चन्द्र प्रकाश राय
मैने कुछ साल पहले लिखा था कि आने वाले वक्त में राजनीती की सुईयां एंटी क्लॉक वाइज घूमेंगी ।
कांग्रेस पार्टी आज़ादी के लिए बनी वो काम किया कुर्बानी भी दिया आज़ादी की लड़ाई से बाद तक और शून्य पर खड़े देश को दुनिया के मुकाबले खड़ा भी कर दिया पर आपात काल की लफंगा ब्रिगेड की भर्ती ने इसका लगातार क्षरण किया और ये समय समय पर अपने सिद्धांतो से विचलन और हरम की साजिशों के कारण विघटन का शिकार होती रही।
गांधीवाद की बुनियाद और नेहरु के तथा इन्दिरा गांधी के प्रगतिशील सोच से बढ़ती हुई पार्टी कभी शहबानो तो कभी अयोध्या मे ताला खुलने और नरसिंहा राव के समय के विध्वस और फिर मनमोहन सिंह के समय मध्य मार्ग को छोड़ पूरी तरह पूंजीवादी रास्ते पर जाने के कारण पतन की आखिरी पायदान पर जा खड़ी हुई।
इससे बड़ा क्या दिवालियापन हो सकता है की इतनी पुरानी और इतनी बड़ी पार्टी अपने लिए एक अध्यक्ष नहीं चुन पा रही है और सड़क पर देश और लोकतंत्र के लिए लड़ने के बजाय दिल्ली के चंद बंगलो की आपसी लड़ाई मे उलझी हुई है। कांग्रेस के पास बहुत अच्छा अवसर है मजबूत वापसी का पर वह आज सुविधा और भ्रम के बीच झूल रही है।
उसके लोग निकल जा रहे पर किसी पास फुर्सत नहीं है अपनो से संवाद करने और तारतम्य बिठाने का क्योंकि कोई भी जिम्मेदार नहीं है। वो अपनी भी नहीं समझ पा रही है की इन्दिरा युग कब का बहुत पीछे जा चुका और अब टाक टू माई चपरासी और टाक तो माई पी.ए. से दल नहीं चलने वाला। व्यक्ति विशेष के चमत्कार धूमिल हो चुके है और खुद की सीट बचाना मुश्किल हो रहा है ऐसे मे भी और ज्यादा लोगों को और अपनो को जोड़ने के बजाय अहंकार से टूटने दिया जा रहा है।
ये भी पढ़े : गहलोत हैं कांग्रेस के असली चाणक्य
ये भी पढ़े : सऊदी अरब की शान को कैसे लगा झटका?
ये भी पढ़े : रिया चक्रवर्ती के हिडेन डेटा से खुलेंगे सुशांत केस के अहम राज
भाजपा आरएसएस की राजनीतिक विंग के रूप मे स्थापित हुई । पहले जनसंघ के नाम पर और मूलतः शहरों में बसे पकिस्तान से आये लोगो और व्यापार के पक्ष मे बात करने के कारण लम्बे समय तक व्यापारियो तक सीमित रही। इससे पूर्व बंगाल मे मुस्लिंम लीग से साथ सरकार बना चुकी थी।
फिर 1960 के दशक मे गाय के नाम पर साधुओं को उकसा कर पहचान बनायी तो 1967 मे डा लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के घोड़े पर सवार होकर मुस्लिम मजलिस ,कम्युनिष्ट इत्यादि के साथ सरकार मे शामिल हुई ,फिर आपात्काल के बाद जनता पार्टी मे शामिल हो सभी दलो की पवित्रता का लाभ लिया और उसके बाद जनता दल और कम्युनिष्टो की मिली जुली सरकार समर्थन किया जिसमे कश्मीर का पलायन हुआ और ये कुछ नही बोली।
जब सारे राजनीतिक हथियार फ़ेल हो गए तो सीधे धर्म और राम को एजेंडा बना लिया फिर बात तब बनी जब तमाम छोटे छोटे दलों की जोडा जिसमे खालिस्तान के समर्थक अकाली दल को तो आतंकवादियो को शहीद कहने वाली महबूबा मुफ्ती को भी और बढ़ते गए अपनी पुरानी बाते छोड़ते गए रणनीतिक तौर करीकों को अपनाने लगे।
जहां जो मिला उसी को पार्टी मे शामिल कर लिया और आज करीब 150 सांसद अधिकतर पूर्व कांग्रेसी या अन्य दलों के है। अंग्रेजी मे भाषण होने लगे और हिन्दी सिसकने लगी ।फिर पहले चीन की साम्यवादी पार्टी से सीखा और फिर इस्राइल से और जिन्न का कोई चिराग हाथ लग गया और विजय आसमान तक पहुचने लगी ,दीनदयाल उपाध्याय का अन्त्योदय दहाड़ मार कर रोने लगा और जाकर अम्बानी अडानी के महलो मे उसे शरण मिली ।सिद्धांत और कर्म के बजाय विश्वास धर्म ,राम और अफवाहो पर ही सीमित हो गया। साम्यवादियों का जिक्र ही नही कर रहा हूँ क्योकी न मैं इनकी भाषा समझ पाया न उद्देश्य ही आजतक और शायद देश की जनता भी।
ये भी पढ़े: कोरोना इफेक्ट : चार माह में ही खर्च हो गया साल भर का 45 फीसदी बजट
ये भी पढ़े: तो क्या तिब्बत में चीन भारत के लिए बना रहा है वाटर बम?
समाजवादी पार्टी की स्थापना 10 % बनाम 90 % की लड़ाई और गांधी लोहिया जयप्रकाश को लेकर हुई थी खासकर लोहिया के समाजिक न्याय ,सप्त क्रांति और चौखम्भा राज को लेकर , जे पी की सम्पूर्ण क्रांति और गांधी के प्रीती पराई जानो और समाजिक समरसता को लेकर ,पर समय के साथ समाजिक न्याय पारिवारिक और जातिगत न्याय तक सीमित हो गया और शक्ति के केन्द्रीयकरण ने चौखम्भा राज को गहरे दफना दिया , कौन गांधी और कौन जयप्रकाश?
ऐसी सभी पार्टियाँ जो कभी लोकदल , जनता पार्टी ,जनता दल के नाम पर बने और बिखरे सब एक जैसे ही साबित होते रहे और अपने नेताओ के सीमित उद्देश्य को पूरा कर अविश्वसनीयता तथा असफलता का शिकार होते रहे आरोपो के बोझ से दबे हुये।
बसपा की स्थापना कांशीराम ने बहुत मेहनत से किया था और सोई हुई कमजोर जातियों को जगाया भी और जोड़ा भी। पर वो भी अन्ततः सिर्फ कैसे भी कुर्सी और महल मुकुट ,नोटो की माला तक सिमट गई ।
दोनों ही पार्टियां जिनको गाली देती थी उन्ही की गोद मे बैठ गई ।दोनो ही पार्टियो ने विचार और वैचारिक आधार रखने वालो की कमजोर किया या नेपथ्य ने डाल दिया। दोनो ही पार्टियो के नेता 10 से 90 की न्याय दिलाते दिलाते खुद 10 मे शामिल हो गए और लगातार इसमे और ऊंची पायदान पर पहुचने की ही जद्दो जहद दिखती रही ।
अवसर तो इन सभी नेताओ को मिला और वो चाहते तो सम्पूर्ण पिछड़े दलित अल्पसंख्यक और सभी गरीबो को इमानदारी से समान भाव से ताकत देते आगे बढाते , मजबूत करते तो आज राजनीती की दशा और दिशा ही कुछ और होती और देश आखिरी पायदान के व्यक्ति के कल्याण की तरफ बढ़ रहा होता और ये सब दल एक सार्थक भूमिका निभा रहे होते पर इन्होने ये नही करने और स्वार्थी होने तथा संकुचित होने का गुनाह किया है जिसका खमियाजा भोग रहे है और भोगते रहेंगे।
जैसे अन्ना ने आन्दोलनो की विश्वसनीयता खत्म कर कई सालो के लिए उसकी सम्भवना ही खत्म कर दिया वैसे ही इन पिछड़ो और दलितो तथा गरीबो की बात करने वालो ने भी अब लम्बे समय के लिए उसे खत्म कर दिया है क्योंकि सब चेहरे विश्वसनीयता खो बैठे है ,किसी के पास 20 कोठिया तो किसी के पास बेहिसाब दौलत ने उनको कायर बना दिया है ।
आज दोनो पार्टियाँ परशुराम परशुराम खेल रही है कि कौन कितनी बड़ी मूर्ति बनाएगा । राजनीतिक और दिमागी दिवालियेपन ने देश के मतदाता को हिला कर रख दिया है।
एक नेता तो पहले ही घोषित कर चुके है की वो विष्णु का मंदिर बनायेंगे और कृष्ण की विशाल मूर्ति का भी वादा कर चुके है। सरदार पटेल की ऊंची मूर्ति सिर्फ गुजरात के चुनाव के लिए चीन से बनवायी गई और उसके लिए आसपास के गाँव उजड़े और आज सरदार पटेल बाढ़ में डूबे अपनी सुरक्षा की गुहार लगा रहे है।
कोरोना ने आइना दिखा दिया कि कोई मन्दिर मस्जिद चर्च किसी काम नही आया , हाँ गुरुद्वारे जरूर काम आए पर सेवा के क्योकी उन्होने अंधभक्ति और ढोग नही बल्कि सेवा को ही धर्म के रूप मे अपने मानने वालो के मनों मे बैठा दिया है।
धर्म और उसके प्रतीको पर प्रश्नचिंह लग गया । इस आपदा मे और कोई धर्म और देव किसी भक्त के काम नही आया तो हम डाक्टर को पृथ्वी का देव कहने लगे और अस्पताल को आज का देवालय तथा शिक्षा और विज्ञान तथा अनुसंधान की जरूरत सुविचरित रोजगार नीति और विकास नीति के साथ सबको महसूस होने लगी ।
ये अच्छा अवसर था जनता को अन्धविश्वास और पोंगापंथी से बाहर निकालने का और उसमें वैज्ञानिक सोच पैदा करने का, यह अच्छा अवसर था सरकार के लिए अपनी 1924 /25 की सोच और उद्देश्य से बाहर निकल कर नये तरीके से सोचने का और विकास की दिशा और प्रतिबद्धता मोड़ने का ,सब जोड़ने और शिक्षा चिकित्सा विज्ञान कृषि , गांधी नेहरु के सपनो के भारत की तामीर करने , गांधी द्वारा बताये ग्राम स्वराज की तरफ बढ़ने और बड़े पूंजीपतियों के सरक्षण के बजाय अधिकतम चीजो के लिए कुटीर उद्योग की तरफ बढ़ने और गांधी जी की उस सोच की तरफ बढ़ने का की आसपास के अधिकतम गाव अपने उत्पादन पर ही निर्भर हो जाये जरूरत की अधिकतम चीजो के लिए।
पर सरकार अपने मातृ संगठन की सोच से बाहर नही निकली और इवेंट जारी रखा तथा आपदा को अवसर मान जनता को फिर से मन्दिर और मूर्ति मे उलझा दिया । तो विपक्ष के पास भी अवसर था मजदूरो के साथ सड़क सड़क को नाप देने का और चंद लोगो को छोड़कर कोरोना के प्रति जागरूकता पैदा करते हुये गाँव से लेकर शहर की बस्तियो तक छा जाने का पर वो घरो मे बैठा रहा ।
विपक्ष मे जो लोग गरीब गुरबा के कल्याण और समाजिक न्याय की बात कर खड़े हुये थे उनके पास अवसर था मजदूरो की बदहाली और असुरक्षा तथा गरीबो के और माध्यम वर्ग के सवाल पर निकल पड़ने का और धार्मिक पाखंड के नाम पर देश के बटवारे के खिलाफ और उसको वोट के लिए इस्तेमाल होने के खिलाफ बहस छेद कर जनता को उससे बाहर निकाल लाने का पर डरा हुआ , भ्रमित रहा क्योंकि उसकी सिद्धांतो के प्रति प्रतिबद्धता ही नही है और अधिकतर आरोपो से भी घिरे है तो स्वयं की चितंनहीनता के कारण वो स्वयं भी उन्ही लोगो के अभियान मे शामिल हो गया और मन्दिर मंदिर खेलने लगा ,जबकी इस अवसर का लाभ उठा उसे देश और समाज तथा सरकार की हर कमजोरी के खिलाफ वैकल्पिक कार्यक्रम पेश कर जनता मे उछाल देना चाहिये था विचार और फैसलाकुन होने के लिए।
पर अधिकतर राजकुमारवाद का शिकार विपक्ष अवसर को गंवा बैठा। तो सत्ता ने भी संवादहीनता और अहंकार तथा अपने 5000 साल पहले के चिंतन वाले थिंकटैंक पर अति आत्मविश्वास के कारण देश और समाज को एक अन्धी खोह की तरफ धकेल दिया है जिसका तुरंत कोई निदान दिखलाई नही पड़ रहा है और सबसे बुरा पक्ष यह है की देश विश्वास के संकट मे फंस गया है और बहस उस मुद्दो पर होने के बजाय जो आज की और कल की आवश्यक आवश्यकता है उलझ गया है कि आज़ादी कायम रहेगी या नही ? लोकतंत्र रहेगा या नही ? संविधान रहेगा या नही ? और जवाब किसी के पास नही है बल्कि जवाब में सिर्फ सन्नाटा है ।
राजनीती की सुइयां काफी हद तक एंटी क्लॉक वाइस घूम गई है । अब देखना है की कहा जाकर रुकती है और फिर सही दिशा मे चलना शुरू करती है ।
(चन्द्र प्रकाश राय स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषक और पत्रकार हैं , इस लेख में उनके निजी विचार हैं )