रिपु सूदन सिंह
वैश्विक आपदा मे कार्ल मार्क्स को याद करना दुस्साहसिक और चुनौतीपूर्ण कार्य है। आज संकट का एक ऐसा दौर है कि बरबस ही हम अपने पूर्वजों यथा वाल्मीकि, व्यास, चार्वाक, आलर कालाम, पतंजलि, बुद्ध, कन्फ़्यूशियस, लाओत्सी, कौटिल्य, प्लेटो, शंकर, कबीर, गुरुनानक, बुल्ले शाह, हेगल, टोलोस्टोय, विवेकानन्द, गांधी, राहुल सांकृत्यायन, अंबेडकर इत्यादि को याद कर रहे है।
मार्क्स अपने चिंतन मे भारत विश्व-दृष्टि की वैचारिकी के ज्यादा समीप है और शायद यही कारण है कि उसे उसके ही जन्मभूमि-कर्मभूमि यूरोप से सर्वदा के लिए बिदा कर दिया जाता है पर भारत समेत एशिया के विभिन्न देशो मे अभी भी वह राजनीतिक सत्ता और बौद्धिक विमर्श मे है।
भारत के वामपंथियों के संबंध मे भी यह विमर्श जरूरी है जिन्होने कार्ल मार्क्स को पूजा की वस्तु और मार्क्सवाद को रिलिजन (मजहब) मे बदल डाला।
पाँच मई के आते ही कार्ल मार्क्स की याद आती है और लगता है कि इस विद्वान को किस नाम से संबोधित किया जाये? क्या उसको ऋषि, मुनि, साधक, राजर्षि या फिर ब्रह्मर्षि से संबोधित किया जाये? ऋषि वह होता है जो ज्ञानी होता है जिसे हम दानिशमंद, विचारशील और बुद्धिमान कहते है। मुनि वो होता है जो आत्मसंमयी, तपस्वी होता है और वह किसी भी बात को सिद्ध करने का प्रयास करता है। साधक योगी को कहते है जो प्रदर्शक होता है, जो किसी भी कार्य को स्वम साधकर दिखाता है।
राजर्षी वह होता है जो इस भौतिक दुनिया और विशेष रूप से राज्य के संचालन का सारा गुण-भेद की बारीक जानकारी रखता है। अंत मे बात आती है ब्रह्मर्षि की। उसके दायित्यों मे उपरोक्त सारे कार्य तो जुड़े ही रहते है पर उसका सबसे प्रमुख काम है ब्रह्म की जानकारी रहना और उसके संपर्क मे निरंतर रहना। वह ज्ञानविमंशा के साथ साथ सत्ताविमंशा और मूल्यविमंशा भी करता है।
कार्ल मार्क्स ब्रह्मर्षि की ही परंपरा का प्रतिनिधित्व करते है। ब्रह्म वृ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है विस्तार। यानि वृ वह है जो अनंत, असीम, अंजान, अगम्य, अबूझ है अर्थात वह ब्रह्मांड (यूनिवर्स) है । ब्रह्मर्षि वह होता है जिसे इस ब्रह्मांड की जानकारी होती है। इसको जानने के लिए वह इंद्रिय के साथ साथ अतींद्रिय दृष्टि का भी सहारा लेता है। वह अतिक्रमण (ट्रान्ससेंद) कर क्षितिज के पार जा कर सोचता है। वह मनुष्य के होने, न होने और उससे जुड़े अन्य सभी पक्षो पर चर्चा करता है। वह उसके भूत, वर्तमान और भविष्य की रूपरेखा भी तैयार करता है। ब्रह्मर्षि कार्ल मार्क्स उसी ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाते हुये असंख्य प्रश्न करते है और मनुष्य के होने और न होने के बीच की अज्ञानता की खायी को भरने का काम करते है। वह अज्ञानता को ‘एक राक्षस मानते है और कहते है कि इसे नहीं रोका गया तो यह मानव जाति को खा जायेगा।‘ भारत विश्व-दृष्टि मे ब्रह्म निर्गुण है, सगुण है, भौतिक है, अभौतिक है, गैरभौतिक है, परा भौतिक है। उसमे समूचा जगत समाया है और वह समूचे जगत मे है।
वेद मे हमारे ऋषियों ने वसुधैव कुटुंबकम की बात की, उपनिषद ने सर्वे भवन्ति सुखिन, सर्वे सन्तु निरामयः की सद इच्छा जाहिर की, बुद्ध ने सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय का संदेश दिया, गीता में कृष्ण ने द्वंद निवारण का दर्शन दिया, शंकराचार्य ने अद्वैत अर्थात एक ऐसी स्थिति की कल्पना की जिसमे आत्मा और परमात्मा एक दूसरे मे समाहित हो जाते है, सब कुछ निर्द्वंद हो जाता है, एक मोक्ष की गति प्राप्त हो जाती है। जर्मनी का महान दार्शनिक हेगल ने अपनी पुस्तक फेनेमोलोगी ऑफ स्प्रिट मे डायलेक्टिक अर्थात द्वंद की बात करता है जिसमे एक ऐसे संवाद की चर्चा करता है जहाँ एक ऐसे विश्व राज्य की स्थापना होगी वहाँ व्यक्ति और राज्य का भेद ख़त्म हो जायेगा और समाज मे व्याप्त सारा अंतर्द्वंद और फसाद विलुप्त हो जायेगा। मार्क्स उसी पूर्वी और पश्चिमी परंपरा को एक दार्शनिक-वैज्ञानिक अभिव्यक्ति देता है और दोनों की ज्ञान परंपरा को एक दूसरे से संबध कर देता है।
वह समग्र ज्ञान (होलिस्टिक नॉलेज) की बात करता है जिससे समूचे मानव के कल्याण की कल्पना करता। वह मनुष्य जीवन को उसके समूचे परिवेश के साथ जोड़ कर देखता है। वह ऋषियों की ज्ञान परंपरा मे एक ऐसे विश्व-समाज की रूपरेखा तैयार करता है जिसमे मनुष्य का मनुष्य के साथ, नारी का पुरुष के साथ, एक वर्ग का दूसरे वर्ग के साथ, एक राज्य का दूसरे राज्य के साथ सारे द्वंद समाप्त हो जाएगें।
मार्क्स एक ऐसे विश्व समाज की स्थापना का एक वस्तुपरक निष्कर्ष निकालता है जो निर्द्वंद और ज्ञानोदित होगा। वह अपने भावी समाज को विकसित साम्यवाद का नाम देता है।
एडवांस्ड कोम्मुनिस्म की संज्ञा, ब्रह्मर्षि मार्क्स के मन की कोरी कल्पना नहीं है बल्कि इतिहास की बहुत ही बारीक वैज्ञानिक भौतिक व्याख्या पर आधारित है। वह हेगल के वैचारिक-दार्शनिक द्वंद्वाद के स्थान पर द्वंदात्मक-भौतिकवाद की पद्धति अपनाता है और पाता है कि इस विश्व का निर्माण स्व-संचालित (सेल्फ औटोमेटेड) भौतिक पढ़ार्थों से हुआ है और इसके निर्माण मे किसी दैवीय चमत्कार का खेल नहीं है।
वह इस्राइल मे उत्पन्न अब्राहमिक विश्व-दृष्टि के विश्वास केंद्रित ईश्वर का खंडन करता है, न कि भारत विश्व दृष्टि से उत्पन्न धर्म का। उसका दर्शन रेलीजन-मजहब रहित है न कि धर्म रहित। वह प्रारम्भिक समाज को आदिम साम्यवाद (प्रीमिटिव कम्यूनिज़्म) का नाम देते है और स्पष्ट करता है कि सभ्यता के विकास मे मानव जाति एक ऐसी अवस्था मे थी जिसमे न कोई राज्य था, न कोई वर्ग, न कोई परिवार और न कोई संपत्ति ही थी। वस्तुएं सामूहिक रूप से एकत्रित की जाती थी और उनका सामूहिक उपभोग होता था। मनुष्य समूह मे रहते थे। परिवार नाम की कोई संस्था नहीं थी जिसके अभाव मे कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी।
पर वह आदिम समाज विपन्नता, अभाव, अज्ञानता और अंधकार का समाज था। मनुष्य और मनुष्य के बीच कोई द्वंद नहीं था क्योकि मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए खुद ही प्रकृति से लड़ रहा था। उसके संग्रह की वृति नहीं थी। वह एक शोषनविहीन अवस्था थी। मार्क्स का यह विश्व समाज एक धार्मिक समाज की ही धारणा की पुष्टि करता है।
मार्क्स और उनके पूर्ववती मनीषियों के चिंतन का अंतिम लक्ष्य एक ऐसे आदर्श राज्य और एक आदर्श समाज की रूपरेखा तैयार करना था जहाँ भेद और द्वंद न रह जाये। अन्तर दोनों के साधनो मे है न कि लक्ष्य मे। हेगल मानव के अनंत अंतेर्विरोधों का कारण उसके विचार या थॉट मे देखते है वही मार्क्स उसके मूल कारण को पदार्थ मे देखते है।
जब मार्क्स अपनी पुस्तक इकनॉमिक अँड फिलोसोफिक मैनुस्क्रिप्ट ऑफ 1844 मे एलीनेशन अर्थात विच्छिन्ता-अलगाव की बात करते है तो भारतीय चिंतन और ज्ञान परंपरा जीवित हो उठती है। भारतीय मनीषियों और मार्क्स मे यही समानता है कि सभी मुक्ति की कामना करते है। कोई इसी ब्रह्मांड मे मुक्ति चाहता है तो कोई इस ब्रह्मांड मे समाहित होकर मुक्ति चाहता है। बुद्ध स्वम ज्ञान के दीप से प्रज्वलित करने की बात करते है, मार्क्स सारे श्रम साधको को विश्व के स्तर पर संगठित होने का आह्वान करते है। देखा जाये सभी एक आदर्श स्थिति की कामना करते है।
मार्क्स की मानव मुक्ति इसी ब्रह्मांड मे निर्मित एक विकसित साम्यवादी समाज मे संभव है जो उसके इतिहास के वैज्ञानिक विश्लेषण और सोच पर आधारित थी। उसका साम्यवादी समाज विपन्नता का समाज न होकर संपन्नता का समाज होगा जिसमे उत्पादन के संसाधन पूर्ण विकसित होगें, विज्ञान और तकनीकी अपने चरम को प्राप्त करेगा।
अंततः मानवीय चिंतन ऐसा होगा जिसमे मनुष्य की सारी विच्छिन्ता, अलगाव, अजनबीपन और सारे द्वंद ख़त्म हो जायेगे। मानव चिंतन एक ऐसी स्थिति मे पहुँच जायेगा कि वह अपने कार्य का चयन अपनी क्षमता से करेगा पर अपने श्रम का मूल्य अपनी जरूरतों के अनुसार लेगा।
फलतः एक ऐसे निर्द्वंद साम्यवादी समाज का प्रादुर्भाव होगा जो सबके हित और कल्याण मे होगा और मनुष्य जाति के बीच खड़ी ही गई कृतिम दीवारें धवस्त हो जायेगी। अंततः समूचा विश्व एक विस्तारित परिवार यानि वसुधव कुटुंबकम अर्थात समूचा विश्व एक परिवार मे बदल जायेगा। उसका एडवांस्ड कम्यूनिज़्म एक हिंसारहित ज्ञाननोदित समाज है जो बुद्धि, विवेक, करुणा और भाईचारे से चलेगा। मार्क्स के चिंतन मे पूरब-पच्छिम, दर्शन-विज्ञान, भौतिक-गैरभौतिक और अंततः ज्ञान और उसका परिवेश समाहित हो जाता है। इस संदर्भ मे देखा जाये तो मार्क्स एक भविष्द्रष्टा ब्रह्मर्षि प्रतीत होते।
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अंत मे एक बात बहुत ही महत्व की है कि मार्क्स, बुद्ध, अंबेडकर समेत कोई भी मनीषी आलोचना से परे नहीं। मार्क्स के विचार मे भी एक वृहद सत्य (बिगर ट्रूथ) देख सकते है पर निरपेक्ष (अंतिम) सत्य नहीं। मार्क्स खुद कहते है ‘हर चीज पर संदेह करो तभी सत्य तक पहुँचा जा सकेगा।‘ मार्क्स एक विकसित पूंजीवादी राज्य मे ही समाजवादी क्रांति की संभावना देखते है।
1917 की रूसी क्रांति पर इटली के महान कम्यूनिस्ट ग्रामसी की टिप्पड़ी थी कि ‘यह मार्क्स के कम्यूनिस्ट मनीफेस्टो के विपरीत क्रांति थी।‘ विश्व के कम्यूनिस्ट भक्त बन मार्क्सवाद को एक रेलीजन मे बदल डालते है और मार्क्स की हेगलवादी व्याख्या कर एक कठोर राजसत्ता स्थापित कर डालते। इन्ही कारणो से सोवियत संघ ख़त्म जाता है। चीन, क्यूबा और उत्तर कोरिया की सत्ता का मार्क्स के विचारों से कोई लेना देना नहीं।
मार्क्स रेलीजन-मजहब को अफीम कहता है और उसे शोषण का हथियार मानता है। भारत के कमुनिस्ट रेलीजन-मजहब और धर्म के फर्क को न मानकर सेकुलरिस्म के नाम पर केरल, बंगाल समेत समूचे भारत मे मजहबी पाखंड और जड़ता का समर्थन करते है और भारत जैसे सेकुलर स्टेट मे नॉन सेकुलर नीतियों के पीछे लामबंद हो जाते है जो सीधे सीधे मार्क्स के मौलिक विचारों पर ही हमला करता है।
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मार्क्स नास्तिक थे पर अधर्मिक नहीं, पर भारत के कम्युनिस्ट धार्मिक थे पर नास्तिक नहीं। इस तरह देखा जाये तो मार्क्स के प्रति न्याय तभी होगा जब उसका आंकलन उसके विचारों के संदर्भ किया जाये न कि दुनिया भर के कमुनिष्ट शासकों के तानाशाही कार्यों के आधार पर।
कोई भी विचार न सफल होता, न असफल होता। वह बस जिंदा रहता है और नयी दिशाएँ दिखाता।
(लेखक अंबेडकर केंद्रीय विश्वविदयालय, लखनऊ में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं, यह उनके निजी विचार हैं)