भारत गणराज्य को विश्व की आदर्श जनतांत्रिक व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। सभी धर्मावलम्बियों को निजिता के सार्वजनिक प्रदर्शन की खुली छूट दी गई है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर धमकी भरे वक्तव्य जारी करने का अधिकार दिया गया है। सरकारी निर्णयों के विरुध्द हिंसक प्रदर्शनों की अप्रत्यक्ष में सहमति है।
मौलिक अधिकारों से लेकर सुखाधिकार तक के नाम पर विभिन्न प्राविधानों का मनमाना उपयोग किया जा रहा है। षडयंत्र को योजना और योजना को अधिकार का स्वरूप देने वाले कानून के जानकार उच्चतम न्यायालय से फांसी की सजा प्राप्त अपराधी के लिए उच्च न्यायालय में पुन: अर्जी लगाते हैं।
विश्व में शायद ही ऐसा कोई देश होगा जहां के लचीले संविधान को कानून के चन्द जानकारों के तर्को पर मनमाना परिभाषित करने की छूट मिली है।
वर्तमान में जब महामारी के खतरनाक संकेतों के मध्य अनेक राज्यों में चुनावी दुन्दुभी बजने का वातावरण निर्मित होता जा रहा है तब देश के संघीय ढांचे को कमजोर करने जैसी स्थितियों के आरोप सामने आ रहे हैं।
जातिगत वैमनुष्यता फैलाने से लेकर साम्प्रदायिकता के आधार पर कानूनी कार्यवाहियां मूर्त रूप लेती जा रहीं हैं। देश से कुछ समय के लिए पुलिस हटा लेने के बाद की स्थिति को मुस्लिम के पक्ष में निरूपित करने की धमकी देने वाले ओबैसी गुट को अभिव्यक्ति की आजादी के आधार पर छूट मिलती है और दूसरी ओर गोडसे को नमन करना संत कालीचरन को महंगा पड जाता है।
छत्तीसगढ पुलिस ने मध्यप्रदेश के श्री बागेश्वर धाम के पास से गिरफ्तारी कर लिया। मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने स्थानीय पुलिस को सूचित किये बगैर की गई इस गिरफ्तारी को संधीय व्यवस्था पर चोट करने वाला बताया तो छत्तीसगढ सरकार ने राजनैतिक बयानबाजी शुरू कर दी।
इस गिरफ्तारी के लिए वहां पर छ: टीमें बनाई गईं थीं। आश्चर्य होता है कि एक अभद्र टिप्पणी पर इतनी गम्भीर होने वाली छत्तीगढ पुलिस कभी नक्सली समस्या के लिए भी इतनी गम्भीर नहीं दिखी।
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महात्मा गांधी पर टिप्पणी और गोडसे को नमन जैसे अपराध पर छत्तीसगढ की सत्ताधारी दल ने अपनी ही पार्टी के एक नेता के प्रार्थना पत्र पर न केवल प्राथमिकी दर्ज की बल्कि आरोपी की गिरफ्तारी हेतु युध्द स्तर पर कार्यवाही भी की।
काश, ऐसी तत्परता नक्सली नासूर को समाप्त करने में या फिर शोषण की शिकार किसी आदिवासी महिला की फरियाद पर दिखाई गई होती तो आज देश की तस्वीर स्वर्णिम आवरण में दमक रही होती।
संत के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार विलोपित हो जाता है। जबकि सम्प्रदायिक सौहार्द बिगाडने वाले धमकी भरे वक्तव्यों से लेकर भारत माता के टुकडे-टुकडे करने वाले नारों तक के पक्ष में देश के अनेक राजनैतिक दल खडे हो जाते हैं। उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरूपित की जाती है।
इस राष्ट्रीय चरित्र के साथ सत्ता सुख भोगने की कल्पना करने वाले स्वयं को राष्ट्रवादी स्थापित करने की फिराक में लगे हुए हैं। संघीय ढांचे को हिलाने का प्रयास जैसे आरोपों से घिरे बंगाल ने एक बार फिर महामारी की आड में अंतर्राष्ट्रीय उडानों पर सीधा नियंत्रण करना शुरू कर दिया है।
बंगाल के अपर मुख्य सचिव बीपी गोपालिका ने नागरिक उड्डयन मंत्रालय के सचिव राजीव बंसल को एक सूचनार्थ पत्र भेजा है जिसमें ओमिक्रोन को आधार बनाकर 03 जनवरी से यूके से कोलकता के लिए सभी सीधी उडानों को निलंबित करने सहित राज्य सरकार व्दारा लिये गये अनेक निर्णयों का उल्लेख किया गया है।
यह केवल सूचनार्थ है न कि सुझावात्मक। जबकि अन्तर्राष्ट्रीय उडानें केन्द्र के अधीन मानी जाती रहीं हैं। इसी तरह से बंगाल के राज्यपाल के अधिकारों, कर्तव्यों और दायित्वों की समीक्षा करने में तृणमूल निरंतर जुटी रहती है।
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शाहीनबाग के कथित आमजन आंदोलन से लेकर कथित आम किसान आंदोलन तक की घटनायें भी सुखद नहीं कही जा सकतीं। राजनैतिक दलों से लेकर सीमापार तक के षडयंत्रों का प्रत्यक्ष परिणाम धार्मिक उन्माद, व्यक्तिगत वैमनुष्यता का बीजारोपण और आपसी भाईचारे को तिलांजलि देने वाला दिखाई देने लगा है।
अतीत की दुहाई पर वर्तमान के क्रियाकलापों से भविष्य का अप्रिय मंजर साफ दिखने लगा है। वर्तमान में भगवां का प्रत्यक्षीकरण खुलकर हो रहा है परन्तु यह न भी नहीं समझना चाहिए कि हरा शांत हो चुका है।
विज्ञान का सिध्दान्त कहता है कि प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया निश्चित ही होती है। डबल इंजन का नारा विकास के लिए देने वालों को धरती के अंतर धधक रहे लावे को नहीं भूलना चाहिए।
धर्मांतरण जैसी घटनाओं की निरंतरता, कानूनी बंदिशों के बाद भी नाबालिगों का सुर्ख जोडों में विदा होना, सीमित समुदाय के पक्ष में भडकाऊ बयानों से आग लगा, सीमापार से आकर आतंकियों का मजहब के नाम पर खूनी खेल खेलना, सेना के मनोबल को तोडने हेतु आतंक विरोधी कार्र्यवाहियों पर राजनैतिक परिधान ओढे लोगों व्दारा आरोपों का हाहाकार करना, न तो निजिता का प्रश्न है और न ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
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राज्य सरकारों व्दारा मनमाने निर्णय लेना न तो उनका विशेषाधिकार है और न ही केन्द्र की व्यवस्था को लागू करने से मना करना संवैधानिक अनुबंध। ऐसे में प्रश्न उठता है कि कहीं देश के संघीय ढांचे को कमजोर करने की कोशिश तो नहीं है राज्यों का मनमाना आचरण?
यह यक्ष प्रश्न देश को नागरिकों को स्वयं अपने ज्ञान के आधार पर हल करना होगा, न कि दूसरों के व्दारा थोपे तर्को के आधार पर। इस प्रश्न का उत्तर मानसिक क्षमता के साथ-साथ आत्मा के स्तर पर भी स्वीकारा जाना चाहिए, तभी वह सत्य के निकट होगा अन्यथा बाह्य प्रभाव, तर्क, विचार और सिध्दान्तों का जमावडा केवल और केवल खिचडी ही बना सकेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।