कुमार भवेश चंद्र
इस सवाल पर सरकार की चुप्पी अधिक दिन नहीं रह पाएगी। इस सवाल पर उसे सोचना होगा। उसे करना ही होगा। क्योंकि यह सवाल करोड़ों घरों से उठने वाला है। अपनी बात शुरू करने से पहले मैं चाहूंगा कि आप सोशल मीडिया पर चल रहे इस पोस्ट को ध्यान से पढ़िए। मुमकिन है यह पोस्ट आपके मोबाइल या कंप्यूटर स्क्रीन पर भी नमूदार हुई हो। आपने उसपर अधिक ध्यान नहीं दिया हो या फिर उसे मामूली चुटकुलेबाजी समझकर नजरंदाज कर दिया हो।
प्रवासियों की घरवापसी की कठिन यात्राओं की हृदयविदारक तस्वीरों के बीच यह पोस्ट उनके खिलाफ विद्रोही तेवर का भाव लिए हुए हैं लेकिन मध्यवर्गीय-निम्नवर्गीय समाज की बहुत बड़ी चिंताओं से जुड़ा है। कोरोना के संकट से उपजे हालातों का दर्द बयान करने वाली इस पोस्ट को तो सरकारी नियंताओं के तवज्जो की भी जरूरत है। आज का चिंतन नाम से जारी इस पोस्ट की पहली लाइन आपने सामने रखता हूं।
“ऐसी फीलिंग आ रही है कि देश में सिर्फ मजदूर ही रहते हैं…बाकी क्या घुइयां (अरबी) छील रहे हैं..अब मजदूरों का रोना रोना बंद कर दीजिए। मजदूर घर पहुंच गया तो ..उसके परिवार के पास मनरेगा का जॉब कार्ड, राशन कार्ड होगा ! सरकार मुफ्त में चावल व आटा दे रही हैं। जनधन खाते होंगे तो मुफ्त में पैसा भी दिया 2000 रुपया।”
पोस्ट के इस हिस्से को पढ़ते हुए आपको ऐसा लग सकता है कि ये श्रमिक विरोधी पोस्ट है। पोस्ट के अगले हिस्से को पढ़ने से पहले ये जानना जरूरी है कि देश में एक मजदूर से भी कम कमाने वाले वेतनभोगियों का एक बहुत बड़ा तबका खड़ा हो गया है। लाखों की फीस के बाद तकनीकी से लेकर पेशेवर शिक्षा पाने वाले अधिकतर नौजवानों की शुरुआती नौकरी में क्या सैलरी मिल रही है इससे नावाकिफ नहीं होंगे आप।
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दुनिया भर के शोषण और उत्पीड़न पर हाहाकार मचाने वाले टीवी चैनलों के न्यूज़रूम में ही चपरासी और लाखों रुपये खर्च कर टीवी जर्नलिज्म की डिग्री लेने वाले इंटर्न या ट्रेनी के नाम पर रखे गए युवा पत्रकारों की सैलरी की तुलना कर लें तो हालात समझने में अधिक आसानी होगी। इंजीनियरिंग की महंगी पढ़ाई के बाद भी कैसी शुरूआत करनी पड़ रही है, इसकी पीड़ा से तो उच्चवर्ग भी खुद को संबद्ध कर सकता है। यह पोस्ट आगे उसी की बात करता है।
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“जिसने लाखों रुपये का कर्ज लेकर प्राईवेट कालेज से इंजीनियर किया था ..और अभी कम्पनी में 5 से 8 हजार की नौकरी पाया था लेकिन मजबूरी वश अमीरों की तरह रहता था। जिसने अभी अभी नयी नयी वकालत शुरू किया था ..दो चार साल तक वैसे भी कोई क्लाइंट नहीं मिलता ! दो चार साल के बाद ..चार पांच हजार रुपये महीना मिलना शुरू होता है । लेकिन मजबूरीवश वो भी अपनी गरीबी का प्रदर्शन नहीं कर पाता। और चार छ: साल के बाद.. जब कमाई थोड़ी बढ़ती है दस-पंद्रह हजार होती हैं तो भी..लोन वोन लेकर ..कार-वार खरीदने की मजबूरी आ जाती हैं। बड़ा आदमी दिखने की मजबूरी जो होती हैं..अब कार की किस्त भी तो भरना है?”
यह पोस्ट यही रुकता नहीं। आगे व्यवस्था को धिक्कारता है, “उसके बारे में भी सोचिये..जो सेल्स मैन, एरिया मैनेजर का तमगा लिये घूमता था बंदा ..भले ही आठ महीना मिले लेकिन कभी अपनी गरीबी का प्रदर्शन नहीं किया। ..उनके बारे में भी सोचिये जो बीमा ऐजेंट, सेल्स एजेंट बना मुस्कुराते हुए घूमता था ..आप कार की एजेंसी पहुंचे नहीं कि कार के लोन दिलाने से ले कर कार की डिलीवरी दिलाने तक के लिये मुस्कुराते हुए, साफ सुथरे कपड़े में, आपके सामने हाजिर। बदले में कोई कुछ हजार रुपये ! लेकिन अपनी गरीबी का रोना नहीं रोता है। आत्म सम्मान के साथ रहता है।”
यह पोस्ट बहुत लंबी है और कोरोनाकाल में अर्थव्यवस्था की बदहाली में फंसे इस वर्ग की संख्या भी बहुत बड़ी है। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र में रोजगार वालों की तादाद कितनी बड़ी है। मोदी सरकार ने वजूद में आते ही विकास पीडिया नाम से जिस सरकारी पोर्टल की शुरुआत की थी, उसी के आंकड़े कहते हैं कि 2009-10 में 43.7 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। संगठित क्षेत्र में महज 2.8 करोड़ नौकरियां हैं। ये पोर्टल आपको बताता है कि असंगठित क्षेत्र के 24.6 करोड़ लोग तो कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं जबकि 4.4 करोड़ लोग निर्माण क्षेत्र में हैं। और बाकी बचे लोगों की नौकरी सेवा और उत्पादन क्षेत्र में है।
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अब सवाल उठता है कि केंद्र सरकार ने हाल में जिस ‘भारी भरकम’ आर्थिक पैकेज का ऐलान किया है, क्या वह इस विशाल जनसमुदाय की अपेक्षाओं को पूरा कर पाने में कामयाब है? सामाजिक सुरक्षा के दर्जन भर से अधिक योजनाएं क्या इस क्षेत्र की जिंदगी में कोई रौशनी दिखा पा रही हैं? सड़कों पर भूखे, परेशान-हलकान लोग जो अपने घरों की ओर यात्राएं कर रहे हैं उनके रोजगार की मुकम्मल व्यवस्था बना पा रही है सरकार? क्या कुछ महीनों के लिए ईपीएफ और ईएसआई कटौती में छूट और ईएमआई को तीन महीने आगे खिसका देने से इस वर्ग की मुश्किलें हल होती दिख रही हैं? क्या कांट्रेक्ट पर काम करने वाले करोड़ों वेतनभोगियों के टीडीएस में इस वित्त वर्ष में 10 फीसदी की बजाय 7.5 फीसदी की कटौती कोई राहत दे पाएगी? क्या फैक्टरियों से लेकर बड़ी कंपनियों में 8 हजार से लेकर 20-25 हजार तक की नौकरी करने वाले वेतनभोगियों की नौकरी की गारंटी सरकार दे पा रही है? क्या इन लॉकडाउन की वजह से लाखों नौकरियां गंवाने वालों को इस सरकार ने सीधी कोई राहत दी है? या इस पैकेज के साथ जो नीतिगत ऐलान किए गए हैं, उनसे कोई उम्मीद दिख रही है, इस वर्ग के लिए?
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इनमें से अधिकतर सवालों के जवाब नकारात्मक है। जाहिर है आने वाले कुछ महीनों में अर्थव्यवस्था की हालत और भी चिंतनीय होने वाली है। जो सिसकियां और चीख-पुकार अभी चमचमाते एक्सप्रेसवे-हाईवे पर सुनाई दे रही हैं वे घरों में पहुंच जाएंगी। हर घर में पहुंच जाएंगी। मुमकिन है सरकार को एक बार फिर किसी पैकेज की जरूरत महसूस हो, क्योंकि मौजूदा पैकेज जमीन पर कम और आसमानी आंकड़ों पर अधिक निर्भर है।