आज बाढ़ की बाढ़ सी आयी हुई है। पहाड़ों पर तो पानी ढोेने वाले बादल फटे पड़ रहे हैं। मानो सरकारी काम कर रहे हो ‘यहीं उड़ेल दो कौन चेक कर रहा है!” लोग बादलों से रहम की गुहार लगा रहे हैं कि भइये रेगिस्तान का दिशा मैदान देख लो। बादल हैं कि अड़े हुए हैं कि वहां इतनी दूर कौन कैरी करे? फारिग हो और निकलो।… शहर के कोरोना कैद से ऊबे सैलानी लॉकडाउन हटते ही पहाड़ों की तरफ भरभरा गये। देखा देखी पहाड़ भी भरभराने लगे। अब फंसे हुए हैं। एक नये तरह का लॉकडाउन फेस कर रहे हैं। यहां तो खाने के भी लाले हैं।
पिंकी की मम्मी के आंखों में आंसू हैं,’मना किया था कि अभी रुक जाते हैं। यह मौसम पहाड़ पर जाने का नहीं है, लेकिन आपको तो जैसे चोटी पर झंडा फहराना था।” फिर कुछ याद आता है,’आपको अपने मित्र वो जोशीमठ वाले जोशीजी पर बहुत भरोसा था कि वह आपके लिए वीआईपी गेस्ट हाउस में ठहरने का इंतजाम करा रहे हैं। अब हम मुसीबत में हैं तो हमारा फोन भी नहीं ले रहे हैं।”
पतिगण ऐसे मौके पर न जाने कहां से इतनी सहनशक्ति ले आते हैं कि मुंह से एक शब्द नहीं निकालते। बस इस खामोशी का भरपूर फायदा अगला उठाता है,’बच्चे सुबह से भूखे हैं। रास्ते भर यही दिलासा देते आये हो कि जोशी खाना लेकर गेस्ट हाउस पहुंच चुका है। बिस्कुट, चिप्स सब खत्म हो चुके हैं। पता नहीं यह रास्ता कब खुलेगा। देखो कहीं से पानी मिल सके तो ले आओ। प्यास के मारे सबका गला सूख गया है। भइया ने भी मना किया था कि यह वक्त पहाड़ों पर जाने का नहीं है। पर आपको तो वो फूटी आंख नहीं सुहाता। पता नहीं किस मनहूस घड़ी में तुमसे शादी करने के लिए हां कह दी।”
बच्चे मोबाइल गेम में मस्त हैं। यह सारे डायलॉग उन्हें पिछले कई सालों से रटे हुए हैं। उन्हें तो डायलाग के सिक्वेंस तक याद हैं। अगर कोई लाइन मम्मी भूल जाएं तो वे कान में धीरे से फुसफुसाने में पीछे नहीं हटते। बैटल फील्ड से चुपचाप खिसक लेने में ही फायदा नजर आया जनाब को। जनाब हमारे दोस्त हैं। जेब में हाथ डाले टहलते हुए एक खाकीवर्दी धारी के पास पहुंचते हैंं,’भाई साहब यहां कहीं चाय पानी मिल सकेगा?” वर्दीधारी का डंडे पर कसाव बढ़ जाता है। पता नहीं क्या सोचकर हौले से मुस्कुराया,’कितनी चाय ले आऊं सर?”
भाईसाहब समझ गये कि अगर एक शब्द भी आगे बोला तो डंडा पता नहीं कहां कहां अपने चिन्ह छोड़ेगा। बात पलटते हुए,’रास्ता क्लियर होने में अभी कितना वक्त और लगेगा?”
‘देखो कितना वक्त लगता है यह तो ऊपर वाला ही जाने। और हां सामने छप्पर से जो बरसात का पानी बह रहा है उसे इक्टठा कर लो और प्यास बुझा लो।” पर चाय कहां बरस रही है उसका ठिकाना उसने नहीं बताया।
‘आप बुरा न माने तो एक रिक्वेस्ट कर सकता हूं सर?”
‘बोलो जनाब।”
‘आपकी जब ड्यूटी खत्म हो तो आप अपने घर से कुछ खाना व पानी हमें ला देंगे? मेरे बच्चे भूखे हैं। जो पैसे कहेंगे दे दूंगा।” जनाब ने डरते डरते अपनी व्यथा कह सुनायी।
‘मैं भी मैदान से ही आया हूं। हमारे अधिकारी पीछे गाड़ी में हैं। मैं खुद चाय पानी के जुगाड़ में भटक रहा हूं।”
राज खुलते ही उसे कोफ्त हो रही थी कि खामख्वाह इस सिपहिए को इतना भाव दे दिया। पहले नहीं बता सकता था कि अपनी नौकरी बचा रहा है। बेहूदा कहीं का। पत्नी की डांट का असर उन पर साफ दिख रहा था। मन तो हुआ कि उसी का डंडा लेकर दलदल के उस पार जाकर कुछ खाने के लिए खोजा जाए। तभी मोबाइल की घंटी बज उठती है। पत्नी की मुस्कुराती हुई फोटो स्क्रीन पर उभरती है।
‘दिख नहीं रहे हो, कहां हो… सोनू को सूसू जाना है। जल्दी आओ।”
वह बुदबुदाया ‘अजीब बच्चा है इनटेक है नहीं और आउटगोइंग चालू है।” खुले में धारा बहाने में सोनू हिचकिचाते हैं। एक पेड़ की आड़ में हलके होने के बाद वो आगे का नजारा देखने के लिए मचल उठते हैं। पापा की उंगली पकड़ने को अपनी तौहीन समझकर वो स्वतंत्र रूप से कदम बढ़ाने लगे। तभी पहाड़ से एक बड़ा सा पत्थर लुढ़कता हुआ पैरों के पास एक फुट पहले आ रुका। कलेजा धक से रह गया। गाड़ियों के हार्न चीखने लगे। सब लोग जनाब की गाड़ी की वजह से अपने को जोखिम की जद में समझ रहे थे।
शोर मचने लगा ये खटारा किसकी है? बच्चे की बांह खींचते हुए जनाब अपनी गाड़ी के पास दौड़े। गाड़ियां बैक होने लगीं। पहाड़ी रास्ते में गाड़ी बैक करके चलाना कम रिस्की नहीं होता। कुछ दूर बैक करने के बाद जनाब चौंके। पीछे की गाड़ियां गायब होती जा रही थीं। जनाब की खोजी नजरों ने देखा कि सभी गाड़ियां एक कच्चे रास्ते शराबियों की तरह डोलती हुई चली जा रही हैं। उनके ब्रेक लगाते ही एक स्थानीय आदमी ने शीशा उतराने के इशारा किया। शीशा उतरते ही कच्ची का भभका पूरी गाड़ी में ट्रैवेल करने लगा।
‘दाजू यह बाईपास है। थोड़ी देर में आप हाईवे पर पहुंच जाएंगे।” जनाब का माथा ठनका। बोले,’मैं रास्ता क्लियर होने का इंतजार करूंगा।” उन्होंने गाड़ी साइड में लगा ली। पत्नी ने घूरा,’यहां रास्ता क्लियर होने का क्या भरोसा है? सभी लोग तो जा रहे हैं, आपको पता नहीं हम सबको परेशान करने में क्या मजा आता है?”
‘देखो मेरी बात ध्यान से सुनो। यह बात है सन 83 की। मैं जीएसआई में अपने इंजीनियर बहनोई व बहन के साथ असम से अरुणाचल जा रहा था। ऐसे ही एक कच्चे रास्तेे में हमारी सरकारी जीप शार्टकट के चक्कर में जा रही थी। ड्राइवर मिलेट्री के सेवानिवृत्त क्षेत्री चला रहे थे। धीमे धीमे हो रही बारिश ने अचानक तेजी पकड़ ली। मानो बादल फट गये हों। पानी भरने लगा। पता चला कि वह कोई सूखी पहाड़ी नदी थी। जिसे हम रास्ता समझकर चले जा रहे थे। हमारी जीप अचानक बंद हो गयी। पानी बढ़ने लगा। जीप का फोरव्हील गेयर भी खराब हो गया। चिकने शंकर पत्थरों में पहिये अपनी जगह नाचकर धंसते जा रहे थे। उतरकर धक्का भी नहीं लगा सकते थे। जीप के अंदर पानी आने लगा। तभी एक ट्रैक्टर ट्राली वाले ने हम पर मेहरबानी कर हमारी जीप को रस्सी के सहारे खींचकर बाहर निकाला। क्या पता यहां भी कोई सूखा नाला हो।”…
थोड़ी देर खामोशी रही। तभी डोर के शीशे पर दस्तक हुई। ये बेवड़ा ऐसे नहीं मानेगा। दोस्त ने गुस्से में गर्दन घुमायी। सामने जोशी जी छाता और टिफिन लिये खड़े मुस्कुरा रहे थे।… सबके चेहरे पर चमक सी आ गयी। एक नया रास्ता खुल गया था।…
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)