शबाहत हुसैन विजेता
फिल्म थके हुए दिमाग को सुकून देने का ज़रिया है. फिल्म पर इंसान इसलिए पैसा खर्च करता है क्योंकि तीन घंटे के लिए वह अपने दर्शक को एक ऐसी बनावटी दुनिया में लेकर चली जाती है जहाँ पर उसके अपने दुःख, दर्द और मुश्किलें कहीं खो सी जाती हैं. ज़रूरी नहीं है कि फिल्म देखकर थियेटर से बाहर निकलने वाला हर बार मुस्कुराता हुआ ही निकले. कई बार बाहर निकलते लोगों की आँखों में आंसू भी होते हैं.
फिल्म इंसान को एक ऐसी काल्पनिक दुनिया में लेकर चली जाती है जहाँ पर उसकी अपनी मुश्किलें, उसके अपने दर्द सब बाहर ही छूट जाते हैं. 1984 में एक फिल्म आई थी सारांश. इस फिल्म में अनुपम खेर ने ऐसा शानदार किरदार निभाया था जिसने अनुपम खेर को रातों-रात स्टार में बदल दिया था. एक बूढ़े बाप के दर्द को जीते अनुपम खेर ने अपने किरदार के ज़रिये भ्रष्टाचार पर बहुत करारी चोट की थी. अपने बेटे की अस्थियाँ लेने आये बूढ़े बाप से रिश्वत माँगी जा रही थी.
1996 में शेखर कपूर की एक फिल्म आई थी बैंडिट क्वीन. दस्यु सुन्दरी फूलन देवी पर हुए अत्याचारों की दास्तान को इस फिल्म में इस अंदाज़ में पेश किया गया था कि जिसने भी इस फिल्म को देखा वह हिल कर रह गया था.
मुज़फ्फर अली ने उमराव जान नाम से एक फिल्म बनाई थी. उमराव जान एक तवायफ थी. इस फिल्म को लेकर मुज़फ्फर अली की रिसर्च और रेखा की ज़बरदस्त मेहनत ने इसब फिल्म को सुपरहिट कर दिया था. इस फिल्म की ग़ज़लें आज भी रेडियो पर बजती सुनाई दे जाती हैं तो सुनने वाला साथ में गुनगुनाने लगता है.
मुज़फ्फर अली कश्मीर पर फिल्म बनाना चाहते थे. जूनी के नाम से फिल्म की शूटिंग शुरू भी हो गई थी. मुज़फ्फर अली अपनी टीम के साथ कश्मीर में शूटिंग कर रहे थे. काफी काम हो भी चुका था लेकिन जब कश्मीर के हालात बदले तो उन्हें शूटिंग बंद कर लखनऊ वापस लौटना पड़ा. वह फिल्म डब्बा बंद हो गई.
मुज़फ्फर अली के दिल और दिमाग में लगातार यह बात चलती रहती है कि जूनी बननी चाहिए. शूटिंग के लिए फिर से कश्मीर जाना चाहिए लेकिन दिक्कत की बात यह है अब जूनी बनायेंगे तो रीशूट करनी पड़ेगी. इतने लम्बे वक्त के बाद कलाकारों की शक्लें भी बदल गईं. घाटी के हालात भी बदल गए. सूफी तबियत के मुज़फ्फर अली ऐसी फिल्म बनाना चाहते हैं कि उसे पहली नज़र से देखने वाले को ही कश्मीर से प्यार हो जाए.
कश्मीर से प्यार हो भी क्यों नहीं क्योंकि कहा भी गाय है कि अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो कश्मीर में है. हिन्दुस्तान के लिए यह घमंड की बात है कि दुनिया का स्वर्ग भारत के पास है. कश्मीर में यूं तो हज़ारों फ़िल्में शूट की गई हैं लेकिन कश्मीर पर फिल्म बनाने का ख़्वाब मुज़फ्फर अली ने देखा था.
मुज़फ्फर अली तो अपना ख़्वाब अभी तक पूरा नहीं कर पाए क्योंकि जब वह शूटिंग कर रहे थे तब माहौल खराब हो जाने से उन्हें वापस लौटना पड़ा था, लेकिन विवेक अग्निहोत्री ने न सिर्फ कश्मीर पर फिल्म बनाने का ख़्वाब देखा बल्कि उसे पूरा भी कर लिया. उन्होंने खराब हालात वाले दिनों को अपनी फिल्म के सब्जेक्ट की शक्ल में चुना. “द कश्मीर फाइल्स” की शूटिंग न सिर्फ कम्प्लीट हो गई बल्कि यह सिनेमाघरों में रिलीज़ भी हो गई.
फिल्म में कई ऐसी बातें हैं जो हकीकत से दूर हैं लेकिन उन्हें बगैर एतराज़ आगे बढ़ा जा सकता है क्योंकि फिल्म सच नहीं होती. फिल्म वह कल्पना होती है जो अपने दर्शकों का मनोरंजन करती है. फिल्म जब बैंडिट क्वीन की शक्ल में हकीकत दिखाती है तो भी वह एक पीड़ित औरत के प्रति संवेदना जगाती है. वह किसी के लिए भी नफरत का माहौल नहीं बनाती है. यहाँ तक कि यह फिल्म दर्शकों को डाकुओं के खिलाफ भी उत्तेजित नहीं करती है. यह फिल्म सिर्फ फूलन देवी द्वारा सहे गए दर्द को लोगों के ज़ेहनों तक पहुंचा देती हैं.
बैंडिट क्वीन को बनाने वाले शेखर कपूर की क़ाबलियत फिल्म के दर्शकों तक सीधे पहुँच जाती है लेकिन विवेक अग्निहोत्री ने जो फिल्म बनाई वह सिनेमाघरों तक पहुँचने से पहले ही एजेंडे में कन्वर्ट हो गई.
तमाम विषयों पर फ़िल्में बनी हैं मगर कभी नहीं हुआ कि फिल्म निर्देशक और कलाकार संघ प्रमुख से लेकर प्रधानमन्त्री व मुख्यमंत्रियों के साथ फोटो सेशन करते नज़र आये हों. यह पहली बार हुआ है कि फिल्म को एक सनसनी की तरह से पेश किया गया और सनसनी को स्टेब्लिश करने के लिए फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री को वाई श्रेणी की सुरक्षा दे दी गई. फिल्म को टैक्स फ्री भी कर दिया गया.
द कश्मीर फाइल्स कश्मीर के 1989 -1990 के उस दौर को दिखाती है जिसमें कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से बेदखल किया गया था. विवेक अग्निहोत्री की फिल्म बताती है कि कश्मीर में हुए नरसंहार में चार हज़ार कश्मीरी पंडित मारे गए थे. कश्मीर जब कश्मीरी पंडितों को घर से बेदखल किया जा रहा था तब कितने कश्मीरी पंडितों की जानें गईं इस पर हर रिसर्च की अलग संख्या है.
विवेक इस विषय पर फिल्म बना रहे थे तो उन्हें इस पर रिसर्च ज़रूर करनी चाहिए थी. वह चार हज़ार संख्या बोल रहे थे तो बताना चाहिए था कि यह संख्या कहाँ से लाये क्योंकि यह अति संवेदनशील मुद्दा है. कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति का कहना है कि नरसंहार में 650 कश्मीरी पंडित मारे गए थे. 1991 में आरएसएस पब्लिकेशन ने मरने वालों की तादाद 600 बताई थी और सरकारी आंकड़ों में मरने वालों की संख्या 219 थी.
मरने तो 219 भी नहीं चाहिए थे लेकिन फिल्म में चार हज़ार बताकर सनसनी को भी बढ़ाया गया और नफरत में भी कई गुना इजाफा कर दिया गया. द कश्मीर फाइल्स में अभिनेता अनुपम खेर कुछ सामान की खरीददारी करते दिखाई देते हैं. दुकानदार बचे हुए नोट वापस करता है तो अनुपम खेर दुकानदार से पूछते हैं कि नोटों पर जिन्ना की जगह पर गांधी की तस्वीर क्यों नहीं है. वास्तव में फिल्म के इस दृश्य ने यह साबित कर दिया कि इतने संवेदनशील विषय पर फिल्म बना रहे विवेक अग्निहोत्री ने जानकार लोगों से राय तक नहीं ली क्योंकि फिल्म 1989-90 के दौर की है. उस दौर में नोटों पर अशोक की लाट छपा करती थी. गांधी जी का तो नाम-ओ-निशान भी नहीं था. गांधी जी की तस्वीरों वाले नोटों की सीरीज तो 1996 में आई.
फिल्म अभिनेता अनुपम खेर पर पिछले कई सालों से सियासत का भूत सवार है. आये दिन उनके सियासी बयान सामने आते रहते हैं. इस फिल्म के प्रमोशन के लिए अनुपम खेर ने खुद को कश्मीर से बेदखल किया गया कश्मीरी पंडित बताया जबकि हकीकत यह है कि अनुपम खेर सात मार्च 1955 को शिमला में पैदा हुए थे. उनके पिता वन विभाग में नौकरी करते थे और नौकरी के सिलसिले में वह 1950 में ही शिमला में बस गए थे. वह वहां नीरज भारती के मकान में रहते थे. अनुपम खेर ने शिमला में ही पढ़ाई की और यहीं से एनएसडी (दिल्ली) में अभिनय की बारीकियां सीखने चले गए.
अनुपम खेर ने 1982 में मुज़फ्फर अली की फिल्म आगमन में अभिनय किया. 1984 में आई उनकी फिल्म सारांश ने उन्हें स्थापित कलाकार में बदल दिया. जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार चल रहा था तब तो अनुपम खेर मुम्बई में त्रिदेव, राम लखन और दिल जैसी फिल्मों में अभिनय कर रहे थे. उस दौर में अनुपम खेर ने कश्मीरी पंडितों के लिए मुम्बई तक में कोई प्रदर्शन नहीं किया था.
अनुपम खेर शिमला से मुम्बई जाकर बड़े कलाकार बन गए. लाखों-करोड़ों में खेलने लगे मगर उनके माँ-बाप शिमला में नीरज भारती के किराए के घर में रहते रहे. अनुपम खेर ने अपने माँ-बाप के लिए घर खरीदने तक की ज़रूरत नहीं समझी. राष्ट्रभक्ति की पहली शर्त ही यही होती है कि माँ-बाप की ज़रूरतों को पूरा किया जाये. माँ-बाप के बाद भाई-बहन, फिर रिश्तेदार, इसके बाद पड़ोसी. इन्हीं सबको मिलाकर ही तो देश बनता है मगर अपने माँ-बाप को किराए के घर से निकालने भी शिमला नहीं पहुंचे अनुपम खेर. अनुपम खेर का सच रुबिका लियाकत के साथ शूट की गई दो तस्वीरों से सामने आ जाता है. एक वह तस्वीर है जो पेश की गई दूसरी वह जो पर्दे के पीछे की है.
द कश्मीर फाइल्स को कैश कराने की कोशिश में जिस तरह से बीजेपी जुटी हुई है उससे तो यह लगता है कि जब बीजेपी नहीं थी तब कश्मीरी पंडितों के साथ अन्याय हुआ था और अब बीजेपी ही उन्हें इन्साफ दिलाकर वापस उनके घरों को पहुंचाएगी.
सच यही है कि अपनी गल्तियों को कैश करने का हुनर बीजेपी को ही आता है. अपनी गल्तियों को भी वोट में कन्वर्ट करना जानती है बीजेपी. यह वह पार्टी है जो विपक्ष में रहती है तो सरकार को सांस भी नहीं लेने देती और जब सत्ता में रहती है तो लगातार विपक्ष पर इतनी हमलावर रहती है कि विपक्ष अपने बचाव के तरीके ढूंढता रहता है.
कश्मीरी पंडितों की कश्मीर से बेदखली और नरसंहार जब हुआ तब केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की बीजेपी समर्थित सरकार थी. कश्मीरी पंडितों के मुद्दे पर तब बीजेपी ने विरोध की एक आवाज़ भी बुलंद नहीं की थी. वीपी सिंह की सरकार से बीजेपी ने समर्थन तो तब वापस लिया जब लालू प्रसाद यादव ने बिहार में सोमनाथ से अयोध्या जा रहे रथ को रोक दिया था और लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था. बीजेपी के लिए कश्मीरी पंडित तब कोई मुद्दा ही नहीं थे. मुद्दा तो आडवाणी थे क्योंकि वह सोमनाथ से वोटों की गठरी बड़ी करते हुए अयोध्या जा रहे थे. वोटों का गट्ठर सड़क पर गिरा दिया गया तो वीपी सिंह की सरकार भी गिरा दी गई.
कश्मीरी पंडितों पर फिल्म द कश्मीर फाइल्स बनी तो उसके प्रचार में सरकार लग गई. मूर्ख विपक्ष इसमें बिजी हो गया कि पुलवामा पर फिल्म बनाओ, गोधरा पर फिल्म बनाओ, अयोध्या पर फिल्म बनाओ, एनआरसी पर फिल्म बनाओ. द कश्मीर फाइल्स का तो स्वागत होना चाहिए था और सरकार पर दबाव बनाना चाहिए था कि घरों से बेदखल किये गए कश्मीरी पंडितों को वापस कश्मीर में बसाया जाए. जिन कश्मीरी पंडितों का कत्ल हुआ उनके घर वालों को मुआवजा दिया जाये. ज़ख्म को मरहम की ज़रूरत होती है. द कश्मीर फाइल्स मरहम बन सके तो बहुत अच्छा होगा. यह ज़ख्म कुरेदने का ज़रिया बने तो ऐसी कोशिशों को विनम्र श्रद्धांजली है.
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