Monday - 28 October 2024 - 5:28 PM

‘यादों’ को नई पहचान देने वाले शायर डॉ. बशीर बद्र की याददाश्त गुम

उत्कर्ष सिन्हा

“उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए .” 

ये मशहूर शेर कहने वाला मकबूल शायर फिलहाल अपनी याददाश्त से ही जंग लड़ रहा है।  हम बात कर रहे हैं इस दौर के सबसे बड़े शायर बशीर बद्र साहब की । उनकी याददाश्त इस कदर गुम हो गई है कि वे अपनी शरीक ए हयात यानि अपनी पत्नी को भी नहीं पहचान पा रहे हैं।

85 साल के बशीर बद्र फिलहाल भोपाल के अपने घर में तनहाई में कैद हैं। कोरोना काल में उन्होंने खुद को पाबंदियों में कैद कर लिया था और  महफिलें क्या खामोश हुई कि उन्होंने बाहर के लोगों से मिलना भी बंद कर दिया था।

मुशायरों और नाशिस्त की जान बशीर साहब को हजारों शेर जुबानी याद थे। हर बार पर कभी गालिब कभी फिराक और कभी खुद के शेर से महफ़िल को हवा में उठा देने वाले बशीर साहब मौजूदा वक्त के नौजवान शेयरों को भी खूब याद रखते रहे।

उनकी सेहत की खबर सुनने के बाद उनके घर का फोन लगातार बज रहा है। बशीर साहब की खैरियत जानने के लिए लोग उनके घर पहुँच रहे हैं जहां उनकी पत्नी डॉ. राहत बद्र कोरोना संक्रमण का हवाला देकर विनम्रता से मना कर देती हैं।

घर पहुँचने वालों में बशीर साहब के जानने वाले तो हैं ही , मगर बड़ी तादात उन लोगों की है जिनसे बशीर साहब का रिश्ता महज शायरी के धागे से जुड़ा हुआ है।

बशीर बद्र फिलहाल डिमेंशिया नामक बीमारी से घिरे हैं, उनकी याददाश्त जा चुकी है। उनके बेटे और उनकी पत्नी बशीर साहब को उनके शेर सुनाती हैं मगर उनका चेहरा भावहीन बना हुआ है।

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बशीर साहब ने जब उर्दू शायरी का दामन थामा तो उर्दू शायरी की रवायत ने करवट बदल ली। इश्क से शुरू हुई बशीर साहब की शायरी दार्शनिकता के दरवाजे तक पहुँच चुकी थी।  फिलहाल तो आलम तो ये था कि बशीर साहब की जुबान से निकला हर अल्फ़ाज़ शेर में ढाल जाता।

डॉ. बशीर बद्र के हिंदी में एक दर्जन से अधिक गजल संग्रह, जबकि उर्दू में 7 गजल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

कुछ शेर पाठकों की नज़्र कर रहा हूँ

हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा

जिस दिन से चला हूं मेरी मंज़िल पे नज़र है
आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा

शौहरत की बुलन्दी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पर बैठे हो, वो टूट भी सकती है

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,

तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।

करीब मौसमों के आने में, मौसमों के जाने में,

हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं,

 उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में,

मैं हर लम्हे में सदियां देखता हूं।

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