Tuesday - 29 October 2024 - 9:16 PM

घाटी में बकरीद का त्यौहार खैरियत से गुजरने के चलते देश को मिली और तसल्ली

के पी सिंह

बकरीद का त्यौहार कश्मीर घाटी में कुल मिलाकर खैरियत से गुजर गया। हालांकि कई स्थानों पर लोगों ने प्रदर्शन कर सरकार के फैसले पर विरोध जताया है। लेकिन इन प्रदर्शनों के कारण कोई बड़ी गड़बड़ी नहीं हुई जो सरकार के लिए राहत की बात है। अभी तक जो स्थितियां नजर आ रही हैं उससे लगता है कि अंततोगत्वा घाटी के भी लोग अनुच्छेद 370 को हटाने के फैसले को स्वीकार कर लेंगे।

सबसे बड़ी बात यह है कि घाटी के अलगाववादियों को पाकिस्तान की भी मदद नहीं मिल पा रही है। पाकिस्तान की अंदरूनी स्थितियां बेहद जर्जर हैं जिसके चलते जो लोग यह उम्मीद किये थे कि पाकिस्तान प्रतिक्रिया में घाटी में तमाम विध्वंसक कार्रवाइयों को अंजाम देकर भारत की नाक में दम कर पायेगा वे पाकिस्तान की हताशा से टूट गये हैं।

घाटी में सेना के भारी जमावड़े के आगे पाकिस्तान को आतंकवादी कार्रवाइयां प्रायोजित करने की कोई गुंजाइश नहीं मिल पा रही है। साथ ही साथ भारतीय सेना के तेवर देखकर पाकिस्तान के बड़बोले जनरल आक्रामक कार्रवाई के रूप में अपनी प्रतिक्रिया दिखाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं। सही बात यह है कि पहली बार पाकिस्तानी जनरलों को सांप सा सूघ गया है जो कि फिलहाल मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धि है।

अनुच्छेद 370 को हटाने के मामले में ताकत के जोर की जितनी अहमियत रही उससे कहीं कम महत्व भारत की कूटनीतिक व्यूह रचना का नहीं है। इसके कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान 370 हटाने के फैसले के खिलाफ समर्थन जुटाने में विफल रहा।

अमेरिका ने पहले ही इसे भारत का अंदरूनी मामला बताकर पल्ला झाड़ लिया था। रूस ने भी भारत के रूख की ही ताइद की है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसे लेकर किसी तरह के हस्तक्षेप में असमर्थता जता दी है। भारतीय पक्ष का मनोबल इससे बुलंद है भले ही देश के अंदर इस मुद्दे पर कमोबेश राजनीतिक जंग छिड़ी हो।

यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के नाम संबोधन में असहमति के राजनैतिक स्वरों को भी सम्मान दिया और कहा कि मत-विमत ही लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती है। यही नहीं उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि अगर असहमत पक्ष की कुछ बातें ऐसी हैं जिन पर गौर किया जाये तो वे उन्हें संज्ञान में लेकर आवश्यक कदम उठायेंगे। यह दूसरी बात है कि उनकी पार्टी के जज्बाती समर्थक इस राय के नहीं हैं।

उन्हें तो सरकार और भाजपा के विरोध की हर बात में देशद्रोह नजर आता है। अपने अतिवाद से एक तरह से वे लोकतंत्र की रामनाम सत्य कर चुके हैं। उनकी मंशा है कि लोग असंतोष की कोई गुंजाइश न रखे और दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुन गाओ की हालत में चले जायें।

दुनिया में किसी मुद्दे का एकमेव विकल्प नहीं है। मुंडे-मुंडे मर्तिभिन्ने हर समाज की फितरत है। इस कारण कोई समस्या आती है तो उसकी निदान के लिए कई तरह के माडल उपलब्ध होने लगते हैं जिनमें से तमाम एक दूसरे के धुर विरोधी होते हैं। कभी अनुच्छेद 370 ही देश के एकीकरण का जरिया बना था इसलिए अतीत के कालखंडों में बहुमत का अव्यक्त समर्थन इसके साथ रहा जो 370 वादी पार्टियों को भाजपा के मुकाबले मिलते रहे भारी समर्थन से जाहिर है।

आज का संदर्भ देकर 370 की व्यवस्था करने के आधार पर जो लोग अतीत की सरकारों को देश विरोधी साबित करने का उत्साह दिखा रहे हैं उन्हें मालूम नहीं है कि देश की अखंडता को बचाये रखने और सीमाओं का विस्तार करने में उन्हीं सरकारों ने जो योगदान दिया वह अतुलनीय है।

अगर उनके राष्ट्रवादी जज्बातों में कोई ढ़ील होती तो नागालैण्ड और अरूणांचल प्रदेश को भारत का राज्य घोषित करने का साहस दिखाया जाना कभी संभव नहीं था। अगर उन्हें पाकिस्तान से हमदर्दी होती तो उसके टुकड़े कर बंग्लादेश बनवाने का पराक्रम कभी भी सामने नहीं आ सकता था।

मतभिन्नता के बावजूद यहां का हर दल और विचारक उतनी ही शिद्दत से देश भक्त है जितना भाजपा के समर्थक। इसके बावजूद असंतुष्टों के एक बड़े वर्ग को देशद्रोहियों की कोटि में धकेला जाना देश को कमजोर करने जैसा बड़ा अपराध है।

एक उन्नत लोकतंत्र होने के नाते भारत में बौद्धिक धरातल पर समग्र दृष्टिकोण का पनपना स्वाभाविक है जिसके चलते संकीर्णताओं से मुक्त मानवता और प्राकृतिक न्याय पर आधारित विचारों की कसौटी पर हर कदम को परखा जाना स्वाभाविक है। दुनिया के हर सभ्य और विकसित देशों के बौद्धिक समाज में यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है। बहुत सारे लोगों को अनुच्छेद 370 हटाने के कदम पर इसके कारण आपत्ति है।

दूसरी ओर अफगानिस्तान और ईराक जैसे देशों में धार्मिक चरमपंथियों से निपटने में इतने वर्षो बाद भी महाशक्ति तक के सफल न हो पाने की नजीर भी कुछ लोगों को विचलित कर देती है। इसीलिए कश्मीर घाटी में तात्कालिक शांति उन्हें आश्वस्त नहीं कर सकती।

इसी के प्रभाव में अगर वे कहते हैं कि 6 महीने बाद इसका असर सामने आयेगा तो इसे शोर मचाकर अनसुना करना दूरंदेशिता नहीं हो सकता। यह बात सरकार भी समझती है और इसीलिए उसने लंबे समय तक पूरे देश में सतर्कता रखने की तैयारी कर ली है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने संबोधन में जानबूझकर घाटी में हुए कश्मीरी पंडितों के पलायन का मुद्दा नहीं उठाया। उनका जिक्र नहीं करके प्रधानमंत्री ने बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है। अनुच्छेद 370 को हटाने के कदम की सफलता घाटी के अवाम का दिल जीतने पर निर्भर है। बुरहान बानी के एनकाउंटर के बाद से इस मामले में स्थितियों बिगड़ी हैं और कश्मीरी लगातार भारत से दूर किये जाते रहे हैं।

यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह आपरेशन घाटी के मोर्चे पर सुनियोजित ढ़ंग से काम कर रहे हैं जिसमें कश्मीरियों का हृदय परिवर्तन सर्वोपरिता के साथ शामिल है। अपने घर से ही पाकिस्तान की सीमा तक ललकार पहुचाने के कायल समर्थक इस मामले में भी स्थिति बिगाड़ने में पीछे नहीं हैं। यहां तक कि हरियाणा के बूढ़े मुख्यमंत्री को भी अपनी जुबान संयत रखने का ख्याल नहीं आया। लेकिन सरकार भावावेश में नहीं है।

दूसरे राज्यों में कश्मीरियों के साथ दुव्र्यवहार न होने देने के अलर्ट को पुलिस के लिए जारी करने में जो तत्परता दिखाई गई वह प्रशंसनीय है। घाटी में पंचों, सरपंचों को सीधे अधिकार और फंड पहुचाने की व्यवस्था करके कश्मीरियों में पैठ करने की शानदार जुगत की गई है। इस क्रम में देखना होगा कि स्वाधीनता दिवस के दिन घाटी के हर गांव में तिरंगा फहराने की आयोजना कितनी सफल होती है।

बकरीद के दिन सुरक्षा बलों ने नमाजियों को मिठाइयां बांटी। कश्मीरियों को हमदर्दी के बल पर अपने साथ जोड़ने का यह सिलसिला जारी रहना चाहिए। बंग्लादेश की लड़ाई में बुरी तरह शर्मसार होने के कारण बाद में पाकिस्तान ने पंजाब और कश्मीर के अलगाववाद को खाद पानी देने की रणनीति अपनाई।

अनुच्छेद 370 के हटने से उसे जो शिकस्त महसूस हो रही है उसका बदला लेने से वह बाज नहीं आयेगा। इसके बरक्स सरकार को देश की अंदरूनी एकता में कोई बिगाड़ न होने देने की जिम्मेदारी बहुत होशियारी से संभालनी है।

भारतीय समुदाय के बीच इतिहास की लंबी यात्रा में धार्मिक बंटवारा एक यथार्थ है लेकिन इतनी बड़ी संख्या में धार्मिक भिन्नता के बावजूद शानदार सहअस्तित्व के साथ आगे बढ़ने का इसका पक्ष भी काबिले गौर है जो अत्यंत गौरवशाली है। सत्ता पक्ष को अपनी बाढ़ में सिमट आयी समर्थकों की अराजक फौज के आचरण के मद्देनजर इसे सहेजे रखने और ज्यादा समृद्ध बनाने की चुनौती को भी ध्यान में रखना होगा।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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