्राप्त न हो। इसका मतलब उत्पीड़न अधिनियम को समाप्त करने की मांग की पैरवी करना नही है लेकिन उसके दुरुपयोग की गुंजाइश को न्यून किया ही जाना चाहिए।
इस बात से डरती हैं मायावती
मायावती का दावा है कि वे किसी से भी अच्छा सुशासन देश को दे सकती हैं। कुछ हद तक यह बात सही भी हो सकती है। शहरी गरीबों के लिए आज तक कोई ऐसी आवासीय योजना नहीं बनी हो मायावती ने मान्यवर कांशीराम शहरी गरीब आवास योजना के रूप में साकार की थी।
मोदी आवास के लिए जितने रुपये दे रहे हैं कांशीराम कालोनी जैसी सुव्यवस्थित कालोनी में जिसमें चौड़ी सड़क, सीवर लाइन, विद्युत की निर्बाध आपूर्ति के लिए उपकेंद्र, पुलिस चौकी, पार्क, स्कूल सब कुछ है उसमें प्लाट भी नही आ सकता। चाहे नियुक्तियों का मसला हो या कानून व्यवस्था मायावती ने इन मामलों में बिना पक्षपात के काम करने की नजीर पेश की थी।
लेकिन बिडंबना यह है कि मायावती खुद अपने समय की इन उपलब्धियों का जिक्र करके वोट हासिल करने में विश्वास नहीं रखती। वे डरी रहती हैं कि कहीं सबसे बेहतर शासक के रूप में अपने दावे पर उन्होंने ज्यादा जोर दिया तो दलितों की देवी की उनकी इमेज दब जायेगी जो दूरगामी तौर पर शायद उनके लिए गडढा खोदने वाली कार्रवाई साबित होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )