सुरेंद्र दुबे
हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हैं और यह भी एक कटु सत्य है कि भारत में ही डेमोक्रेसी सबसे ज्यादा खतरे में है। यहां डेमोक्रेसी की परिभाषा ही बदल गई है। हमे किताबों में पढ़ाया गया,“Democracy is By the People, of the People and for the People.” पिछले 70 सालों में हमने इतनी तरक्की की कि डेमोक्रेसी सिर्फ डेमो तक रह गई और उसकी परिभाषा ही बदल गई।
अब डेमोक्रेसी की नई परिभाषा है, “Democracy is Buy the people, Off the people and Far the people.” ये नई परिभाषा भारतीय लोकतंत्र की सही व सटीक छवि प्रस्तुत करती है। वैसे भी हम इवेंट मैनेजमैंट डेमोक्रेसी में आ गए हैं, इसलिए डेमोक्रेसी की परिभाषा बदल गई है।
Democracy is buy the people-सीधा मतलब है की वोट खरीद कर लोकतंत्र चलाया जा रहा है। Democracy is off the People – इसका मतलब है कि डेमोक्रेसी का जनता से कोई लेना देना नहीं है। Democracy is far the People – एक ऐसा लोकतंत्र जो जनता से बहुत दूर है।
हमारे लोकतंत्र का कमाल देखिए जनता वोट किसी को देती है और जीतने के बाद नेता किसी अन्य ऐजेंडे से दूसरे खेमे में चला जाता है और बेसर्मी की हद ये कि वो बाकयदा बताता है कि हम जनता के हितों के लिए जनता को दांव दे रहे हैं।
आइए इसकी शुरूआत हरियाणा और महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों से करते हैं। हरियाणा में चुनाव हुए, जिसमें भारतीय जनता पार्टी को 40 सीटें मिली, कांग्रेस को 31 सीटें और जननायक जनता पार्टी को 10 सीटें मिली। नौ सीटें निर्दलीयों के खाते में गई।
90 सदस्यी विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 46 सीटों की आवश्यकता थी, जो किसी भी पार्टी के पास नहीं थी। फिर क्या था लोकतंत्र की डुगी-डुगी पीटने वाले नेता लोकतंत्र की नई परिभाषा के अनुसार सरकार बनाने के लिए Democracy is off the People के ऐजेंडे पर काम करने लगे।
कांग्रेस और जननायक जनता पार्टी दोनों ने जमकर चुनाव अभियान में भारतीय जनता पार्टी को कोसा और कहा कि हमें भाजपा के खिलाफ मेंडेट चाहिए। अगर सरकार कांग्रेस और जेजेपी की मिलकर बनती तो ये माना जाता कि हमारे नेताओं ने जनमत का सम्मान किया और एक भाजपा विरोधी सरकार बनाई।
पर अब Democracy far the People है, इसलिए भाजपा और जेजेपी ने मिलकर सरकार बना ली। यानी एक दूसरे के विरोधी आपस में गलबहियां डाल कर जनता को ठेंगा दिखा दिया। अब इससे ज्यादा जनता से क्या दूरी बना सकते थे। जेजेपी नेता दुष्यंत चौटाला के पिता जी अजय सिंह चौटाला भ्रष्टाचार के आरोप में सजा काट रहे थे, सो उन्हें शपथ ग्रहण के दिन ही रिहा कर दिया गया ताकि जनता ये देख ले इन चौटाला की वजह से ही दुष्यंत चौटाला मुख्यमंत्री बने हैं।
इसको कहते हैं ‘खुला खेल फरुख्खाबाद’ अब जनता अगले पांच सालों तक अपना सर धुने और विचार करे की ये डेमोक्रेसी को कौन सा तमाशा है, जिसमे सांप और नेवला एक ही सिंहासन पर बैठ जाते हैं।
आइए महाराष्ट्र चलते हैं, यहां तो भाजपा और शिवसेना का चुनाव से पहले ही गठबंधन था। दोनों ने मिलकर 288 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा ने 105 सीट और शिवसेना ने 54 सीटें जीत कर बहुमत के लिए आवश्यक 145 का आंकड़ा पार कर लिया। लगता था कि यहां द्रोपदी (जनता) को सरेआम रुसवा नहीं होना पड़ेगा। पर मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर शिवसेना अड़ गई। लगभग एक हफ्ता हो गया है भाजपा और शिवसेना दोनों अपने रवैये पर अड़ी हैं।
अब भाजपा भी अपनी विरोधी पार्टी एनसीपी के साथ सरकार बनाने के जुगाड़ में लगी हुई है और शिवसेना भी कांग्रेस और एनसीपी के सहयोग से सरकार बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रही है। अगर ऐसा होता है तो फिर लोकतंत्र की नई परिभाषा ही सही साबित होगी। जनता ने जिसको जिसके विरोध में वोट दिया था वो सब एक ही नाव पर सवार होकर Democracy is far the People को चरितार्थ करेंगे।
यानी सिंहासन हर कीमत पर चाहिए, अगर द्रोपदी रुसवा होती है तो होती रहे। महाभारत काल में भी ऐसा हुआ था। तब भगवान कृष्ण ने आकर उसकी लाज बचा ली थी। कलयुग में द्रोपदी के पास रूसवा होने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं है। क्योंकि अभी कल्की भगवान प्रकट नहीं हुए हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)