जुबिली न्यूज डेस्क
बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए के बहुमत हासिल करने के बाद नीतीश कुमार सोमवार को सातवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। राज्य के गवर्नर फागू चौहान शाम साढ़े चार बजे राजभवन में शपथ ग्रहण समारोह में पद व गोपनीयता की शपथ दिलाएंगे।
नीतीश कुमार राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं और उनके पास 15 साल तक सीएम रहने का लंबा अनुभव भी है लेकिन इस बार जिस तरह से परिस्थितियां बन रही हैं उससे साफ जाहिर है कि नीतीश के लिए बिहार सीएम का पथ किसी अग्निपथ से कम नहीं होगा। उनके सामने कई चुनौतियां होंगी जिसका सामना उन्हें हार हाल में करना होगा।
बड़े भाई की भूमिका में बीजेपी
बिहार में हमेशा से बीजेपी के बड़े भाई की भूमिका निभाने वाली जेडीयू की स्थिति पहले की तुलना में काफी बदली हुई नजर आएगी। राज्य की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनने वाली बीजेपी यूं तो चुनाव पूर्व किए गए अपने वादे को निभाते हुए नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने जा रही है, लेकिन बिहार सरकार में अहम पद बीजेपी अपने पास ही रख सकती है।
एनडीए में जेडीयू की तुलना में कहीं अधिक सीटें जीतने वाली बीजेपी पहले के मुकाबले अधिक तोल-मोल वाली स्थिति में आ गई है। इसका असर, बिहार की नई एनडीए सरकार में शुरुआत से ही दिखने लग सकता है।
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सूत्रों की माने तो दो डिप्टी सीएम के साथ विधानसभा अध्यक्ष पद भी बीजेपी अपने पास रखेगी। वहीं, जेडीयू भी विधानसभा अध्यक्ष का पद मांग रही है। दरअसल, पहले जहां बिहार की एनडीए सरकार पर बीजेपी सुशील मोदी को डिप्टी सीएम बनाती थी, अब पार्टी अपने दो नेताओं को डिप्टी सीएम बनाने जा रही है।
सुशील मोदी की कमी
नीतीश कुमार की दूसरी चुनौती सुशील मोदी का डिप्टी सीएम पद पर न होना होगा। नीतीश कुमार को अपने चहेते उपमुख्यमंत्री और इमरजेंसी आंदोलन के दौरान के उनके साथी सुशील कुमार मोदी के बगैर ही अब बार सरकार चलानी पड़ेगी। 15 साल में बीच के कुछ वर्ष ही ऐसे गुजरे हैं, जब नीतीश और सुशील मोदी में कोई सियासी मतभेद नजर आया हो।
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नीतीश के साथ साए की तरह चिपके रहने के चलते उन्हें बिहार के बीजेपी कार्यकर्ताओं की आलोचनाओं का शिकार भी होना पड़ता रहा है। लेकिन इस बार बीजेपी सुशील मोदी की जगह दो डिप्टी सीएम बना रही है। ऐसे में नए डिप्टी सीएम के साथ नीतीश कुमार कैसे तालमेल बैठाएंगे ये बड़ा सवाल बना हुआ है।
हम और वीआईपी
बिहार में एनडीए की 125 सीटों में 4 वीआईपी और 4 हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के पास है। ये दोनों दल इस चुनाव से पहले तक राजद के साथ थे। ‘हम’ के मांझी तो वह सियासी कलाकार हैं, जो नीतीश के रहमोकरम पर सीएम बनकर उन्हीं को पहले झटका भी दे चुके हैं।
यानि, एनडीए का बहुमत अभी इन दोनों गुलाटीबाज पार्टियों की मोहताज है। अगर इन्होंने कोई खेल किया तो नीतीश सरकार कभी भी संकट में आ सकती है। ऊपर से एग्जिट पोल की हवाई भविष्यवाणियों के मद में चूर आरजेडी ट्रंप की तरह अभी भी हार मानने को तैयार नहीं हुई है।
यानि नीतीश कुमार को स्थिर सरकार चलाने के लिए बाकी राजनीतिक गतिविधियों पर भी हमेशा चौकसी रखने की जरूरत पड़ने वाली है। वैसे बीजेपी के लिए नीतीश को ज्यादा परेशान करना भी उतना आसान नहीं होगा, क्योंकि नीतीश ने तो सिर्फ आखिरी चुनाव का ऐलान कर रखा है, एनडीए ही उनका आखिरी ठिकाना है इसका वादा उन्होंने नहीं किया है। 2017 में वे लालू को इसकी पूरी फिल्म दिखा चुके हैं।
मजबूत विपक्ष
चाहे चिराग पासवान की एनडीए छोड़कर चुनाव लड़ने की वजह से हुआ हो, लेकिन इतना तय है कि इस समय तेजस्वी यादव की अगुवाई वाला महागठबंधन 110 विधायकों के साथ बिहार में मजबूत विपक्ष की भूमिका में है। तेजस्वी की आरजेडी में 15 साल बाद भी सत्ता में पहुंचते-पहुंचते पिछड़ने का गुस्सा भी है तो कम से कम अगले पांच साल के इंतजार की मजबूरी वाली मायूसी भी।
राजद को पता है कि पहली कैबिनेट में 10 लाख सरकारी नौकरी देने वाला तेजस्वी का ‘चुनावी शिगूफा’ भले ही परिणाम नहीं बदल पाया, लेकिन बिहार के बेरोजगार युवाओं के सीने में एक आग जरूर लगा गया है। ऐसे में नीतीश सरकार को उन 19 लाख रोजगार के वादों पर भी जल्द काम शुरू करके दिखाना होगा, जिसका सब्जबाग दिखाकर सहयोगी भाजपा उनकी पार्टी की बड़ा भाई बन गई है।