जुबिली न्यूज डेस्क
लंबे समय से देशभर में राजनीति में बढ़ रही वंशवाद और परिवारवाद पर बहस चल रही है, बावजूद इसके यह घटने के बजाए बढ़ती जा रही है। चुनावों में राजनीतिक दल बढ़-चढ़कर अपने रिश्तेदारों-नातेदारों को टिकट दे रहे हैं। क्षेत्रीय पार्टियां हो या राष्ट्रीय, कोई भी इससे नहीं उबर पा रहा है।
बिहार में विधानसभा चुनाव का महासंग्राम छिड़ा हुआ है और एक बार फिर बिहार चुनाव के बहाने परिवारवाद पर बहस छिड़ गई है।
दरअसल बिहार की राजनीति में नेताओं व कार्यकर्ताओं के समर्पण पर रिश्तेदारी-नातेदारी भारी पड़ती जा रही है। नेताओं-कार्यकर्ताओं का एक ऐसा समूह स्वयं को छला हुआ महसूस कर रहा है। टिकट वितरण की असमानता उन्हें विचलित कर रही है।
तीन चरण में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के लिए सभी दलों ने अपने-अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं। कौन पार्टी चुनाव जीतकर आने के बाद क्या करेगी, इसको लेकर दावे-प्रतिदावे किए जा रहे हैं, लेकिन इस सबके बीच चुनाव में एक चीज दिख रही है और वह है बाहुबल-धनबल और परिवारवाद का वर्चस्व।
बिहार में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। इसके पहले के चुनावों में भी राजनीतिक दलों ने रिश्तेदारी-नातेदारी निभाई थी। इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। कहीं बाहुबल-धनबल हावी है तो कही परिवारवाद।
बिहार विधानसभा चुनाव में नेताओं ने इस बार बेटा-बेटी, पत्नी, भाई यहां तक कि दामाद व समधी को भी टिकट दिलाने से गुरेज नहीं किया है। कहीं-कहीं तो मां-बेटा भी उम्मीदवार हैं।
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दरअसल वयोवृद्ध नेताओं द्वारा अगली पीढ़ी को स्थापित करने के नाम पर या बाहुबल को छिपाने के नाम पर या फिर जातीय समीकरण के अनुरुप वोट बटोरने के नाम पर इस बार के चुनाव में रिश्तेदारी-नातेदारी काफी महत्वपूर्ण दिख रही है।
भारतीय जनता पार्टी को छोड़ लगभग सभी प्रमुख दलों ने रिश्तेदारी-नातेदारी निभाई है। जो किसी न किसी कारणवश चुनाव लडऩे के अयोग्य घोषित कर दिए गए थे, उन्होंने अपने रिश्तेदारों को मैदान में उतार दिया है।
राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) व लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने अच्छी-खासी संख्या में नेताओं के रिश्तेदारों को चुनाव मैदान में उतारा है।
अब तक की स्थिति के मुताबिक राजद ने सबसे अधिक ऐसे उम्मीदवार खड़े किए हैं। कांग्रेस में भी यह संख्या दो अंकों में है वहीं 115 सीटों पर लडऩे वाली सत्ताधारी जनता दल यू ने भी परिवारवाद के नाम पर कई सीटें न्योछावर की हैं।
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महागठबंधन छोड़ एनडीए में शामिल हुई हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा ने तो दामाद व समधन तक का ख्याल रखा है। परिवारवाद के नाम पर लगभग हर तरह के रिश्ते इस बार मैदान में हैं। किसी जगह पर इनका आपस में ही मुकाबला हो रहा है तो कहीं वे अलग-अलग जगहों पर टिकट लेकर चुनाव मैदान में हैं।
राजद में लालू यादव के दोनों बेटे तेजस्वी यादव व तेजप्रताप यादव इस बार भी चुनाव मैदान में हैं। इसके अलावा राजद ने प्रदेश राजद अध्यक्ष जगदानंद सिंह के बेटे सुधाकर सिंह, शिवानंद तिवारी के बेटे राहुल, विजय प्रकाश की बेटी दिव्या प्रकाश, पूर्व केंद्रीय मंत्री कांति सिंह के बेटे ऋ षि यादव, पूर्व मंत्री श्रीनारायण यादव के बेटे ललन कुमार, क्रांति देवी के बेटे अजय यादव, दुष्कर्म कांड में आरोपित अरुण यादव की पत्नी किरण देवी, रेप केस के आरोपित राजबल्लभ यादव की पत्नी विभा यादव व विधायक वर्षा रानी के पति बुलो मंडल को अपना उम्मीदवार बनाया है।
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राजद ने तो दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध के आरोपितों के रिश्तेदारों से परहेज तक नहीं किया। अब नीतीश कुमार की जदयू की बात करते हैं। जदयू ने पूर्व मंत्री स्व. राजो सिंह के पोते सुदर्शन को, जर्नादन मांझी के पुत्र जयंत राज, बाहुबली विधायक धूमल सिंह की पत्नी सीता देवी, मंत्री स्व. कपिलदेव कामत की बहू मीना कामत, हरियाणा के राज्यपाल डॉ सत्येंद्र नारायण आर्य के बेटे डॉ. कौशल किशोर, शेर-ए-बिहार के नाम से चर्चित व पूर्व केंद्रीय मंत्री रामलखन सिंह यादव के पोते जयवर्धन यादव, पूर्व मंत्री नरेंद्र नारायण यादव के दामाद निखिल मंडल, सीपीआइ नेता व पूर्व सांसद स्व. कमला मिश्र मधुकर की बेटी तथा विधायक कौशल यादव की पत्नी पूर्णिमा यादव को टिकट दिया है।
इसी तरह कांग्रेस ने भी अपने कद्दावर नेता सदानंद सिंह के बेटे शुभानंद मुकेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव की बेटी सुभाषिणी राज , निखिल कुमार के भतीजे राकेश कुमार , फिल्म अभिनेता व पूर्व सांसद शत्रुघ्न सिन्हा के बेटे लव सिन्हा , पूर्व मंत्री आदित्य सिंह की बहू नीतू सिंह और अब्दुल गफूर के बेटे आसिफ गफूर को अपना उम्मीदवार बनाया है।
परिवार की पार्टी कही जाने वाली लोजपा ने भी खूब रिश्तेदारी निभाई है। पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. रामविलास पासवान के दामाद मृणाल व पूर्व सांसद स्व. रामचंद्र पासवान के बेटे कृष्ण राज को चुनाव मैदान में उतारा है।
वरिष्ठ पत्रकार सुशील वर्मा कहते हैं, राजनीति दल अब एक परिवार की विरासत बनकर रह गए हैं। यह एक तरह से कंपनी बन गई है जिस पर एक परिवार का कब्जा हो गया है। वह परिवार अपने परिजनों के साथ-साथ पुराने नेताओं के बेटे-बेटियों को मौका दे रहा है।
वह कहते हैं, दरअसल पुराने नेता अपनी राजनीतिक विरासत को सौंपने के लिए ऐसी व्यूह रचना करते हैं कि पार्टी भी उनके सब्जबाग के नतमस्तक हो जाती है। दांव-पेंच के माहिर इन वयोवृद्ध नेताओं की सजाई फील्डिंग के आगे प्रतिद्वंदी का टिकना वाकई मुश्किल होता है। उनका उद्देश्य अपने जीवन काल में बच्चों को स्थापित कर देना होता है।
बिहार चुनाव में प्रमुख पार्टियों में बीजेपी ने ही इस बार पार्टी के अंदर परिवारवाद पर काफी हद तक लगाम लगाई है। कई नेता अपने बेटे-बहू या रिश्तेदार के लिए टिकट मांगते रहे किंतु पार्टी ने उनकी एक न सुनी। यही वजह रही कि केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे की मंशा भी पूरी न हो सकी।
बीजेपी ले उनके बेटे की जगह भागलपुर में दूसरे को प्रत्याशी घोषित कर दिया। इसका अपवाद एकमात्र पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. दिग्विजय सिंह की पुत्री श्रेयसी सिंह रही जिन्हें भाजपा ने जमुई से टिकट दिया है।
इस सबसे इतर बिहार की सियासत में ऐसे कई नाम है जिन्हें राजनीति विरासत में मिली है। अपनी विरासत बचाने के लिए ये कहीं न कहीं से किसी न किसी पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर फिर निर्दलीय ही चुनाव मैदान में हैं।
दरअसल, इस बार चुनाव मैदान में ऐसा कोई रिश्ता नहीं दिख रहा जो चुनाव मैदान में न दिख रहा हो। मां-बेटे के रिश्ते का सबसे नायाब उदाहरण बाहुबली नेता व पूर्व सांसद आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद व उनके पुत्र चेतन आनंद हैं जो राजद के टिकट पर क्रमश: शिवहर व सहरसा से किस्मत आजमा रहे हैं।
सीवान में तो दो समधी ही आमने-सामने हैं, वे हैं भाजपा से ओमप्रकाश यादव और राजद से अवध बिहारी चौधरी। वाकई, 2020 के इस चुनाव में राजनीति पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों की संख्या काफी होगी।