जुबिली न्यूज डेस्क
पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश में छह दशक से ज्यादा समय से रहने वाले चकमा और हाजोंग जनजाति के मुद्दे पर विवाद काफी पुराना है।
करीब छह साल पहले देशी के शीर्ष अदालत ने राज्य में इन दोनों जनजातियों के लोगों को भारतीय नागरिकता देने का निर्देश दिया था, बावजूद इसके यह मुद्दा अब तक पूरी तरह सुलझ नहीं सका है।
इसीलिए एक बार फिर चकमा और हाजोंग जनजाति के संगठन राज्य की मतदाता सूची में नाम शामिल नहीं किए जाने को लेकर आंदोलन की राह पर हैं।
चकमा और हाजोंग तबके के लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जाने के विरोध में अरुणाचल प्रदेश चकमा स्टूडेंट्स यूनियन समेत कई अन्य संगठनों ने आंदोलन शुरू किया है।
प्रदेश की राजधानी इटानगर में जारी एक बयान में संगठन ने कहा है कि हाल में नेशनल वोटर्स डे मनाया गया है, लेकिन अरुणाचल प्रदेश में दशकों से रहने वाले चकमा और हाजोंग तबके के लोगों के लिए यह बेमानी है। हजारों नए वोटरों के आवेदन बिना कोई कारण बताए खारिज कर दिए गए हैं।
चकमा और हाजोंग जनजाति के संगठनों का कहना है कि उनके द्वारा तमाम जरूरी और वैध दस्तावेज जमा करने के बावजूद चुनाव आयोग ने बिना कोई कारण बताए बहुत से लोगों के आवेदनों को खारिज कर दिया है।
इनमें इन जनजातियों के 18 साल से अधिक उम्र के हजारों मतदाता हैं। हाल के दिनों में एक सरकारी सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि अरूणाचल प्रदेश में इन दोनों जनजातियों के महज 5,097 लोगों को ही मतदान का अधिकार है, जबकि साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इन लोगों को नागरिकता देने का निर्देश दिया था, लेकिन अब तक यह मामला कानूनी दाव-पेंच और लालफीताशाही में उलझा है।
दरअसल हाजोंग और चकमा तबके के लोगों को नागरिकता या जमीन खरीदने का अधिकार नहीं है। राज्य में पेमा खांडू के नेतृत्व वाली सरकार की दलील रही है कि इन्हें नागरिकता देने की स्थिति में स्थानीय जनजातियां अल्पसंख्यक हो जाएंगी।
इसके अलावा राज्य के स्थानीय संगठन भी इन जनजातियों को राज्य से खदेडऩे की मांग करते रहे हैं। सवाल है कि आखिर यह जनजातियां कहां से आई और इनके मुद्दे पर विवाद क्यों है? इसको जानने के लिए छह दशक पीछे जाना होगा।
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चटगांव की पहाड़ियों में रहती थी ये जनजातियां
चकमा और हाजोंग जनजातियां देश के विभाजन के पहले से चटगांव की पहाड़ियों जो कि अब बांग्लादेश में है, रहती थीं।
लेकिन 1960 के दशक में इलाके में एक पनबिजली परियोजना के तहत काप्ताई बांध के निर्माण की वजह से जब उनकी जमीन पानी में डूब गई तो उन्होंने पलायन शुरू कियाा।
चकमा जनजाति के लोग बौद्ध हैं जबकि हाजोंग जनजाति हिंदू है। देश के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में भी उनको धार्मिक आधार पर काफी अत्याचर सहना पड़ा था।
1960 के दशक में चटगांव से भारत आने वालों में से महज दो हजार हाजोंग थे और बाकी चकमा। यह लोग तत्कालीन असम के लुसाई पर्वतीय जिले (जो अब मिजोरम का हिस्सा है) से होकर भारत पहुंचे थे।
उनमें से कुछ लोग तो लुसाई हिल्स में पहले से रहने वाले चकमा जनजाति के लोगों के साथ रह गए, लेकिन भारत सरकार ने ज्यादातर शरणार्थियों को अरुणाचल प्रदेश में बसा दिया और इन लोगों को शरणार्थी का दर्जा दिया गया।
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अरुणाचल प्रदेश के इलाके को वर्ष 1972 में केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया था। जब इसे 1987 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिला तो अखिल अरुणाचल प्रदेश छात्र संघ (आप्सू) ने चकमा व हाजोंग समुदाय के लोगों को राज्य में बसाने की कवायद के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया। हालांकि आप्सू का यह विरोध अब तक जारी है।
शरणार्थियों की तादाद बढ़ी
साल 1964 से 1969 के दौरान राज्य में जहां इन दोनों तबके के 2,748 परिवारों के 14,888 शरणार्थी थे वहीं 1995 में यह तादाद तीन सौ फीसदी से भी ज्यादा बढ़ कर साठ हजार तक पहुंच गई। फिलहाल राज्य में इनकी आबादी करीब एक लाख तक पहुंच गई है।
नागरिकता दिलाने के लिए आंदोलन कर रहे चकमा यूथ फेडरेशन के एक नेता ने आरोप लगाते हुए कहा, “तमाम जरूरी दस्तावेज संलग्न करने के बावजूद चुनाव अधिकारियों ने बिना कोई कारण बताए हजारों आवेदनों को खारिज कर दिया है। हमारे तबके के हजारों युवकों ने 18 साल की उम्र होने के बाद बीते साल नवंबर-दिसंबर के दौरान मतदाता सूची में संशोधन के लिए चलाए गए विशेष अभियान के दौरान आवेदन किया था। इनमें से महज कुछ लोगों के नाम ही शामिल किए गए।”
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इन संगठनों ने इस मुद्दे पर चुनाव आयोग के अलावा, प्रधानमंत्री और राज्य सरकार को भी पत्र लिखने का फैसला किया है। इनका आरोप है कि भेदभाव की नीति अपनाते हुए जान-बूझ कर इन दोनों तबके के लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा रहे हैं।