सुरेंद्र दुबे
वर्षों से चला आ रहा राम जन्मभूमि के विवाद का सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मित से फैसला कर दिया। कोर्ट ने ये मान लिया कि जमीन भगवान राम की है और मुकदमे में एक पक्ष रामलला विराजमान ही इसके असली हकदार हैं इसलिए ये जमीन उन्हीं को दी जाती है। यानी कि तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मोरा।
सुप्रीम कोर्ट ने जिस ढ़ंग से एक-एक कानूनी बारीकी पर अपना निर्णय दिया है, उसके बाद अब बाल की खाल निकालने की कोई गुंजाइश नहीं बची है। भगवान राम को न केवल उनकी जमीन दे दी गई, बल्कि केंद्र सरकार को स्पष्ट कह दिया गया कि तीन महीने के अंदर राम मंदिर के लिए ट्रस्ट का गठन किया जाए। अब जब ट्रस्ट बनेगी तो जाहिर है उसका स्वरूप वैष्णों देवी मंदिर जैसी ट्रस्ट की ही तरह सरकार के नियंत्रण वाला होगा। इसलिए पैसे की लूट का भी कोई स्कोप नहीं बचेगा।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से राम जन्मभूमि न्यास को भी मंदिर निर्माण के कार्य से अलग कर दिया गया है, ये बात अलग है कि सरकार जब कोई ट्रस्ट बनाएगी तो उसमें आरएसएस व विश्व हिंदू परिषद तथा भाजपा के लोगों का ही दबदबा होगा। कोर्ट ने विवादित जमीन पर सुन्नी वक्फ बोर्ड का कोई दावा स्वीकार नहीं किया। परंतु मुस्लिम पक्ष को अयोध्या में ही मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ जमीन देने का निर्णय लेकर मुस्लिम भाइयों को भी नाराज होने का कोई अवसर नहीं दिया।
इस मामले में अगर किसी को निराशा हुई है तो वह है निर्मोही अखाड़ा, जिसे न तो विवादित जगह पर जमीन मिली और न ही उसके एवज में किसी अन्य स्थान पर जमीन मिली। शायद यही कारण है कि निर्मोही अखाड़े को संतुष्ट करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भविष्य में बनने वाले मंदिर निर्माण ट्रस्ट में प्रतिनिधित्व दिए जाने की बात कही है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस निर्णय को पूरी तरह खारिज कर दिया, जिसमें विवादित जमीन की मलकियत श्री रामलाल विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच तीन हिस्सों में बांट दी गई थी। तो एक तरह से कह सकते हैं कि श्री रामलाल विराजमान को निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड से अपनी जमीन हथियाने में नौ साल लग गए। वैसे तो कहा जाता है, ’ सबै भूमि गोपाल की’।
परंतु कलियुग में भगवान को भी अपनी जमीन प्राप्त करने के लिए न्यायालय की शरण में ही जाना पड़ता है। कोर्ट के निर्णय से ही आज ये साबित हो सका कि भगवान राम अयोध्या की विवादित जमीन पर ही पैदा हुए थे, वर्ना लोग शास्त्रों की बात तो लोग मानने को तैयार ही नहीं थे। कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय देखें तो यही कह सकते हैं कि तुम्हारी भी जय-जय-हमारी भी जय-जय। न तुम हारे, न हम हारे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)