केपी सिंह
आक्रमण ही सबसे बड़ी प्रतिरक्षा है। सीएए के मुददे पर दिल्ली के शाहीन बाग में चल रहे शांतपूर्ण धरना प्रदर्शन के अनंतकालीन होते जाने से सत्ता पक्ष तिलमिलाया हुआ है क्योंकि इसका सरकार पर प्रतिकूल असर देश भर में हो रहा है। शाहीन बाग आंदोलन को खत्म कराने के लिए तमाम हथकंडों का इस्तेमाल करके के भी जब सत्ता पक्ष कामयाब नही हो पाया तो उसे प्रतिरक्षा का यह सूत्र याद आ गया।
शाहीन बाग के बहाने सत्ता पक्ष अपनी तमाम नकामियों को परे धकेलकर दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीतने के लिए निकृष्टतम स्तर के पैने प्रचार अभियान पर उतर आया है।
दिल्ली विधानसभा के चुनाव को जरूरत से ज्यादा अहमियत बख्शी
पहला सवाल तो यह है कि क्या सचमुच दिल्ली विधानसभा चुनाव की अहमियत इतनी बड़ी है कि दुनियां की सबसे बड़ी पार्टी का दावा करने वाले दल को इसे जीवन मरण का प्रश्न बनाया जाना लाजिमी हो गया है।
दिल्ली के रण को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर सत्ता पक्ष ने कहीं अपने कद और प्रतिष्ठा को घटाने की कोताही तो नही कर डाली है।
पिछले कुछ समय से पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने यह प्रदर्शित करना शुरू कर दिया था कि उन्होंने अपनी सीमा समझ ली है और अपने को दिल्ली की सरकार चलाने तक सीमित कर लिया है। इसके तहत सत्ता पक्ष के राष्ट्रीय मंसूबों में बाधक बनना उन्होंने छोड़ दिया है। हालत तो यह है कि केंद्र सरकार के द्वारा बनाये गये विवादित कानूनों का भी समर्थन अरविंद केजरीवाल ने करने में चूक नही की।
अर्द्ध राज्य के लिए भी भाजपा को इतनी बेसब्री
तो भी एक अर्द्ध राज्य के लिए भाजपा की सत्ता लोलुपता की रफ्तार रुक नही पाई है। केजरीवाल के नये रुख के बाद भाजपा को भी संतुलित हो जाना चाहिए था। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने तो गजब कर दिया। दिल्ली में उन्होंने जिस ढंग से सघन प्रचार किया है वह उनकी विराट छवि को देखते हुए सहज नही है। इस चुनाव में उन्होंने केजरीवाल को प्रधानमंत्री मोदी की बराबरी पर खड़ा करने की चूक कर डाली है। इसके बावजूद केजरीवाल अगर फिर से मुख्यमंत्री बनने में सफल रहते हैं तो क्या होगा।
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प्रतिपक्ष में बराबरी के चेहरे के खाली स्पेस को कहीं भर न दे केजरीवाल
दरअसल खतरा यही है कि केजरीवाल मोदी के राष्ट्रीय विकल्प के खाली स्पेस को भरने वाली शख्सियत के रूप में न उभर जायें। उन्होंने वैकल्पिक राजनीति का आकार अपनी सरकार चलाते हुए गढ़ डाला है जो भाजपा के देश में दीर्घकालीन वर्चस्व के मंसूबे को भेदने के दूरगामी असर का एहसास करा रहा है।
कांग्रेस या कोई दूसरे विपक्षी दल इस मामले में जनता की नब्ज को पहचानने में सफल नही हो पाये। अगर भाजपा की साम्प्रदायिक नीतियां बहुसंख्यक पक्ष की दमनात्मक प्रवृत्ति को उकसाने और प्रोत्साहित करने वालीं हैं तो विपक्ष की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता में संतुलन नही है।
निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्षता की आड़ में तुष्टीकरण का खेल वोट बैंक के लिए खेला गया। क्योंकि विपक्ष की सरकारें जनहित की बजाय निहित स्वार्थों के पोषण जुटीं रहीं थीं। इस बीच उन्होंने बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं की परवाह नही की यह भी एक यथार्थ है।
सब कुछ देकर भी फायदे में चल रही केजरीवाल सरकार
दिल्ली में केजरीवाल ने एक अलग माडल विकसित किया। उन्होंने सस्ती बिजली, बेहतर चिकित्सा और शिक्षा आदि लोगों की मूलभूत जरूरतों के लिए शानदार प्रबंधन किया। इसके बावजूद उनका राजस्व प्रबंधन प्रभावित नही हुआ। दिल्ली की सरकार देश की पहली सरकार है जो फायदे मे है। दिल्ली में भी अरविंद केजरीवाल के पहले जो सरकारें थीं वे घाटे के गर्त में धंसी रहीं थीं।
पहले केजरीवाल की कमी यह थी कि दिल्ली में अपने प्रदर्शन को ढंग से अंजाम देने के पहले ही वे रातों-रात राष्ट्रीय स्तर पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए अधीर हो उठे थे।
इसके कारण अपनी सरकार के कामों की बजाय तीखी बयानबाजी के लिए मीडिया में छाये रहे थे। उन्होंने यह नही सोचा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी राष्ट्रीय राजनीति के अवतरण के पहले गुजरात माडल स्थापित करने में 15 साल खपाये। उनकी 2014 के चुनाव की सफलता में सबसे बड़ा योगदान गुजरात माडल के जिक्र का रहा था।
पहले बेपटरी हो गये थे केजरीवाल
वे यह ताड़ना भी भूल गये कि जिस समय नई बहुरिया के स्वागत जैसा माहौल था उस समय उनका लगातार मोदी के खिलाफ राग अलापना किस तरह लोगों को नही सुहा रहा होगा। उस पर दल का संचालन अधिनायक की तरह करने के मामले में उनमें और मोदी में बहुत साम्य है। लेकिन जहां परिस्थितियां अनुकूल ढल जाने से मोदी का यह चरित्र भी उनका बेहतर गुण बन गया है वहीं अरविंद केजरीवाल की पार्टी के दिग्गजों को एक के बाद एक बेआबरू करके बाहर का रास्ता दिखाने की हरकत उनके अपयश के कोढ़ में खाज बन गई। हीरो बनने निकले केजरीवाल सारे देश में सबसे बड़े विलेन बन गये थे। लेकिन केजरीवाल को अपनी नाकामियों को स्वीकार करना और उनसे सीखना भी आता है यह उन्होंने दिखा दिया है। लंबे समय से उन्होंने प्रधानमंत्री की निजी आलोचना बंद कर रखी है। काम पर ध्यान लगाकर उन्होंने सबसे स्वस्थ्य तरीके से सत्ता संचालन की मिसाल कायम की है।
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दूसरी ओर भाजपा की उत्तर प्रदेश सहित तमाम राज्य सरकारें लोगों पर लगातार करारोपण बढ़ाकर भी बेहतर सेवाएं नहीं दे पा रहीं। भाजपा की राज्य सरकारें जाहिर करती जा रहीं हैं कि उन्हें अधिकारियों से काम लेना नही आता जबकि केंद्र में विपक्ष में रहते हुए भी भाजपा ने राज्यों एक समय गुजरात माडल और मध्य प्रदेश माडल के जरिये जो कीर्तिमान स्थापित किये थे उनसे भी वर्तमान राज्य सरकारें काफी पीछे हैं।
राष्ट्रीय सुरक्षा और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर देश की धाक बढ़ाने के मामले में प्रधानमंत्री मोदी का पड़ला इतना भारी है कि वे सत्ता संचालन के अन्य बिंदुओं पर पस्त होने के बावजूद देश के लिए अभी जरूरत बने रहेगें। दूसरी ओर राज्यों में भाजपा के नेतृत्व अकर्मण्य साबित हो रहा है। यह फार्मूला लोगों के जेहन में बसता जा रहा है कि केंद्र में भाजपा और राज्य में स्थानीय स्तर का कोई सर्वोत्तम चेहरा। कैप्टन अमरेंद्र सिंह और अरविंद केजरीवाल का इसकी फसल काटते जाना स्वाभाविक है।
काम की बड़ी लाइन के सामने लोगों के बीच बनाम की राजनीति हुई बेमानी
बहरहाल केजरीवाल की छूत अगर सारे देश में फैल गई तो भाजपा को केंद्रीय स्तर पर भी मोदी के बाद तख्ता पलट की नौबत का सामना करना पड़ सकता है यह डर सत्तारूढ़ पार्टी को सता रहा है।
केजरीवाल ने काम की इतनी बड़ी लाइन खींच दी है कि हिंदू बनाम मुसलमान, सवर्ण बनाम बहुजन इत्यादि विमर्श आप्रसंगिक हो चुके हैं।
वर्ग संघर्ष और क्रांति की बजाय सभी अंतर्विरोधों के बीच उचित प्रबंधन का व्यवस्था का आधुनिक सिद्धांत इसमें रेखांकित है। भाजपा इस गुर को आत्मसात करने में कच्ची पड़ गई है जिससे उसका नेतृत्व बौखला गया है।
हर विरोध को पाकिस्तान प्रायोजित बताने की हास्यास्पद लत
हर विरोध प्रदर्शन को पाकिस्तान प्रायोजित साबित करने की लत भाजपा को लग गई है। जबकि पाकिस्तान भारत के सामने इतना पिददी है कि यह बातें हास्यास्पद लगती हैं। क्या पाकिस्तान की इतनी औकात है कि वह भारत के प्रमुख नेताओं को खरीद सके। लोकतंत्र विरोध और असंतोष की मानवीय समूहों की प्रवृत्ति के प्रबंधन का ही दूसरा नाम है।
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मणिपुर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के विरुद्ध आंदोलन को लेकर देश व्यापी स्तर पर वैसा ही विचार व्याप्त था जैसा आज सीएए को लेकर है। पर तत्कालीन सरकार ने इसके कारण इरोम चानू शर्मिला को कभी देशद्रोही नही कहा। प्रतिपक्ष की भारतीय राजनैतिक व्यवस्था को पाकिस्तान का पिटठू साबित करके बहुत की खतरनाक इरादे जाहिर किये जा रहे हैं। कहीं यह लोकतंत्र के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाने की प्रस्तावना तो नही है।
अभी भी बहुत कुछ हिंदू हैं भारत के मुसलमान
भारतीय मुसलमान विदेशों से आया समूह नही है हिंदुओं के बीच से लोग इतिहास की बिडंबनाओं के चलते मुसलमान बन गये पर धर्म बदल जाने से किसी के संस्कार नही बदल जाते। उनकी आदतों और तौर-तरीकों में हिंदू संस्कारों की ऐसी झलक है कि किसी बहावी देश में रहना पड़ जाये तो उन्हें मुश्किल हो जायेगी।
फ्रांस में सोचा जा सकता है कि मुसलमानों को मुल्क के बाहर खदेड़ दिया जाये क्योंकि फ्रांस में अफ्रीका के आप्रवासी मुसलमानों को बसा लिया गया था लेकिन हिन्दुस्तानी मुसलमान भारतीय उपमहाद्वीप को छोड़कर कहीं नही खप सकेगें। उनके हिन्दुस्तानी होने का और उनके अंदर भी वतन परस्ती की लौ होने का सबूत यह है कि तीन तलाक ही नही राम मंदिर के मुददे पर तक उनका एक बड़ा वर्ग सत्ता पक्ष की नीतियों का खुलेआम समर्थन कर रहा है।
आज जो युवा मोदी के दीवाने हैं कल उनके मां-बाप नेहरू परिवार के इससे भी ज्यादा दीवाने थे। अगर ऐसा नही होता तो लंबे समय तक प्रचंड बहुमत से कांग्रेस सत्ता में कैसे बनी रहती। अगर आज कांग्रेस को देश विरोधी साबित किया जा रहा है तो क्या मोदी समर्थक युवा यह मान लेगें कि वे कांग्रेस का समर्थन करते रहने से देशद्रोह करते रहे मां-बाप की औलाद हैं।
इसी तरह कल तक राजनीतिक महौल ऐसा था कि जिसमें मुसलमानों के बीच नकारात्मकता को उकसाना फायदे का सौदा बना रहा। इस बयार में मुसलमान बह गये होगें तो क्या आश्चर्य। अन्य कौमों का चरित्र भी कुछ इससे इतर नही है जब उनमें अस्मितावाद को हवा दी जाती है तो वे भी विध्वंसकता की बयार में बहते देखे गये हैं। अगर मुसलमानों के हर एक्ट में पाकिस्तान का हाथ ढूंढ़ा गया तो उन्हें हमेशा संदिग्ध निगाह से देखने की बीमार ग्रंन्थियां विकसित होगीं।
कुदरत कहो या ऊपर वाले ने देश के सामने सहअस्तित्व की भावना के साथ जीने का सलीका सीखने की चुनौती यहां विविधता और बहुलता के विस्तार से फेंकी है उसका निर्वाह होना चाहिए तभी अनुपम और अतुलनीय भारत बनेगा। वैसे जब माहौल निरपेक्ष रहता है तो साफ नजर आता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी ऐसे ही विचारों के कायल हैं। लेकिन लगता है कि इस समय कटटरवाद के सामने समर्पण करना उनकी मजबूरी बन गया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)