केपी सिंह
भारतीय समाज विचित्रताओं से भरा है। इस समाज में जातिगत और धार्मिक द्वंदात्मकता प्रखरता के साथ मौजूद है जो हिंसक सघर्षों में भी बदल जाता है। दूसरी ओर यह समाज उदात्त शिखर छूने के लिए वृहत्तर एकजुटता के रुझान को भी प्रदर्शित करता है। पहले और बाद के निर्णायक स्वतंत्रता संग्राम में इसे स्पष्ट रूप से देखा गया। हिंदू और मुसलमान आपसी वैमनस्य भुलाकर इस दौरान एकजुट हुए। गांधी बब्बा ने स्वाधीनता आंदोलन को जन आंदोलन बनाया तो अमीर से गरीब तक, सवर्ण से दलित तक सभी ने फिरंगी शासन का जुआ उतारकर फेंकने के लिए इसमें बढ़चढ़ कर भागीदारी की।
हाल में लोकसभा चुनाव के दौरान फिर भारतीय समाज की एक विराट पहचान के रूप में एकाकार होने की ललक झलकी जब मोदी के नाम पर राष्ट्रवाद के लिए सभी जाति घटक भाजपा के पाले में एकजुट हो गये। भले ही मोदी और भाजपा में अन्य लाख कमियां गिना दी जायें लेकिन तटस्थ बुद्धिजीवियों को उसकी यह सफलता अच्छी लगी थी क्योंकि इसमें जड़ता तोड़कर समाज के सही दिशा में आगे बढ़ने का सकारात्मक संदेश निहित था।
कांशीराम मायावती की अंबेडकरवाद से बेवफाई
बाबा साहब अंबेडकर ने भी इसी तरह की जददोजहद की थी। जब उन्होंने तत्कालीन अछूत समाज की सभी जातियों को बौद्ध धर्म ग्रहण कर एक नई पहचान के तौर पर संगठित हो जाने के लिए प्रेरित किया। बाबा साहब अपने जीवन में तमाम संघर्ष और त्याग के बावजूद जितने लोकप्रिय नही हो पाये थे उतने 1990 में वीपी सिंह सरकार द्वारा उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से अलंकृत करने की घोषणा के बाद हुए। इसके बाद तो उनके नाम का जाप सरकार बनाने, बिगाड़ने के खेल का सिद्ध मंत्र बन गया।
लेकिन विरोधाभास यह है कि जब उनकी स्मृतियां इस कदर ताकतवर हुईं तो दलितों के एक पहचान में समाहित होने का उनका आवाहन किनारे हो गया। उनके नाम पर राजनीति की बुलंदियां छूने वाले कांशीराम और मायावती तक ने बौद्ध बनना स्वीकार नही किया और बदस्तूर जाति की दुहाई राजनीतिक कामयाबी के लिए देते रहे। अंबेडकरवाद पर सवारी करके मायावती उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनीं। जिसके दौरान जातिगत भाईचारा समितियों की राजनीति को आगे बढ़ाना उन्होंने शोषित, वंचित समाज में एक-दूसरे से पृथक्करण की लाइन को गहरा करने का काम किया।
एक कदम आगे दो कदम पीछे के लिए अभिशप्त भारतीय समाज
क्या यह भारतीय समाज की नियति है। क्या यह समाज व्यापक पहचान की अग्रसरता के मोर्चे पर एक कदम आगे, दो कदम पीछे हटने को अभिशप्त है। ऐसा नही होता तो हिंदुत्व की राजनीति प्रचंड होने के इस दौर में जातिगत अस्मिता की ललकार नये सिरे से फिर सिर उठाना शुरू न हो जाती।
झांसी में पुष्पेंद्र यादव एनकाउंटर मामले में सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्ट और कमेंट का तांता लगा जिनमें दावा किया जा रहा था कि भाजपा की सरकार आने के बाद प्रदेश में इतने यादव मारे जा चुके हैं। हालत यह है कि चुनाव में हिंदुत्व की छतरी ने यादवों को कम नही लुभाया। इसलिए इस सरकार को लाने में यादवों का भी बड़ा योगदान रहा है।
हत्या सहित संगीन अपराधों की वारदातों का बढ़ना अपराध नियंत्रण के मामले में सरकार की विफलता को उजागर करता है। जिसका आम विरोध होना चाहिए। लेकिन जाति विशेष के सफाये के अभियान का बेतुका खाका खीचना कतई स्वीकार नही किया जा सकता।
हत्यायें क्यों बन रहीं हैं जाति विशेष का मुददा
इसी बीच हिंदु समाज पार्टी के अध्यक्ष कमलेश तिवारी की लखनऊ में पूरी प्लानिंग के साथ की गई हत्या राज्य सरकार के लिए नई मुसीबत बनकर सामने आई है। पहले दिन से ही इस हत्या के साथ पिछले कुछ महीनों में ब्राहमण जाति के जितने लोगों की हत्यायें प्रदेश में हुई हैं उन सबको एक साथ परोसकर सरकार को ब्राह्मणों की सुरक्षा में कोताह साबित करने का ट्रैंड चल रहा है।
अगर यादव, ब्राहमण और अन्य कौमें उनकी जाति का मुख्यमंत्री न होने से इस बात से आश्वस्त नही हैं कि उनकी सुरक्षा के मामले में सरकार गंभीर हो सकती है तो यह बिडंबना ही है। यह एक काल्पनिक अंदेशा है जो हिंदुत्व के नारे के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह का सूचक है।
किसी जाति विशेष के लिए अलग से सुरक्षातंत्र बनाना या न बनाना किसी सार्वभौम व्यवस्था में संभव नही है। इसके बावजूद ब्राहमण समुदाय को इसी धारणा पर कमलेश तिवारी की हत्या ने उद्वलित कर रखा है। जिससे योगी सरकार के हाथ-पैर फूले हुए हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसी हड़बड़ाहट में कमलेश तिवारी के परिजनों को अपने आवास पर बुलवाकर उनसे भेंट की तो उनके द्वारा दिये गये पूरे मांग पत्र को ज्यों का त्यों मान लेने का एलान कर दिया। हालांकि यह पासा उल्टा पड़ गया है। कमलेश तिवारी की मां कुसुम ने मुख्यमंत्री से मुलाकात के कुछ ही घंटे बाद सीतापुर में अपने घर पहुंचते ही उनके खिलाफ बयान जारी कर डाला।
जाति व्यवस्था के कारण भारतीय समाज का चरित्र औपनिवेशिक
जाति व्यवस्था के कारण भारतीय समाज का चरित्र औपनिवेशिक बन गया है जिससे उबरना संभव नही हो पाता। इसी कारण व्यापक पहचान की हर कोशिश यहां खंडित हो जाती है। जातिगत महासभाएं बनाने में वे शक्तियां विशेष रूप से सक्रिय हैं जिनका अहंकार इस व्यवस्था के बने रहने से ही पोषित होता है।
जातिगत संगठन सिर्फ अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट देने की वकालत करते हैं भले ही इससे दगाबाजी का कलंक लगता हो। जबकि वोट देने का फैसला अपनी विचारधारा के अनुकूल पार्टी के लिए होना चाहिए। भले ही उसका उम्मीदवार बेगानी जाति का हो। यहां तक कि विवाद या अपराध के मामले में भी अपनी जाति के लोगों के पक्ष में खड़े होने की खुल्लमखुल्ला वकालत की जाती है, बिना न्याय-अन्याय देखे। इस तरह की धारणाएं राजनीतिक, प्रशासनिक और वैधानिक ढांचे के विरुद्ध होने से अनर्थकारी हैं।
भाजपा इस प्रबंधन पर ध्यान नही दे रही है। एकओर आरक्षण को जातिगत भेदभाव बने रहने तक जारी रखने का दम भरती है, दूसरी ओर अपने व्यवहारिक परिणामों में वह आरक्षण को ठिकाने लगाती जा रही है। मुंह में राम बगल में छुरी का उसका यह रवैया दर्शा रहा है कि वर्ण व्यवस्था को लेकर उसकी असल जहनियत क्या है।
पहले से योगी सरकार के प्रति ब्राहमणों में है नाराजगी
पर लोगों को यह समझना होगा कि जातिवादी व्यवस्था इस समाज के लिए बेहद घातक होती जा रही है। इसकी फितरत भस्मासुरी है। सवर्णों द्वारा इसे अपने परंपरागत सामाजिक वर्चस्व को बनाये रखने के लिए वरदान दिया गया लेकिन अब सवर्णो की ही दो मुख्य जातियों में यह तलवार खिचने का कारण बन रही है। कमलेश तिवारी की हत्या के मामले में फूटा ब्राहमणों का गुस्सा अचानक नही है बल्कि ब्राहमण समाज में योगी सरकार बनने के बाद पहले ही दिन से अचेतन में संचित हो रहे असंतोष के विस्फोट का नतीजा है। वह तो गनीमत है कि इसके तार गुजरात कनेक्शन से जुड़े निकले। लेकिन हत्यारे कमलेश तिवारी के परिचित और घनिष्ट थे जो घटना के समय की बताई गई तस्वीर से उजागर हुआ। इसलिए माजरा कुछ और भी लगता है।
दिवंगत नेता के परिवार का आरोप है कि इस हत्या में भाजपा के कुछ स्थानीय नेताओं ने भूमिका निभायी है जो कमलेश तिवारी द्वारा अगले चुनाव के लिए तैयार किये जा रहे प्लेटफार्म से सशंकित रहते थे। बहरहाल हत्यारों की गिरफ्तारी के बाद ही इस उलझे मामले की सभी गुत्थियां सुलझ पायेगीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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